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Monday, 27 March 2017

निर्मला प्रेमचंद उपन्यास / Nirmala Premchand Novel / अध्याय-1

निर्मला प्रेमचंद उपन्यास / Nirmala Premchand Novel / अध्याय-1

प्रेमचंद

मूल नाम-
धनपत राय

जन्म-
31 जुलाई 1880, लमही, वाराणसी (उत्तर प्रदेश)

भाषा : हिंदी, उर्दू
विधाएँ : कहानी, उपन्यास, नाटक, वैचारिक लेख, बाल साहित्य
प्रमुख कृतियाँ : उपन्यास : गोदान, गबन, सेवा सदन, प्रतिज्ञा, प्रेमाश्रम, निर्मला, प्रेमा, कायाकल्प, रंगभूमि, कर्मभूमि, मनोरमा, वरदान, मंगलसूत्र (असमाप्त) 
कहानी : सोज़े वतन, मानसरोवर (आठ खंड), प्रेमचंद की असंकलित कहानियाँ 
नाटक : कर्बला, वरदान 
बाल साहित्य : रामकथा, कुत्ते की कहानी 
विचार : प्रेमचंद : विविध प्रसंग, प्रेमचंद के विचार (तीन खंडों में) 
अनुवाद : आजाद-कथा (उर्दू से, रतननाथ सरशार), पिता के पत्र पुत्री के नाम (अंग्रेजी से, जवाहरलाल नेहरू)
संपादन

:
मर्यादा, माधुरी, हंस, जागरण

निधन

: 8 अक्टूबर 1936
विशेष

:
प्रगतिशील लेखक संघ के स्थापना सम्मेलन (1936) के अध्यक्ष। इनकी अनेक कृतियों पर फिल्में बन चुकी हैं। विभिन्न देशी-विदेशी भाषाओं में अनुवाद। अमृत राय (प्रेमचंद के पुत्र) ने ‘कलम का सिपाही’ और मदन गोपाल ने ‘कलम का मजदूर’ शीर्षक से उनकी जीवनी लिखी है।


निर्मला प्रेमचंद उपन्यास / Nirmala Premchand Novel / अध्याय-1

यों तो बाबू उदयभानुलाल के परिवार में बीसों ही प्राणी थे, कोई ममेरा भाई था, कोई फुफेरा, कोई भांजा था, कोई भतीजा, लेकिन यहां हमें उनसे कोई प्रयोजन नहीं, वह अच्छे वकील थे, लक्ष्मी प्रसन्न थीं और कुटुम्ब के दरिद्र प्राणियों को आश्रय देना उनका कत्तव्य ही था। हमारा सम्बन्ध तो केवल उनकी दोनों कन्याओं से है, जिनमें बड़ी का नाम निर्मला और छोटी का कृष्णा था। अभी कल दोनों साथ-साथ गुड़िया खेलती थीं। निर्मला का पन्द्रहवां साल था, कृष्णा का दसवां, फिर भी उनके स्वभाव में कोई विशेष अन्तर न था। दोनों चंचल, खिलाड़िन और सैर-तमाशे पर जान देती थीं। दोनों गुड़िया का धूमधाम से ब्याह करती थीं, सदा काम से जी चुराती थीं। मां पुकारती रहती थी, पर दोनों कोठे पर छिपी बैठी रहती थीं कि न जाने किस काम के लिए बुलाती हैं। दोनों अपने भाइयों से लड़ती थीं, नौकरों को डांटती थीं और बाजे की आवाज सुनते ही द्वार पर आकर खड़ी हो जाती थीं पर आज एकाएक एक ऐसी बात हो गई है, जिसने बड़ी को बड़ी और छोटी को छोटी बना दिया है। कृष्णा यही है, पर निर्मला बड़ी गम्भीर, एकान्त-प्रिय और लज्जाशील हो गई है। इधर महीनों से बाबू उदयभानुलाल निर्मला के विवाह की बातचीत कर रहे थे। आज उनकी मेहनत ठिकाने लगी है। बाबू भालचन्द्र सिन्हा के ज्येष्ठ पुत्र भुवन मोहन सिन्हा से बात पक्की हो गई है। वर के पिता ने कह दिया है कि आपकी खुशी ही दहेज दें, या न दें, मुझे इसकी परवाह नहीं; हां, बारात में जो लोग जाएें उनका आदर-सत्कार अच्छी तरह होना चहिए, जिसमें मेरी और आपकी जग-हंसाई न हो। बाबू उदयभानुलाल थे तो वकील, पर संचय करना न जानते थे। दहेज उनके सामने कठिन समस्या थी। इसलिए जब वर के पिता ने स्वयं कह दिया कि मुझे दहेज की परवाह नहीं, तो मानों उन्हें आंखें मिल गई। डरते थे, न जाने किस-किस के सामने हाथ फैलाना पड़े, दो-तीन महाजनों को ठीक कर रखा था। उनका अनुमान था कि हाथ रोकने पर भी बीस हजार से कम खर्च न होंगे। यह आश्वासन पाकर वे खुशी के मारे फूले न समाये। 
इसकी सूचना ने अज्ञान बलिका को मुंह ढांप कर एक कोने में बिठा रखा है। उसके हृदय में एक विचित्र शंका समा गई है, रो-रोम में एक अज्ञात भय का संचार हो गया है, न जाने क्या होगा। उसके मन में वे उमंगें नहीं हैं, जो युवतियों की आंखों में तिरछी चितवन बनकर, ओंठों पर मधुर हास्य बनकर और अंगों में आलस्य बनकर प्रकट होती है। नहीं वहां अभिलाषाएं नहीं हैं वहां केवल शंकाएं, चिन्ताएं और भीरू कल्पनाएं हैं। यौवन का अभी तक पूर्ण प्रकाश नहीं हुआ है।
कृष्णा कुछ-कुछ जानती है, कुछ-कुछ नहीं जानती। जानती है, बहन को अच्छे-अच्छे गहने मिलेंगे, द्वार पर बाजे बजेंगे, मेहमान आयेंगे, नाच होगा-यह जानकर प्रसन्न है और यह भी जानती है कि बहन सबके गले मिलकर रोयेगी, यहां से रो-धोकर विदा हो जाएेगी, मैं अकेली रह जाऊंगी- यह जानकर दु:खी है, पर यह नहीं जानती कि यह इसलिए हो रहा है, माताजी और पिताजी क्यों बहन को इस घर से निकालने को इतने उत्सुक हो रहे हैं। बहन ने तो किसी को कुछ नहीं कहा, किसी से लड़ाई नहीं की, क्या इसी तरह एक दिन मुझे भी ये लोग निकाल देंगे? मैं भी इसी तरह कोने में बैठकर रोऊंगी और किसी को मुझ पर दया न आयेगी? इसलिए वह भयभीत भी हैं। 
संध्या का समय था, निर्मला छत पर जानकर अकेली बैठी आकाश की और तृषित नेत्रों से ताक रही थी। ऐसा मन होता था पंख होते, तो वह उड़ जाती और इन सारे झंझटों से छूट जाती। इस समय बहुधा दोनों बहनें कहीं सैर करने जाएा करती थीं। बग्घी खाली न होती, तो बगीचे में ही टहला करतीं, इसलिए कृष्णा उसे खोजती फिरती थी, जब कहीं न पाया, तो छत पर आई और उसे देखते ही हंसकर बोली-तुम यहां आकर छिपी बैठी हो और मैं तुम्हें ढूंढती फिरती हूं। चलो, बग्घी तैयार करा आयी हूं।
निर्मला- ने उदासीन भाव से कहा-तू जा, मैं न जाऊंगी।
कृष्णा-नहीं मेरी अच्छी दीदी, आज जरूर चलो। देखो, कैसी ठण्डी-ठण्डी हवा चल रही है।
निर्मला-मेरा मन नहीं चाहता, तू चली जा।
कृष्णा की आंखें डबडबा आई। कांपती हुई आवाज से बोली- आज तुम क्यों नहीं चलतीं मुझसे क्यों नहीं बोलतीं क्यों इधर-उधर छिपी-छिपी फिरती हो? मेरा जी अकेले बैठे-बैठे घबड़ाता है। तुम न चलोगी, तो मैं भी न जाऊगी। यहीं तुम्हारे साथ बैठी रहूंगी।
निर्मला-और जब मैं चली जाऊंगी तब क्या करेगी? तब किसके साथ खेलेगी और किसके साथ घूमने जाएेगी, बता?
कृष्णा-मैं भी तुम्हारे साथ चलूंगी। अकेले मुझसे यहां न रहा जाएेगा।
निर्मला मुस्कराकर बोली-तुझे अम्मा न जाने देंगी।
कृष्णा-तो मैं भी तुम्हें न जाने दूंगी। तुम अम्मा से कह क्यों नहीं देती कि मैं न जाउंगी।
निर्मला- कह तो रही हूं, कोई सुनता है!
कृष्णा-तो क्या यह तुम्हारा घर नहीं है?
निर्मला-नहीं, मेरा घर होता, तो कोई क्यों जबर्दस्ती निकाल देता?
कृष्णा-इसी तरह किसी दिन मैं भी निकाल दी जाऊंगी?
निर्मला-और नहीं क्या तू बैठी रहेगी! हम लड़कियां हैं, हमारा घर कहीं नहीं होता।
कृष्णा-चन्दर भी निकाल दिया जाएेगा?
निर्मला-चन्दर तो लड़का है, उसे कौन निकालेगा?
कृष्णा-तो लड़कियां बहुत खराब होती होंगी?
निर्मला-खराब न होतीं, तो घर से भगाई क्यों जाती?
कृष्णा-चन्दर इतना बदमाश है, उसे कोई नहीं भगाता। हम-तुम तो कोई बदमाशी भी नहीं करतीं।
एकाएक चन्दर धम-धम करता हुआ छत पर आ पहुंचा और निर्मला को देखकर बोला-अच्छा आप यहां बैठी हैं। ओहो! अब तो बाजे बजेंगे, दीदी दुल्हन बनेंगी, पालकी पर चढ़ेंगी, ओहो! ओहो!
चन्दर का पूरा नाम चन्द्रभानु सिन्हा था। निर्मला से तीन साल छोटा और कृष्णा से दो साल बड़ा।
निर्मला-चन्दर, मुझे चिढ़ाओगे तो अभी जाकर अम्मा से कह दूंगी।
चन्द्र-तो चिढ़ती क्यों हो तुम भी बाजे सुनना। ओ हो-हो! अब आप दुल्हन बनेंगी। क्यों किशनी, तू बाजे सुनेगी न वैसे बाजे तूने कभी न सुने होंगे।
कृष्णा-क्या बैण्ड से भी अच्छे होंगे?
चन्द्र-हां-हां, बैण्ड से भी अच्छे, हजार गुने अच्छे, लाख गुने अच्छे। तुम जानो क्या एक बैण्ड सुन लिया, तो समझने लगीं कि उससे अच्छे बाजे नहीं होते। बाजे बजानेवाले लाल-लाल वर्दियां और काली-काली टोपियां पहने होंगे। ऐसे खबूसूरत मालूम होंगे कि तुमसे क्या कहूं आतिशबाजियां भी होंगी, हवाइयां आसमान में उड़ जाएेंगी और वहां तारों में लगेंगी तो लाल, पीले, हरे, नीले तारे टूट-टूटकर गिरेंगे। बड़ा बजा आयेगा।
कृष्णा-और क्या-क्या होगा चन्दन, बता दे मेरे भैया?
चन्द्र-मेरे साथ घूमने चल, तो रास्ते में सारी बातें बता दूं। ऐसे-ऐसे तमाशे होंगे कि देखकर तेरी आंखें खुल जाएेंगी। हवा में उड़ती हुई परियां होंगी, सचमुच की परियां।
कृष्णा-अच्छा चलो, लेकिन न बताओगे, तो मारूंगी।
चन्द्रभानू और कृष्णा चले गए, पर निर्मला अकेली बैठी रह गई। कृष्णा के चले जाने से इस समय उसे बड़ा क्षोभ हुआ। कृष्णा, जिसे वह प्राणों से भी अधिक प्यार करती थी, आज इतनी निठुर हो गई। अकेली छोड़कर चली गई। बात कोई न थी, लेकिन दु:खी हृदय दुखती हुई आंख है, जिसमें हवा से भी पीड़ा होती है। निर्मला बड़ी देर तक बैठी रोती रही। भाई-बहन, माता-पिता, सभी इसी भांति मुझे भूल जाएेंगे, सबकी आंखें फिर जाएेंगी, फिर शायद इन्हें देखने को भी तरस जाऊं। 
बाग में फूल खिले हुए थे। मीठी-मीठी सुगन्ध आ रही थी। चैत की शीतल मन्द समीर चल रही थी। आकाश में तारे छिटके हुए थे। निर्मला इन्हीं शोकमय विचारों में पड़ी-पड़ी सो गई और आंख लगते ही उसका मन स्वप्न-देश में, विचरने लगा। क्या देखती है कि सामने एक नदी लहरें मार रही है और वह नदी के किनारे नाव की बाठ देख रही है। सन्ध्या का समय है। अंधेरा किसी भयंकर जन्तु की भांति बढ़ता चला आता है। वह घोर चिन्ता में पड़ी हुई है कि कैसे यह नदी पार होगी, कैसे पहुंचूंगी! रो रही है कि कहीं रात न हो जाएे, नहीं तो मैं अकेली यहां कैसे रहूंगी। एकाएक उसे एक सुन्दर नौका घाट की ओर आती दिखाई देती है। वह खुशी से उछल पड़ती है और ज्योही नाव घाट पर आती है, वह उस पर चढ़ने के लिए बढ़ती है, लेकिन ज्योंही नाव के पटरे पर पैर रखना चाहती है, उसका मल्लाह बोल उठता है-तेरे लिए यहां जगह नहीं है! वह मल्लाह की खुशामद करती है, उसके पैरों पड़ती है, रोती है, लेकिन वह यह कहे जाता है, तेरे लिए यहां जगह नहीं है। एक क्षण में नाव खुल जाती है। वह चिल्ला-चिल्लाकर रोने लगती है। नदी के निर्जन तट पर रात भर कैसे रहेगी, यह सोच वह नदी में कूद कर उस नाव को पकड़ना चाहती है कि इतने में कहीं से आवाज आती है-ठहरो, ठहरो, नदी गहरी है, डूब जाओगी। वह नाव तुम्हारे लिए नहीं है, मैं आता हूं, मेरी नाव में बैठ जाओ। मैं उस पार पहुंचा दूंगा। वह भयभीत होकर इधर-उधर देखती है कि यह आवाज कहां से आई? थोड़ी देर के बाद एक छोटी-सी डोंगी आती दिखाई देती है। उसमें न पाल है, न पतवार और न मस्तूल। पेंदा फटा हुआ है, तख्ते टूटे हुए, नाव में पानी भरा हुआ है और एक आदमी उसमें से पानी उलीच रहा है। वह उससे कहती है, यह तो टूटी हुई है, यह कैसे पार लगेगी? मल्लाह कहता है- तुम्हारे लिए यही भेजी गई है, आकर बैठ जाओ! वह एक क्षण सोचती है- इसमें बैठूं या न बैठूं? अन्त में वह निश्चय करती है- बैठ जाऊं। यहां अकेली पड़ी रहने से नाव में बैठ जाना फिर भी अच्छा है। किसी भयंकर जन्तु के पेट में जाने से तो यही अच्छा है कि नदी में डूब जाऊं। कौन जाने, नाव पार पहुंच ही जाएे। यह सोचकर वह प्राणों की मुट्ठी में लिए हुए नाव पर बैठ जाती है। कुछ देर तक नाव डगमगाती हुई चलती है, लेकिन प्रतिक्षण उसमें पानी भरता जाता है। वह भी मल्लाह के साथ दोनों हाथों से पानी उलीचने लगती है। यहां तक कि उनके हाथ रह जाते हैं, पर पानी बढ़ता ही चला जाता है, आखिर नाव चक्कर खाने लगती है, मालूम होती है- अब डूबी, अब डूबी। तब वह किसी अदृश्य सहारे के लिए दोनों हाथ फैलाती है, नाव नीचे जाती है और उसके पैर उखड़ जाते हैं। वह जोर से चिल्लाई और चिल्लाते ही उसकी आंखें खुल गई। देखा, तो माता सामने खड़ी उसका कन्धा पकड़कर हिला रही थी।
बाबू उदयभानुलाल का मकान बाजार बना हुआ है। बरामदे में सुनार के हथौड़े और कमरे में दर्जी की सुईयां चल रही हैं। सामने नीम के नीचे बढ़ई चारपाइयां बना रहा है। खपरैल में हलवाई के लिए भट्ठा खोदा गया है। मेहमानों के लिए अलग एक मकान ठीक किया गया है। यह प्रबन्ध किया जा रहा है कि हरेक मेहमान के लिए एक-एक चारपाई, एक-एक कुर्सी और एक-एक मेज हो। हर तीन मेहमानों के लिए एक-एक कहार रखने की तजवीज हो रही है। अभी बारात आने में एक महीने की देर है, लेकिन तैयारियां अभी से हो रही हैं। बारातियों का ऐसा सत्कार किया जाएे कि किसी को जबान हिलाने का मौका न मिले। वे लोग भी याद करें कि किसी के यहां बारात में गये थे। पूरा मकान बर्तनों से भरा हुआ है। चाय के सेट हैं, नाश्ते की तश्तरियां, थाल, लोटे, गिलास। जो लोग नित्य खाट पर पड़े हुक्का पीते रहते थे, बड़ी तत्परता से काम में लगे हुए हैं। अपनी उपयोगिता सिद्ध करने का ऐसा अच्छा अवसर उन्हें फिर बहुत दिनों के बाद मिलेगा। जहां एक आदमी को जाना होता है, पांच दौड़ते हैं। काम कम होता है, हुल्लड़ अधिक। जरा-जरा सी बात पर घण्टों तर्क-वितर्क होता है और अन्त में वकील साहब को आकर निर्णय करना पड़ता है। एक कहता है, यह घी खराब है, दूसरा कहता है, इससे अच्छा बाजार में मिल जाएे तो टांग की राह से निकल जाऊं। तीसरा कहता है, इसमें तो हीक आती है। चौथा कहता है, तुम्हारी नाक ही सड़ गई है, तुम क्या जानो घी किसे कहते हैं। जब से यहां आये हो, घी मिलने लगा है, नहीं तो घी के दर्शन भी न होते थे! इस पर तकरार बढ़ जाती है और वकील साहब को झगड़ा चुकाना पड़ता है। 
रात के नौ बजे थे। उदयभानुलाल अन्दर बैठे हुए खर्च का तखमीना लगा रहे थे। वह प्राय: रोज ही तखमीना लगते थे पर रोज ही उसमें कुछ-न-कुछ परिवर्तन और परिवर्धन करना पड़ता था। सामने कल्याणी भौंहे सिकोड़े हुए खड़ी थी। बाबू साहब ने बड़ी देर के बाद सिर उठाया और बोले-दस हजार से कम नहीं होता, बल्कि शायद और बढ़ जाएे। 
कल्याणी-दस दिन में पांच से दस हजार हुए। एक महीने में तो शायद एक लाख नौबत आ जाएे।
उदयभानु-क्या करूं, जग हंसाई भी तो अच्छी नहीं लगती। कोई शिकायत हुई तो लोग कहेंगे, नाम बड़े दर्शन थोड़े। फिर जब वह मुझसे दहेज एक पाई नहीं लेते तो मेरा भी कर्तव्य है कि मेहमानों के आदर-सत्कार में कोई बात उठा न रखूं। 
कल्याणी- जब से ब्रह्मा ने सृष्टि रची, तब से आज तक कभी बारातियों को कोई प्रसन्न नहीं रख सकता। उन्हें दोष निकालने और निन्दा करने का कोई-न-कोई अवसर मिल ही जाता है। जिसे अपने घर सूखी रोटियां भी मयस्सर नहीं वह भी बारात में जाकर तानाशाह बन बैठता है। तेल खुशबूदार नहीं, साबुन टके सेर का जाने कहां से बटोर लाये, कहार बात नहीं सुनते, लालटेनें धुआं देती हैं, कुर्सियों में खटमल है, चारपाइयां ढीली हैं, जनवासे की जगह हवादार नहीं। ऐसी-ऐसी हजारों शिकायतें होती रहती हैं। उन्हें आप कहां तक रोकियेगा? अगर यह मौका न मिला, तो और कोई ऐब निकाल लिये जाएेंगे। भई, यह तेल तो रंडियों के लगाने लायक है, हमें तो सादा तेल चाहिए। जनाब ने यह साबुन नहीं भेजा है, अपनी अमीरी की शान दिखाई है, मानो हमने साबुन देखा ही नहीं। ये कहार नहीं यमदूत हैं, जब देखिये सिर पर सवार! लालटेनें ऐसी भेजी हैं कि आंखें चमकने लगती हैं, अगर दस-पांच दिन इस रोशनी में बैठना पड़े तो आंखें फूट जाएं। जनवासा क्या है, अभागे का भाग्य है, जिस पर चारों तरफ से झोंके आते रहते हैं। मैं तो फिर यही कहूंगी कि बारतियों के नखरों का विचार ही छोड़ दो।
उदयभानु- तो आखिर तुम मुझे क्या करने को कहती हो? 
कल्याणी-कह तो रही हूं, पक्का इरादा कर लो कि मैं पांच हजार से अधिक न खर्च करूंगा। घर में तो टका है नहीं, कर्ज ही का भरोसा ठहरा, तो इतना कर्ज क्यों लें कि जिन्दगी में अदा न हो। आखिर मेरे और बच्चे भी तो हैं, उनके लिए भी तो कुछ चाहिए।
उदयभानु- तो आज मैं मरा जाता हूं? 
कल्याणी- जीने-मरने का हाल कोई नहीं जानता।
कल्याणी- इसमें बिगड़ने की तो कोई बात नहीं। मरना एक दिन सभी को है। कोई यहां अमर होकर थोड़े ही आया है। आंखें बन्द कर लेने से तो होने-वाली बात न टलेगी। रोज आंखों देखती हूं, बाप का देहान्त हो जाता है, उसके बच्चे गली-गली ठोकरें खाते फिरते हैं। आदमी ऐसा काम ही क्यों करे? 
उदयभानु न जलकर कहा- जो अब समझ लूं कि मेरे मरने के दिन निकट आ गये, यही तुम्हारी भविष्यवाणी है! सुहाग से स्त्रियों का जी ऊबते नहीं सुना था, आज यह नई बात मालूम हुई। रंडापे में भी कोई सुख होगा ही! 
कल्याणी-तुमसे दुनिया की कोई भी बात कही जाती है, तो जहर उगलने लगते हो। इसलिए न कि जानते हो, इसे कहीं टिकना नहीं है, मेरी ही रोटियों पर पड़ी हुई है या और कुछ! जहां कोई बात कही, बस सिर हो गये, मानों मैं घर की लौंडी हूं, मेरा केवल रोटी और कपड़े का नाता है। जितना ही मैं दबती हूं, तुम और भी दबाते हो। मुफ्तखोर माल उड़ायें, कोई मुंह न खोले, शराब-कबाब में रूपये लुटें, कोई जबान न हिलाये। वे सारे कांटे मेरे बच्चों ही के लिए तो बोये जा रहे है। 
उदयभानु लाल- तो मैं क्या तुम्हारा गुलाम हूं?
कल्याणी- तो क्या मैं तुम्हारी लौंडी हूं?
उदयभानु लाल- ऐसे मर्द और होंगे, जो औरतों के इशारों पर नाचते हैं।
कल्याणी- तो ऐसी स्त्रियों भी होंगी, जो मर्दों की जूतियां सहा करती हैं।
उदयभानु लाल- मैं कमाकर लाता हूं, जैसे चाहूं खर्च कर सकता हूं। किसी को बोलने का अधिकार नहीं।
कल्याणी- तो आप अपना घर संभलिये! ऐसे घर को मेरा दूर ही से सलाम है, जहां मेरी कोई पूछ नहीं घर में तुम्हारा जितना अधिकार है, उतना ही मेरा भी। इससे जौ भर भी कम नहीं। अगर तुम अपने मन के राजा हो, तो मैं भी अपने मन को रानी हूं। तुम्हारा घर तुम्हें मुबारक रहे, मेरे लिए पेट की रोटियों की कमी नहीं है। तुम्हारे बच्चे हैं, मारो या जिलाओ। न आंखों से देखूंगी, न पीड़ा होगी। आंखें फूटीं, पीर गई! 
उदयभानु- क्या तुम समझती हो कि तुम न संभालेगी तो मेरा घर ही न संभलेगा? मैं अकेले ऐसे-ऐसे दस घर संभाल सकता हूं।
कल्याणी-कौन? अगर ‘आज के महीने दिन मिट्टी में न मिल जाएे, तो कहना कोई कहती थी!
यह कहते-कहते कल्याणी का चेहरा तमतमा उठा, वह झमककर उठी और कमरे के द्वार की ओर चली। वकील साहब मुकदमें में तो खूब मीन-मेख निकालते थे, लेकिन स्त्रियों के स्वभाव का उन्हें कुछ यों ही-सा ज्ञान था। यही एक ऐसी विद्या है, जिसमें आदमी बूढ़ा होने पर भी कोरा रह जाता है। अगर वे अब भी नरम पड़ जाते और कल्याणी का हाथ पकड़कर बिठा लेते, तो शायद वह रूक जाती, लेकिन आपसे यह तो हो न सका, उल्टे चलते-चलते एक और चरका दिया।
बोल-मैके का घमण्ड होगा? 
कल्याणी ने द्वारा पर रूक कर पति की ओर लाल-लाल नेत्रों से देखा और बिफरकर बोल- मैके वाले मेरे तकदीर के साथी नहीं है और न मैं इतनी नीच हूं कि उनकी रोटियों पर जा पडूं।
उदयभानु-तब कहां जा रही हो?
कल्याणी-तुम यह पूछने वाले कौन होते हो? ईश्वर की सृष्टि में असंख्य प्राप्रियों के लिए जगह है, क्या मेरे ही लिए जगह नहीं है?
यह कहकर कल्याणी कमरे के बाहर निकल गई। आंगन में आकर उसने एक बार आकाश की ओर देखा, मानो तारागण को साक्षी दे रही है कि मैं इस घर में कितनी निर्दयता से निकाली जा रही हूं। रात के ग्यारह बज गये थे। घर में सन्नाटा छा गया था, दोनों बेटों की चारपाई उसी के कमरे में रहती थी। वह अपने कमरे में आई, देखा चन्द्रभानु सोया है, सबसे छोटा सूर्यभानु चारपाई पर उठ बैठा है। माता को देखते ही वह बोला-तुम तहां दई तीं अम्मां? 
कल्याणी दूर ही से खड़े-खड़े बोली- कहीं तो नहीं बेटा, तुम्हारे बाबूजी के पास गई थी।
सूर्य-तुम तली दई, मुधे अतेले दर लदता था। तुम क्यों तली दई तीं, बताओ?
यह कहकर बच्चे ने गोद में चढ़ने के लिए दोनों हाथ फैला दिये। कल्याणी अब अपने को न रोक सकी। मातृ-स्नेह के सुधा-प्रवाह से उसका संतप्त हृदय परिप्लावित हो गया। हृदय के कोमल पौधे, जो क्रोध के ताप से मुरझा गये थे, फिर हरे हो गये। आंखें सजल हो गई। उसने बच्चे को गोद में उठा लिया और छाती से लगाकर बोली-तुमने पुकार क्यों न लिया, बेटा?
सूर्य-पुतालता तो ता, तुम थुनती न तीं, बताओ अब तो कबी न दाओगी। 
कल्याणी-नहीं भैया, अब नहीं जाऊंगी।
यह कहकर कल्याणी सूर्यभानु को लेकर चारपाई पर लेटी। मां के हृदय से लिपटते ही बालक नि:शंक होकर सो गया, कल्याणी के मन में संकल्प-विकल्प होने लगे, पति की बातें याद आतीं तो मन होता-घर को तिलांजलि देकर चली जाऊं, लेकिन बच्चों का मुंह देखती, तो वासल्य से चित्त गद्रगद्र हो जाता। बच्चों को किस पर छोड़कर जाऊं? मेरे इन लालों को कौन पालेगा, ये किसके होकर रहेंगे? कौन प्रात:काल इन्हें दूध और हलवा खिलायेगा, कौन इनकी नींद सोयेगा, इनकी नींद जागेगा? बेचारे कौड़ी के तीन हो जाएेंगे। नहीं प्यारो, मैं तुम्हें छोड़कर नहीं जाऊंगी। तुम्हारे लिए सब कुछ सह लूंगी। निरादर-अपमान, जली-कटी, खोटी-खरी, घुड़की-झिड़की सब तुम्हारे लिए सहूंगी।
कल्याणी तो बच्चे को लेकर लेटी, पर बाबू साहब को नींद न आई उन्हें चोट करनेवाली बातें बड़ी मुश्किल से भूलती थी। उफ, यह मिजाज! मानों मैं ही इनकी स्त्री हूं। बात मुंह से निकालनी मुश्किल है। अब मैं इनका गुलाम होकर रहूं। घर में अकेली यह रहें और बाकी जितने अपने बेगाने हैं, सब निकाल दिये जाएें। जला करती हैं। मनाती हैं कि यह किसी तरह मरें, तो मैं अकेली आराम करूं। दिल की बात मुंह से निकल ही आती है, चाहे कोई कितना ही छिपाये। कई दिन से देख रहा हूं ऐसी ही जली-कटी सुनाया करती हैं। मैके का घमण्ड होगा, लेकिन वहां कोई भी न पूछेगा, अभी सब आवभगत करते हैं। जब जाकर सिर पड़ जाएेंगी तो आटे-दाल का भाव मालूम हो जाएेगा। रोती हुई जाएेंगी। वाह रे घमण्ड! सोचती हैं-मैं ही यह गृहस्थी चलाती हूं। अभी चार दिन को कहीं चला जाऊं, तो मालूम हो जाएेगा, सारी शेखी किरकिरी हो जाएेगा। एक बार इनका घमण्ड तोड़ ही दूं। जरा वैधव्य का मजा भी चखा दूं। न जाने इनकी हिम्मत कैसे पड़ती है कि मुझे यों कोसने लगत हैं। मालूम होता है, प्रेम इन्हें छू नहीं गया या समझती हैं, यह घर से इतना चिमटा हुआ है कि इसे चाहे जितना कोसूं, टलने का नाम न लेगा। यही बात है, पर यहां संसार से चिमटनेवाले जीव नहीं हैं! जहन्नुम में जाएे यह घर, जहां ऐसे प्राणियों से पाला पड़े। घर है या नरक? आदमी बाहर से थका-मांदा आता है, तो उसे घर में आराम मिलता है। यहां आराम के बदले कोसने सुनने पड़ते हैं। मेरी मृत्यु के लिए व्रत रखे जाते हैं। यह है पचीस वर्ष के दाम्पत्य जीवन का अन्त! बस, चल ही दूं। जब देख लूंगा इनका सारा घमण्ड धूल में मिल गया और मिजाज ठण्डा हो गया, तो लौट आऊंगा। चार-पांच दिन काफी होंगे। लो, तुम भी याद करोगी किसी से पाला पड़ा था।
यही सोचते हुए बाबू साहब उठे, रेशमी चादर गले में डाली, कुछ रूपये लिये, अपना कार्ड निकालकर दूसरे कुर्ते की जेब में रखा, छड़ी उठाई और चुपके से बाहर निकले। सब नौकर नींद में मस्त थे। कुत्ता आहट पाकर चौंक पड़ा और उनके साथ हो लिया।
पर यह कौन जानता था कि यह सारी लीला विधि के हाथों रची जा रही है। जीवन-रंगशाला का वह निर्दय सूत्रधार किसी अगम गुप्त स्थान पर बैठा हुआ अपनी जटिल क्रूर क्रीड़ा दिखा रहा है। यह कौन जानता था कि नकल असल होने जा रही है, अभिनय सत्य का रूप ग्रहण करने वाला है।
निशा ने इन्दू को परास्त करके अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया था। उसकी पैशाचिक सेना ने प्रकृति पर आतंक जमा रखा था। सद्रवृत्तियां मुंह छिपाये पड़ी थीं और कुवृत्तियां विजय-गर्व से इठलाती फिरती थीं। वन में वन्यजन्तु शिकार की खोज में विचार रहे थे और नगरों में नर-पिशाच गलियों में मंडराते फिरते थे।
बाबू उदयभानुलाल लपके हुए गंगा की ओर चले जा रहे थे। उन्होंने अपना कुर्त्ता घाट के किनारे रखकर पांच दिन के लिए मिर्जापुर चले जाने का निश्चय किया था। उनके कपड़े देखकर लोगों को डूब जाने का विश्वास हो जाएेगा, कार्ड कुर्ते की जेब में था। पता लगाने में कोई दिक्कत न हो सकती थी। दम-के-दम में सारे शहर में खबर मशहूर हो जाएेगी। आठ बजते-बजते तो मेरे द्वार पर सारा शहर जमा हो जाएेगा, तब देखूं, देवी जी क्या करती हैं? 
यही सोचते हुए बाबू साहब गलियों में चले जा रहे थे, सहसा उन्हें अपने पीछे किसी दूसरे आदमी के आने की आहट मिली, समझे कोई होगा। आगे बढ़े, लेकिन जिस गली में वह मुड़ते उसी तरफ यह आदमी भी मुड़ता था। तब बाबू साहब को आशंका हुई कि यह आदमी मेरा पीछा कर रहा है। ऐसा आभास हुआ कि इसकी नीयत साफ नहीं है। उन्होंने तुरन्त जेबी लालटेन निकाली और उसके प्रकाश में उस आदमी को देखा। एक बरिष्ष्ठ मनुष्य कन्धे पर लाठी रखे चला आता था। बाबू साहब उसे देखते ही चौंक पड़े। यह शहर का छटा हुआ बदमाश था। तीन साल पहले उस पर डाके का अभियोग चला था। उदयभानु ने उस मुकदमे में सरकार की ओर से पैरवी की थी और इस बदमाश को तीन साल की सजा दिलाई थी। सभी से वह इनके खून का प्यासा हो रहा था। कल ही वह छूटकर आया था। आज दैवात् साहब अकेले रात को दिखाई दिये, तो उसने सोचा यह इनसे दाव चुकाने का अच्छा मौका है। ऐसा मौका शायद ही फिर कभी मिले। तुरन्त पीछे हो लिया और वार करने की घात ही में था कि बाबू साहब ने जेबी लालटेन जलाई। बदमाश जरा ठिठककर बोला-क्यों बाबूजी पहचानते हो? मैं हूं मतई।
बाबू साहब ने डपटकर कहा- तुम मेरे पिछे-पिछे क्यों आरहे हो? 
मतई- क्यों, किसी को रास्ता चलने की मनाही है? यह गली तुम्हारे बाप की है?
बाबू साहब जवानी में कुश्ती लड़े थे, अब भी हृष्ट-पुष्ट आदमी थे। दिल के भी कच्चे न थे। छड़ी संभालकर बोले-अभी शायद मन नहीं भरा। अबकी सात साल को जाओगे।
मतई-मैं सात साल को जाऊंगा या चौदह साल को, पर तुम्हें जिद्दा न छोडूंगा। हां, अगर तुम मेरे पैरों पर गिरकर कसम खाओ कि अब किसी को सजा न कराऊंगा, तो छोड़ दूं। बोलो मंजूर है? 
उदयभानु-तेरी शामत तो नहीं आई?
मतई-शामत मेरी नहीं आई, तुम्हारी आई है। बोलो खाते हो कसम-एक!
उदयभानु-तुम हटते हो कि मैं पुलिसमैन को बुलाऊं।
मतई-दो!
उदयभानु-(गरजकर) हट जा बादशाह, सामने से!
मतई-तीन!
मुंह से ‘तीन’ शब्द निकालते ही बाबू साहब के सिर पर लाठी का ऐसा तुला हाथ पड़ा कि वह अचेत होकर जमीन पर गिर पड़े। मुंह से केवल इतना ही निकला-हाय! मार डाला!
मतई ने समीप आकर देखा, तो सिर फट गया था और खून की घार निकल रही थी। नाड़ी का कहीं पता न था। समझ गया कि काम तमाम हो गया। उसने कलाई से सोने की घड़ी खोल ली, कुर्ते से सोने के बटन निकाल लिये, उंगली से अंगूठी उतारी और अपनी राह चला गया, मानो कुछ हुआ ही नहीं। हां, इतनी दया की कि लाश रास्ते से घसीटकर किनारे डाल दी। हाय, बेचारे क्या सोचकर चले थे, क्या हो गया! जीवन, तुमसे ज्यादा असार भी दुनिया में कोई वस्तु है? क्या वह उस दीपक की भांति ही क्षणभंगुर नहीं है, जो हवा के एक झोंके से बुझ जाता है! पानी के एक बुलबुले को देखते हो, लेकिन उसे टूटते भी कुछ देर लगती है, जीवन में उतना सार भी नहीं। सांस का भरोसा ही क्या और इसी नश्वरता पर हम अभिलाषाओं के कितने विशाल भवन बनाते हैं! नहीं जानते, नीचे जानेवाली सांस ऊपर आयेगी या नहीं, पर सोचते इतनी दूर की हैं, मानो हम अमर हैं।

निर्मला प्रेमचंद उपन्यास / Nirmala Premchand Novel / अध्याय-3

निर्मला प्रेमचंद उपन्यास / Nirmala Premchand Novel / अध्याय-3

निर्मला प्रेमचंद उपन्यास / Nirmala Premchand Novel / अध्याय-3
निर्मला का विवाह हो गया। ससुराल आ गयी। वकील साहब का नाम था मुंशी तोताराम। सांवले रंग के मोटे-ताजे आदमी थे। उम्र तो अभी चालीस से अधिक न थी, पर वकालत के कठिन परिश्रम ने सिर के बाल पका दिये थे। व्यायाम करने का उन्हें अवकाश न मिलता था। वहां तक कि कभी कहीं घूमने भी न जाते, इसलिए तोंद निकल आई थी। देह के स्थून होते हुए भी आये दिन कोई-न-कोई शिकायत रहती थी। मंदग्नि और बवासीर से तो उनका चिरस्थायी सम्बन्ध था। अतएव बहुत फूंक-फूंककर कदम रखते थे। उनके तीन लड़के थे। बड़ा मंसाराम सोहल वर्ष का था, मंझला जियाराम बारह और सियाराम सात वर्ष का। तीनों अंग्रेजी पढ़ते थे। घर में वकील साहब की विधवा बहिन के सिवा और कोई औरत न थी। वही घर की मालकिन थी। उनका नाम था रुकमिणी और अवस्था पचास के ऊपर थी। ससुराल में कोई न था। स्थायी रीति से यहीं रहती थीं।
तोताराम दम्पति-विज्ञान में कुशल थे। निर्मला के प्रसन्न रखने के लिए उनमें जो स्वाभाविक कमी थी, उसे वह उपहारों से पूरी करना चाहते थे। यद्यपि वह बहु ही मितव्ययी पुरूष थे, पर निर्मला के लिए कोई-न-कोई तोहफा रोज लाया करते। मौके पर धन की परवाइ न करते थे। लड़के के लिए थोड़ा दूध आता था, पर निर्मला के लिए मेवे, मुरब्बे, मिठाइयां-किसी चीज की कमी न थी। अपनी जिन्दगी में कभी सैर-तमाशे देखने न गये थे, पर अब छुट्टियों में निर्मला को सिनेमा, सरकस, एटर, दिखाने ले जाते थे। अपने बहुमूल्य समय का थोडा-सा हिस्सा उसके साथ बैंठकर ग्रामोफोन बजाने में व्यतीत किया करते थे।
लेकिन निर्मला को न जाने क्यों तोताराम के पास बैठने और हंसने-बोलने में संकोच होता था। इसका कदाचित् यह कारण था कि अब तक ऐसा ही एक आदमी उसका पिता था, जिसके सामने वह सिर-झुकाकर, देह चुराकर निकलती थी, अब उनकी अवस्था का एक आदमी उसका पति था। वह उसे प्रेम की वस्तु नहीं सम्मान की वस्तु समझती थी। उनसे भागती फिरती, उनको देखते ही उसकी प्रफुल्लता पलायन कर जाती थी।
वकील साहब को नके दम्पत्ति-विज्ञान न सिखाया था कि युवती के सामने खूब प्रेम की बातें करनी चाहिये। दिल निकालकर रख देना चहिये, यही उसके वशीकरण का मुख्य मंत्र है। इसलिए वकील साहब अपने प्रेम-प्रदर्शन में कोई कसर न रखते थे, लेकिन निर्मला को इन बातों से घृणा होती थी। वही बातें, जिन्हें किसी युवक के मुख से सुनकर उनका हृदय प्रेम से उन्मत्त हो जाता, वकील साहब के मुंह से निकलकर उसके हृदय पर शर के समान आघात करती थीं। उनमें रस न था उल्लास न था, उन्माद न था, हृदय न था, केवल बनावट थी, घोखा था और शुष्क, नीरस शब्दाडम्बर। उसे इत्र और तेल बुरा न लगता, सैर-तमाशे बुरे न लगते, बनाव-सिंगार भी बुरा न लगता था, बुरा लगता था, तो केवल तोताराम के पास बैठना। वह अपना रूप और यौवन उन्हें न दिखाना चाहती थी, क्योंकि वहां देखने वाली आंखें न थीं। वह उन्हें इन रसों का आस्वादन लेने योग्य न समझती थी। कली प्रभात-समीर ही के सपर्श से खिलती है। दोनों में समान सारस्य है। निर्मला के लिए वह प्रभात समीर कहां था?
पहला महीना गुजरते ही तोताराम ने निर्मला को अपना खजांची बना लिया। कचहरी से आकर दिन-भर की कमाई उसे दे देते। उनका ख्याल था कि निर्मला इन रूपयों को देखकर फूली न समाएगी। निर्मला बड़े शौक से इस पद का काम अंजाम देती। एक-एक पैसे का हिसाब लिखती, अगर कभी रूपये कम मिलते, तो पूछती आज कम क्यों हैं। गृहस्थी के सम्बन्ध में उनसे खूब बातें करती। इन्हीं बातों के लायक वह उनको समझती थी। ज्योंही कोई विनोद की बात उनके मुंह से निकल जाती, उसका मुख लिन हो जाता था।
निर्मला जब वस्त्राभूष्णों से अलंकृत होकर आइने के सामने खड़ी होती और उसमें अपने सौंन्दर्य की सुषमापूर्ण आभा देखती, तो उसका हृदय एक सतृष्ण कामना से तड़प उठता था। उस वक्त उसके हृदय में एक ज्वाला-सी उठती। मन में आता इस घर में आग लगा दूं। अपनी माता पर क्रोध आता, पर सबसे अधिक क्रोध बेचारे निरपराध तोताराम पर आता। वह सदैव इस ताप से जला करती। बांका सवार लद्रदू-टट्टू पर सवार होना कब पसन्द करेगा, चाहे उसे पैदल ही क्यों न चलना पड़े? निर्मला की दशा उसी बांके सवार की-सी थी। वह उस पर सवार होकर उड़ना चाहती थी, उस उल्लासमयी विद्यत् गति का आनन्द उठाना चाहती थी, टट्टू के हिनहिनाने और कनौतियां खड़ी करने से क्या आशा होती? संभव था कि बच्चों के साथ हंसने-खेलने से वह अपनी दशा को थोड़ी देर के लिए भूल जाती, कुछ मन हरा हो जाता, लेकिन रुकमिणी देवी लड़कों को उसके पास फटकने तक न देतीं, मानो वह कोई पिशाचिनी है, जो उन्हें निगल जाएेगी। रुकमिणी देवी का स्वभाव सारे संसार से निराला था, यह पता लगाना कठिन था कि वह किस बात से खुश होती थीं और किस बात से नाराज। एक बार जिस बात से खुश हो जाती थीं, दूसरी बार उसी बात से जल जाती थी। अगर निर्मला अपने कमरे में बैठी रहती, तो कहतीं कि न जाने कहां की मनहूसिन है! अगर वह कोठे पर चढ़ जाती या महरियों से बातें करती, तो छाती पीटने लगतीं-न लाज है, न शरम, निगोड़ी ने हया भून खाई! अब क्या कुछ दिनों में बाजार में नाचेगी! जब से वकील साहब ने निर्मला के हाथ में रुपये-पैसे देने शुरू किये, रुकमिणी उसकी आलोचना करने पर आरूढ़ हो गयी। उन्हें मालूम होता था। कि अब प्रलय होने में बहुत थोड़ी कसर रह गयी है। लड़कों को बार-बार पैसों की जरूरत पड़ती। जब तक खुद स्वामिनी थीं, उन्हें बहला दिया करती थीं। अब सीधे निर्मला के पास भेज देतीं। निर्मला को लड़कों के चटोरापन अच्छा न लगता था। कभी-कभी पैसे देने से इन्कार कर देती। रुकमिणी को अपने वाग्बाण सर करने का अवसर मिल जाता-अब तो मालकिन हुई है, लड़के काहे को जियेंगे। बिना मां के बच्चे को कौन पूछे? रूपयों की मिठाइयां खा जाते थे, अब धेले-धेले को तरसते हैं। निर्मला अगर चिढ़कर किसी दिन बिना कुछ पूछे-ताछे पैसे दे देती, तो देवीजी उसकी दूसरी ही आलोचना करतीं-इन्हें क्या, लड़के मरे या जियें, इनकी बला से, मां के बिना कौन समझाये कि बेटा, बहुत मिठाइयां मत खाओ। आयी-गयी तो मेरे सिर जाएेगी, इन्हें क्या? यहीं तक होता, तो निर्मला शायद जब्त कर जाती, पर देवीजी तो खुफिया पुलिस से सिपाही की भांति निर्मला का पीछा करती रहती थीं। अगर वह कोठे पर खड़ी है, तो अवश्य ही किसी पर निगाह डाल रही होगी, महरी से बातें करती है, तो अवश्य ही उनकी निन्दा करती होगी। बाजार से कुछ मंगवाती है, तो अवश्य कोई विलास वस्तु होगी। यह बराबर उसके पत्र पढ़ने की चेष्टा किया करती। छिप-छिपकर बातें सुना करती। निर्मला उनकी दोधरी तलवार से कांपती रहती थी। यहां तक कि उसने एक दिन पति से कहा-आप जरा जीजी को समझा दीजिए, क्यों मेरे पीछे पड़ रहती हैं?
तोताराम ने तेज होकर कह- तुम्हें कुछ कहा है, क्या?
‘रोज ही कहती हैं। बात मुंह से निकालना मुश्किल है। अगर उन्हें इस बात की जलन हो कि यह मालकिन क्यों बनी हुई है, तो आप उन्हीं को रूपये-पैसे दीजिये, मुझे न चाहिये, यही मालकिन बनी रहें। मैं तो केवल इतना चाहती हूं कि कोई मुझे ताने-मेहने न दिया करे।’
यह कहते-कहते निर्मला की आंखों से आंसू बहने लगे। तोताराम को अपना प्रेम दिखाने का यह बहुत ही अच्छा मौका मिला। बोले-मैं आज ही उनकी खबर लूंगा। साफ कह दूंगा, मुंह बन्द करके रहना है, तो रहो, नहीं तो अपनी राह लो। इस घर की स्वामिनी वह नहीं है, तुम हो। वह केवल तुम्हारी सहायता के लिए हैं। अगर सहायता करने के बदले तुम्हें दिक करती हैं, तो उनके यहां रहने की जरूरत नहीं। मैंने सोचा था कि विधवा हैं, अनाथ हैं, पाव भर आटा खायेंगी, पड़ी रहेंगी। जब और नौकर-चाकर खा रहे हैं, तो वह तो अपनी बहिन ही है। लड़कों की देखभाल के लिए एक औरत की जरूरत भी थी, रख लिया, लेकिन इसके यह माने नहीं कि वह तुम्हारे ऊपर शासन करें।
निर्मला ने फिर कहा-लड़कों को सिखा देती हैं कि जाकर मां से पैसे मांगे, कभी कुछ-कभी कुछ। लड़के आकर मेरी जान खाते हैं। घड़ी भर लेटना मुश्किल हो जाता है। डांटती हूं, तो वह आखें लाल-पीली करके दौड़ती हैं। मुझे समझती हैं कि लड़कों को देखकर जलती है। ईश्वर जानते होंगे कि मैं बच्चों को कितना प्यार करती हूं। आखिर मेरे ही बच्चे तो हैं। मुझे उनसे क्यों जलन होने लगी?
तोताराम क्रोध से कांप उठे। बोल-तुम्हें जो लड़का दिक करे, उसे पीट दिया करो। मैं भी देखता हूं कि लौंडे शरीर हो गये हैं। मंसाराम को तो में बोर्डिंग हाउस में भेज दूंगा। बाकी दोनों को तो आज ही ठीक किये देता हूं।
उस वक्त तोताराम कचहरी जा रहे थे, डांट-डपट करने का मौका न था, लेकिन कचहरी से लौटते ही उन्होंने घर में रुक्मिणी से कहा-क्यों बहिन, तुम्हें इस घर में रहना है या नहीं? अगर रहना है, शान्त होकर रहो। यह क्या कि दूसरों का रहना मुश्किल कर दो।
रुक्मिणी समझ गयीं कि बहू ने अपना वार किया, पर वह दबने वाली औरत न थीं। एक तो उम्र में बड़ी तिस पर इसी घर की सेवा में जिन्दगी काट दी थी। किसकी मजाल थी कि उन्हें बेदखल कर दे! उन्हें भाई की इस क्षुद्रता पर आश्चर्य हुआ। बोलीं-तो क्या लौंडी बनाकर रखेगे? लौंडी बनकर रहना है, तो इस घर की लौंडी न बनूंगी। अगर तुम्हारी यह इच्छा हो कि घर में कोई आग लगा दे और मैं खड़ी देखा करूं, किसी को बेराह चलते देखूं; तो चुप साध लूं, जो जिसके मन में आये करे, मैं मिट्टी की देवी बनी रहूं, तो यह मुझसे न होगा। यह हुआ क्या, जो तुम इतना आपे से बाहर हो रहे हो? निकल गयी सारी बुद्धिमानी, कल की लौंडिया चोटी पकड़कर नचाने लगी? कुछ पूछना न ताछना, बस, उसने तार खींचा और तुम काठ के सिपाही की तरह तलवार निकालकर खड़े हो गये।
तोता-सुनता हूं, कि तुम हमेशा खुचर निकालती रहती हो, बात-बात पर ताने देती हो। अगर कुछ सीख देनी हो, तो उसे प्यार से, मीठे शब्दों में देनी चाहिये। तानों से सीख मिलने के बदले उलटा और जी जलने लगता है।
रुक्मिणी-तो तुम्हारी यह मर्जी है कि किसी बात में न बोलूं, यही सही, किन फिर यह न कहना, कि तुम घर में बैठी थीं, क्यों नहीं सलाह दी। जब मेरी बातें जहर लगती हैं, तो मुझे क्या कुत्ते ने काटा है, जो बोलूं? मसल है- ‘नाटों खेती, बहुरियों घर।’ मैं भी देखूं, बहुरिया कैसे कर चलाती है!
इतने में सियाराम और जियाराम स्कूल से आ गये। आते ही आते दोनों बुआजी के पास जाकर खाने को मांगने लगे।
रुक्मिणी ने कहा-जाकर अपनी नयी अम्मां से क्यों नहीं मांगते, मुझे बोलने का हुक्म नहीं है।
तोता-अगर तुम लोगों ने उस घर में कदम रखा, तो टांग तोड़ दूंगा। बदमाशी पर कमर बांधी है।
जियाराम जरा शोख था। बोला-उनको तो आप कुछ नहीं कहते, हमीं को धमकाते हैं। कभी पैसे नहीं देतीं।
सियाराम ने इस कथन का अनुमोदन किया-कहती हैं, मुझे दिक करोगे तो कान काट लूंगी। कहती है कि नहीं जिया?
निर्मला अपने कमरे से बोली-मैंने कब कहा था कि तुम्हारे कान काट लूंगी अभी से झूठ बोलने लगे?
इतना सुनना था कि तोताराम ने सियाराम के दोनों कान पकड़कर उठा लिया। लड़का जोर से चीख मारकार रोने लगा।
रुक्मिणी ने दौड़कर बच्चे को मुंशीजी के हाथ से छुड़ा लिया और बोलीं- बस, रहने भी दो, क्या बच्चे को मार डालोगे? हाय-हाय! कान लाल हो गया। सच कहा है, नयी बीवी पाकर आदमी अन्धा हो जाता है। अभी से यह हाल है, तो इस घर के भगवान ही मालिक हैं।
निर्मला अपनी विजय पर मन-ही-मन प्रसन्न हो रही थी, लेकिन जब मुंशी जी ने बच्चे का कान पकड़कर उठा लिया, तो उससे न रहा गया। छुड़ाने को दौड़ी, पर रुक्मिणी पहले ही पहुंच गयी थीं। बोलीं-पहले आग लगा दी, अब बुझाने दौड़ी हो। जब अपने लड़के होंगे, तब आंखें खुलेंगी। पराई पीर क्या जानो?
निर्मला- खड़े तो हैं, पूछ लो न, मैंने क्या आग लगा दी? मैंने इतना ही कहा था कि लड़के मुझे पैसों के लिए बार-बार दिक करते हैं, इसके सिवाय जो मेरे मुंह से कुछ निकला हो, तो मेरे आंखें फूट जाएें।
तोता-मैं खुद इन लौंडों की शरारत देखा करता हूं, अन्धा थोड़े ही हूं। तीनों जिद्दी और शरीर हो गये हैं। बड़े मियां को तो मैं आज ही होस्टल में भेजता हूं।
रुक्मिणी-अब तक तुम्हें इनकी कोई शरारत न सूझी थी, आज आंखें क्यों इतनी तेज हो गयीं?
तोताराम- तुम्हीं न इन्हें इतना शोख कर रखा है।
रुकमिणी- तो मैं ही विष की गांठ हूं। मेरे ही कारण तुम्हारा घर चौपट हो रहा है। लो मैं जाती हूं, तुम्हारे लड़के हैं, मारो चाहे काटो, न बोलूंगी।
यह कहकर वह वहां से चली गयीं। निर्मला बच्चे को रोते देखकर विहृल हो उठी। उसने उसे छाती से लगा लिया और गोद में लिए हुए अपने कमरे में लाकर उसे चुमकारने लगी, लेकिन बालक और भी सिसक-सिसक कर रोने लगा। उसका अबोध हृदय इस प्यार में वह मातृ-स्नेह न पाता था, जिससे दैव ने उसे वंचित कर दिया था। यह वात्सल्य न था, केवल दया थी। यह वह वस्तु थी, जिस पर उसका कोई अधिकार न था, जो केवल भिक्षा के रूप में उसे दी जा रही थी। पिता ने पहले भी दो-एक बार मारा था, जब उसकी मां जीवित थी, लेकिन तब उसकी मां उसे छाती से लगाकर रोती न थी। वह अप्रसन्न होकर उससे बोलना छोड़ देती, यहां तक कि वह स्वयं थोड़ी ही देर के बाद कुछ भूलकर फिर माता के पास दौड़ा जाता था। शरारत के लिए सजा पाना तो उसकी समझ में आता था, लेकिन मार खाने पार चुमकारा जाना उसकी समझ में न आता था। मातृ-प्रेम में कठोरता होती थी, लेकिन मृदुलता से मिली हुई। इस प्रेम में करूणा थी, पर वह कठोरता न थी, जो आत्मीयता का गुप्त संदेश है। स्वस्थ अंग की पारवाह कौन करता है? लेकिन वही अंग जब किसी वेदना से टपकने लगता है, तो उसे ठेस और घक्के से बचाने का यत्न किया जाता है। निर्मला का करूण रोदन बालक को उसके अनाथ होने की सूचना दे रहा था। वह बड़ी देर तक निर्मला की गोद में बैठा रोता रहा और रोते-रोते सो गया। निर्मला ने उसे चारपाई पर सुलाना चाहा, तो बालक ने सुषुप्तावस्था में अपनी दोनों कोमल बाहें उसकी गर्दन में डाल दीं और ऐसा चिपट गया, मानो नीचे कोई गढ़ा हो। शंका और भय से उसका मुख विकृत हो गया। निर्मला ने फिर बालक को गोद में उठा लिया, चारपाई पर न सुला सकी। इस समय बालक को गोद में लिये हुए उसे वह तुष्टि हो रही थी, जो अब तक कभी न हुई थी, आज पहली बार उसे आत्मवेदना हुई, जिसके ना आंख नहीं खुलती, अपना कर्त्तव्य-मार्ग नहीं समझता। वह मार्ग अब दिखायी देने लगा।
उस दिन अपने प्रगाढ़ प्रणय का सबल प्रमाण देने के बाद मुंशी तोताराम को आशा हुई थी कि निर्मला के मर्म-स्थल पर मेरा सिक्का जम जाएेगा, लेकिन उनकी यह आशा लेशमात्र भी पूरी न हुई बल्कि पहले तो वह कभी-कभी उनसे हंसकर बोला भी करती थी, अब बच्चों ही के लालन-पालन में व्यस्त रहने लगी। जब घर आते, बच्चों को उसके पास बैठे पाते। कभी देखते कि उन्हें ला रही है, कभी कपड़े पहना रही है, कभी कोई खेल, खेला रही है और कभी कोई कहानी कह रही है। निर्मला का तृषित हृदय प्रणय की ओर से निराश होकर इस अवलम्ब ही को गनीमत समझने लगा, बच्चों के साथ हंसने-बोलने में उसकी मातृ-कल्पना तृप्त होती थीं। पति के साथ हंसने-बोलने में उसे जो संकोच, जो अरुचि तथा जो अनिच्छा होती थी, यहां तक कि वह उठकर भाग जाना चाहती, उसके बदले बालकों के सच्चे, सरल स्नेह से चित्त प्रसन्न हो जाता था। पहले मंसाराम उसके पास आते हुए झिझकता था, लेकिन मानसिक विकास में पांच साल छोटा। हॉकी और फुटबाल ही उसका संसार, उसकी कल्पनाओं का मुक्त-क्षेत्र तथा उसकी कामनाओं का हरा-भरा बाग था। इकहरे बदन का छरहरा, सुन्दर, हंसमुख, लज्जशील बालक था, जिसका घर से केवल भोजन का नाता था, बाकी सारे दिन न जाने कहां घूमा करता। निर्मला उसके मुंह से खेल की बातें सुनकर थोड़ी देर के लिए अपनी चिन्ताओं को भूल जाती और चाहती थी एक बार फिर वही दिन आ जाते, जब वह गुड़िया खेलती और उसके ब्याह रचाया करती थी और जिसे अभी थोड़े आह, बहुत ही थोड़े दिन गुजरे थे।
मुंशी तोताराम अन्य एकान्त-सेवी मनुष्यों की भांति विषयी जीव थे। कुछ दिनों तो वह निर्मला को सैर-तमाशे दिखाते रहे, लेकिन जब देखा कि इसका कुछ फल नहीं होता, तो फिर एकान्त-सेवन करने लगे। दिन-भर के कठिन मासिक परिश्रम के बाद उनका चित्त आमोद-प्रमोद के लिए लालयित हो जाता, लेकिन जब अपनी विनोद-वाटिका में प्रवेश करते और उसके फूलों को मुरझाया, पौधों को सूखा और क्यारियों से धूल उड़ती हुई देखते, तो उनका जी चाहता-क्यों न इस वाटिका को उजाड़ दूं? निर्मला उनसे क्यों विरक्त रहती है, इसका रहस्य उनकी समझ में न आता था। दम्पति शास्त्र के सारे मन्त्रों की परीक्षा कर चुके, पर मनोरथ पूरा न हुआ। अब क्या करना चाहिये, यह उनकी समझ में न आता था।
एक दिन वह इसी चिंता में बैठे हुए थे कि उनके सहपाठी मित्र नयनसुखराम आकर बैठ गये और सलाम-वलाम के बाद मुस्कराकर बोले-आजकल तो खूब गहरी छनती होगी। नयी बीवी का आलिंगन करके जवानी का मजा आ जाता होगा? बड़े भाग्यवान हो! भई रूठी हुई जवानी को मनाने का इससे अच्छा कोई उपाय नहीं कि नया विवाह हो जाएे। यहां तो जिन्दगी बवाल हो रही है। पत्नी जी इस बुरी तरह चिमटी हैं कि किसी तरह पिण्ड ही नहीं छोड़ती। मैं तो दूसरी शादी की फिक्र में हूं। कहीं डौल हो, तो ठीक-ठाक कर दो। दस्तूरी में एक दिन तुम्हें उसके हाथ के बने हुए पान खिला देंगे।
तोताराम ने गम्भीर भाव से कहा-कहीं ऐसी हिमाकत न कर बैठना, नहीं तो पछताओगे। लौंडियां तो लौंडों से ही खुश रहती हैं। हम तुम अब उस काम के नहीं रहे। सच कहता हूं मैं तो शादी करके पछता रहा हूं, बुरी बला गले पड़ी! सोचा था, दो-चार साल और जिन्दगी का मजा उठा लूं, पर उलटी आंतें गले पड़ीं।
नयनसुख-तुम क्या बातें करते हो। लौडियों को पंजों में लाना क्या मुश्किल बात है, जरा सैर-तमाशे दिखा दो, उनके रूप-रंग की तारीफ कर दो, बस, रंग जम गया।
तोता-यह सब कुछ कर-धरके हार गया।
नयन-अच्छा, कुछ इत्र-तेल, फूल-पत्ते, चाट-वाट का भी मजा चखाया?
तोता-अजी, यह सब कर चुका। दम्पत्ति-शास्त्र के सारे मन्त्रों का इम्तहान ले चुका, सब कोरी गप्पे हैं।
नयन-अच्छा, तो अब मेरी एक सलाह मानो, जरा अपनी सूरत बनवा लो। आजकल यहां एक बिजली के डॉक्टर आये हुए हैं, जो बुढ़ापे के सारे निशान मिटा देते हैं। क्या मजाल कि चेहरे पर एक झुर्रीया या सिर का बाल पका रह जाएे। न जाने क्या जादू कर देते हैं कि आदमी का चोला ही बदल जाता है।
तोता-फीस क्या लेते हैं?
नयन-फीस तो सुना है, शायद पांच सौ रूपये!
तोता-अजी, कोई पाखण्डी होगा, बेवकूफों को लूट रहा होगा। कोई रोगन लगाकर दो-चार दिन के लिए जरा चेहरा चिकना कर देता होगा। इश्तहारी डॉक्टरों पर तो अपना विश्वास ही नहीं। दस-पांच की बात होती, तो कहता, जरा दिल्लगी ही सही। पांच सौ रूपये बड़ी रकम है।
नयन-तुम्हारे लिए पांच सौ रूपये कौन बड़ी बात है। एक महीने की आमदनी है। मेरे पास तो भाई पांच सौ रूपये होते, तो सबसे पहला काम यही करता। जवानी के एक घण्टे की कीमत पांच सौ रूपये से कहीं ज्यादा है।
तोता-अजी, कोई सस्ता नुस्खा बताओ, कोई फकीरी जुड़ी-बूटी जो कि बिना हर्र-फिटकरी के रंग चीखा हो जाएे। बिजली और रेडियम बड़े आदमियों के लिए रहने दो। उन्हीं को मुबारक हो।
नयन-तो फिर रंगीलेपन का स्वांग रचो। यह ढीला-ढाला कोट फेंकों, तंजेब की चुस्त अचकन हो, चुन्नटदार पाजामा, गले में सोने की जंजीर पड़ी हुई, सिर पर जयपुरी साफा बांधा हुआ, आंखों में सुरमा और बालों में हिना का तेल पड़ा हुआ। तोंद का पिचकना भी जरूरी है। दोहरा कमरबन्द बांधे। जरा तकलीफ तो होगी, पार अचकन सज उठेगी। खिजाब मैं ला दूंगा। सौ-पचास गजलें याद कर लो और मौके-मौके से शेर पढ़ी। बातों में रस भरा हो। ऐसा मालूम हो कि तुम्हें दीन और दुनिया की कोई फिक्र नहीं है, बस, जो कुछ है, प्रियतमा ही है। जवांमर्दी और साहस के काम करने का मौका ढूंढते रहो। रात को झूठ-मूठ शोर करो-चोर-चोर और तलवार लेकर अकेले पिल पड़ो। हां, जरा मौका देख लेना, ऐसा न हो कि सचमुच कोई चोर आ जाएे और तुम उसके पीछे दौड़ो, नहीं तो सारी कलई खुल जाएेगी और मुफ्त के उल्लू बनोगे। उस वक्त तो जवांमर्दी इसी में है कि दम साधे खड़े रहो, जिससे वह समझे कि तुम्हें खबर ही नहीं हुई, लेकिन ज्योंही चोर भाग खड़ा हो, तुम भी उछलकर बाहर निकलो और तलवार लेकर ‘कहां? कहां?’ कहते दौड़ो। ज्यादा नहीं, एक महीना मेरी बातों का इम्तहान करके देखें। अगर वह तुम्हारी दम न भरने लगे, तो जो जुर्माना कहो, वह दूं।
तोताराम ने उस वक्त तो यह बातें हंसी में उड़ा दीं, जैसा कि एक व्यवहार कुशल मनुष्य को करना चहिए था, लेकिन इसमें की कुछ बातें उसके मन में बैठ गयी। उनका असर पड़ने में कोई संदेह न था। धीरे-धीरे रंग बदलने लगे, जिसमें लोग खटक न जाएें। पहले बालों से शुरू किया, फिर सुरमे की बारी आयी, यहां तक कि एक-दो महीने में उनका कलेवर ही बदल गया। गजलें याद करने का प्रस्ताव तो हास्यास्पद था, लेकिन वीरता की डींग मारने में कोई हानि न थी।
उस दिन से वह रोज अपनी जवांमर्दी का कोई-न-कोई प्रसंग अवश्य छेड़ देते। निर्मला को सन्देह होने लगा कि कहीं इन्हें उन्माद का रोग तो नहीं हो रहा है। जो आदमी मूंग की दाल और मोटे आटे के दो फुलके खाकर भी नमक सुलेमानी का मुहताज हो, उसके छैलेपन पर उन्माद का सन्देह हो, तो आश्चर्य ही क्या? निर्मला पर इस पागलपन का और क्या रंग जमता? हों उसे उन पार दया आजे लगी। क्रोध और घृणा का भाव जाता रहा। क्रोध और घृणा उन पर होती है, जो अपने होश में हो, पागल आदमी तो दया ही का पात्र है। वह बात-बात में उनकी चुटकियां लेती, उनका मजाक उड़ाती, जैसे लोग पागलों के साथ किया करते हैं। हां, इसका ध्यान रखती थी कि वह समझ न जाएें। वह सोचती, बेचारा अपने पाप का प्रायश्चित कर रहा है। यह सारा स्वांग केवल इसलिए तो है कि मैं अपना दु:ख भूल जाऊं। आखिर अब भाग्य तो बदल सकता नहीं, इस बेचारे को क्यों जलाऊं?
एक दिन रात को नौ बजे तोताराम बांके बने हुए सैर करके लौटे और निर्मला से बोले-आज तीन चोरों से सामना हो गया। जरा शिवपुर की तरफ चला गया था। अंधेरा था ही। ज्योंही रेल की सड़क के पास पहुंचा, तो तीन आदमी तलवार लिए हुए न जाने किधर से निकल पड़े। यकीन मानो, तीनों काले देव थे। मैं बिल्कुल अकेला, पास में सिर्फ यह छड़ी थी। उधर तीनों तलवार बांधे हुए, होश उड़ गये। समझ गया कि जिन्दगी का यहीं तक साथ था, मगर मैंने भी सोचा, मरता ही हूं, तो वीरों की मौत क्यों न मरुं। इतने में एक आदमी ने ललकार कर कहा-रख दे तेरे पास जो कुछ हो और चुपके से चला जा।
मैं छड़ी संभालकर खड़ा हो गया और बोला-मेरे पास तो सिर्फ यह छड़ी है और इसका मूल्य एक आदमी का सिर है।
मेरे मुंह से इतना निकलना था कि तीनों तलवार खींचकर मुझ पर झपट पड़े और मैं उनके वारों को छड़ी पर रोकने लगा। तीनों झल्ला-झल्लाकर वार करते थे, खटाके की आवाज होती थी और मैं बिजली की तरह झपटकर उनके तारों को काट देता था। कोई दस मिनट तक तीनों ने खूब तलवार के जौहर दिखाये, पर मुझ पर रेफ तक न आयी। मजबूरी यही थी कि मेरे हाथ में तलवार न थी। यदि कहीं तलवार होती, तो एक को जीता न छोड़ता। खैर, कहां तक बयान करुं। उस वक्त मेरे हाथों की सफाई देखने काबिल थी। मुझे खुद आश्चर्य हो रहा था कि यह चपलता मुझमें कहां से आ गयी। जब तीनों ने देखा कि यहां दाल नहीं गलने की, तो तलवार म्यान में रख ली और पीठ ठोककर बोले-जवान, तुम-सा वीर आज तक नहीं देखा। हम तीनों तीन सौ पर भारी गांव-के-गांव ढोल बजाकर लूटते हैं, पर आज तुमने हमें नीचा दिखा दिया। हम तुम्हारा लोहा मान गए। यह कहकर तीनों फिर नजरों से गायब हो गए।
निर्मला ने गम्भीर भाव से मुस्कराकर कहा-इस छड़ी पर तो तलवार के बहुत से निशान बने हुए होंगे?
मुंशीजी इस शंका के लिए तैयार न थे, पर कोई जवाब देना आवश्यक था, बोले-मैं वारों को बराबर खाली कर देता। दो-चार चोटें छड़ी पर पड़ीं भी, तो उचटती हुई, जिनसे कोई निशान नहीं पड़ सकता था।
अभी उनके मुंह से पूरी बात भी न निकली थी कि सहसा रुक्मिणी देवी बदहवास दौड़ती हुई आयीं और हांफते हुए बोलीं-तोता है कि नहीं? मेरे कमरे में सांप निकल आया है। मेरी चारपाई के नीचे बैठा हुआ है। मैं उठकर भागी। मुआ कोई दो गज का होगा। फन निकाले फुफकार रहा है, जरा चलो तो। डंडा लेते चलना।
तोताराम के चेहरे का रंग उड़ गया, मुंह पर हवाइयां छुटने लगीं, मगर मन के भावों को छिपाकर बोले-सांप यहां कहां? तुम्हें धोखा हुआ होगा। कोई रस्सी होगी।
रुक्मिणी-अरे, मैंने अपनी आंखों देखा है। जरा चलकर देख लो न। हैं, हैं। मर्द होकर डरते हो?
मुंशीजी घर से तो निकले, लेकिन बरामदे में फिर ठिठक गये। उनके पांव ही न उठते थे कलेजा धड़-धड़ कर रहा था। सांप बड़ा क्रोधी जानवर है। कहीं काट ले तो मुफ्त में प्राण से हाथ धोना पड़े। बोले-डरता नहीं हूं। सांप ही तो है, शेर तो नहीं, मगर सांप पर लाठी नहीं असर करती, जाकर किसी को भेजूं, किसी के घर से भाला लाये।
यह कहकर मुंशीजी लपके हुए बाहर चले गये। मंसाराम बैठा खाना खा रहा था। मुंशीजी तो बाहर चले गये, इधर वह खाना छोड़, अपनी हॉकी का डंडा हाथ में ले, कमरे में घुस ही तो पड़ा और तुरंत चारपाई खींच ली। सांप मस्त था, भागने के बदले फन निकालकर खड़ा हो गया। मंसाराम ने चटपट चारपाई की चादर उठाकर सांप के ऊपर फेंक दी और ताबड़तोड़ तीन-चार डंडे कसकर जमाये। सांप चादर के अंदर तड़प कर रह गया। तब उसे डंडे पर उठाये हुए बाहर चला। मुंशीजी कई आदमियों को साथ लिये चले आ रहे थे। मंसाराम को सांप लटकाये आते देखा, तो सहसा उनके मुंह से चीख निकल पड़ी, मगर फिर संभल गये और बोले-मैं तो आ ही रहा था, तुमने क्यों जल्दी की? दे दो, कोई फेंक आए।
यह कहकर बहादुरी के साथ रुक्मिणी के कमरे के द्वार पर जाकर खड़े हो गये और कमरे को खूब देखभाल कर मूंछों पर ताव देते हुए निर्मला के पास जाकर बोले-मैं जब तक आऊं-जाऊं, मंसाराम ने मार डाला। बेसमझ् लड़का डंडा लेकर दौड़ पड़ा। सांप हमेशा भाले से मारना चाहिए। यही तो लड़कों में ऐब है। मैंने ऐसे-ऐसे कितने सांप मारे हैं। सांप को खिला-खिलाकर मारता हूं। कितनों ही को मुट्ठी से पकड़कर मसल दिया है।
रुक्मिणी ने कहा-जाओ भी, देख ली तुम्हारी मर्दानगी।
मुंशीजी झेंपकर बोले-अच्छा जाओ, मैं डरपोक ही सही, तुमसे कुछ इनाम तो नहीं मांग रहा हूं। जाकर महाराज से कहा, खाना निकाले।
मुंशीजी तो भोजन करने गये और निर्मला द्वार की चौखट पर खड़ी सोच रही थी-भगवान्। क्या इन्हें सचमुच कोई भीषण रोग हो रहा है? क्या मेरी दशा को और भी दारुण बनाना चाहते हो? मैं इनकी सेवा कर सकती हूं, सम्मान कर सकी हूं, अपना जीवन इनके चरणों पर अर्पण कर सकती हूं, लेकिन वह नहीं कर सकती, जो मेरे किये नहीं हो सकता। अवस्था का भेद मिटाना मेरे वश की बात नहीं । आखिर यह मुझसे क्या चाहते हैं-समझ् गयी। आह यह बात पहले ही नहीं समझी थी, नहीं तो इनको क्यों इतनी तपस्या करनी पड़ती क्यों इतने स्वांग भरने पड़ते।

निर्मला प्रेमचंद उपन्यास / Nirmala Premchand Novel / अध्याय-2

निर्मला प्रेमचंद उपन्यास / Nirmala Premchand Novel / अध्याय-2

निर्मला प्रेमचंद उपन्यास / Nirmala Premchand Novel / अध्याय-2
विवाह का विलाप और अनाथों का रोना सुनाकर हम पाठकों का दिल न दुखायेंगे। जिसके ऊपर पड़ती है, वह रोता है, विलाप करता है, पछाड़ें खाता है। यह कोई नयी बात नहीं। हां, अगर आप चाहें तो कल्याणी की उस घोर मानसिक यातना का अनुमान कर सकते हैं, जो उसे इस विचार से हो रही थी कि मैं ही अपने प्राणाधार की घातिका हूं। वे वाक्य जो क्रोध के आवेश में उसके असंयत मुख से निकले थे, अब उसके हृदय को वाणों की भांति छेद रहे थे। अगर पति ने उसकी गोद में कराह-कराहकर प्राण-त्याग दिए होते, तो उसे संतोष होता कि मैंने उनके प्रति अपने कर्तव्य का पालन किया। शोकाकुल हृदय को इससे ज्यादा सान्त्वना और किसी बात से नहीं होती। उसे इस विचार से कितना संतोष होता कि मेरे स्वामी मुझसे प्रसन्न गये, अन्तिम समय तक उनके हृदय में मेरा प्रेम बना रहा। कल्याणी को यह सन्तोष न था। वह सोचती थी-हा! मेरी पचीस बरस की तपस्या निष्फल हो गई। मैं अन्त समय अपने प्राणपति के प्रेम के वंचित हो गयी। अगर मैंने उन्हें ऐसे कठोर शब्द न कहे होते, तो वह कदापि रात को घर से न जाते।न जाने उनके मन में क्या-क्या विचार आये हों? उनके मनोभावों की कल्पना करके और अपने अपराध को बढ़ा-बढ़ाकर वह आठों पहर कुढ़ती रहती थी। जिन बच्चों पर वह प्राण देती थी, अब उनकी सूरत से चिढ़ती। इन्हीं के कारण मुझे अपने स्वामी से रार मोल लेनी पड़ी। यही मेरे शत्रु हैं। जहां आठों पहर कचहरी-सी लगी रहती थी, वहां अब खाक उड़ती है। वह मेला ही उठ गया। जब खिलानेवाला ही न रहा, तो खानेवाले कैसे पड़े रहते। धीरे-धीरे एक महीने के अन्दर सभी भांजे-भतीजे बिदा हो गये। जिनका दावा था कि हम पानी की जगह खून बहानेवालों में हैं, वे ऐसा सरपट भागे कि पीछे फिरकर भी न देखा। दुनिया ही दूसरी हो गयी। जिन बच्चों को देखकर प्यार करने को जी चाहता था उनके चेहरे पर अब मक्खियां भिनभिनाती थीं। न जाने वह कांति कहां चली गई?
शोक का आवेग कम हुआ, तो निर्मला के विवाह की समस्या उपस्थित हुई। कुछ लोगों की सलाह हुई कि विवाह इस साल रोक दिया जाएे, लेकिन कल्याणी ने कहा- इतनी तैयरियों के बाद विवाह को रोक देने से सब किया-धरा मिट्टी में मिल जाएेगा और दूसरे साल फिर यही तैयारियां करनी पड़ेंगी, जिसकी कोई आशा नहीं। विवाह कर ही देना अच्छा है। कुछ लेना-देना तो है ही नहीं। बारातियों के सेवा-सत्कार का काफी सामान हो चुका है, विलम्ब करने में हानि-ही-हानि है। अतएव महाशय भालचन्द्र को शक-सूचना के साथ यह सन्देश भी भेज दिया गया। कल्याणी ने अपने पत्र में लिखा-इस अनाथिनी पर दया कीजिए और डूबती हुई नाव को पार लगाइये। स्वामीजी के मन में बड़ी-बड़ी कामनाएं थीं, किंतु ईश्वर को कुछ और ही मंजूर था। अब मेरी लाज आपके हाथ है। कन्या आपकी हो चुकी। मैं लोगों के सेवा-सत्कार करने को अपना सौभाग्य समझती हूं, लेकिन यदि इसमें कुछ कमी हो, कुछ त्रुटि पड़े, तो मेरी दशा का विचार करके क्षमा कीजियेगा। मुझे विश्वास है कि आप इस अनाथिनी की निन्दा न होने देंगे, आदि। 
कल्याणी ने यह पत्र डाक से न भेजा, बल्कि पुरोहित से कहा-आपको कष्ट तो होगा, पर आप स्वयं जाकर यह पत्र दीजिए और मेरी ओर से बहुत विनय के साथ कहियेगा कि जितने कम आदमी आयें, उतना ही अच्छा। यहां कोई प्रबन्ध करनेवाला नहीं है।
पुरोहित मोटेराम यह सन्देश लेकर तीसरे दिन लखनऊ जा पहुँचे।
संध्या का समय था। बाबू भालचन्द्र दीवानखाने के सामने आरामकुर्सी पर नंग-धड़ंग लेटे हुए हुक्का पी रहे थे। बहुत ही स्थूल, ऊंचे कद के आदमी थे। ऐसा मालूम होता था कि काला देव है या कोई हब्शी अफ्रीका से पकड़कर आया है। सिर से पैर तक एक ही रंग था-काला। चेहरा इतना स्याह था कि मालूम न होता था कि माथे का अंत कहां है सिर का आरम्भ कहां। बस, कोयले की एक सजीव मूर्ति थी। आपको गर्मी बहुत सताती थी। दो आदमी खड़े पंखा झल रहे थे, उस पर भी पसीने का तार बंधा हुआ था। आप आबकारी के विभाग में एक ऊंचे ओहदे पर थे। पांच सौ रूपये वेतन मिलता था। ठेकेदारों से खूब रिश्वत लेते थे। ठेकेदार शराब के नाम पानी बेचें, चौबीसों घंटे दुकान खुली रखें, आपको केवल खुश रखना काफी था। सारा कानून आपकी खुशी थी। इतनी भयंकर मूर्ति थी कि चांदनी रात में लोग उन्हें देख कर सहसा चौंक पड़ते थे-बालक और स्त्रियां ही नहीं, पुरूष तक सहम जाते थे। चांदनी रात इसलिए कहा गया कि अंधेरी रात में तो उन्हें कोई देख ही न सकता था-श्यामलता अन्धकार में विलीन हो जाती थी। केवल आंखों का रंग लाल था। जैसे पक्का मुसलमान पांच बार नमाज पढ़ता है, वैसे ही आप भी पांच बार शराब पीते थे, मुफ्त की शराब तो काजी को हलाल है, फिर आप तो शराब के अफसर ही थे, जितनी चाहें पियें, कोई हाथ पकड़ने वाला न था। जब प्यास लगती शराब पी लेते । जैसे कुछ रंगों में परस्पर सहानुभूति है, उसी तरह कुछ रंगों में परस्पर विरोध है। लालिमा के संयोग से कालिमा और भी भयंकर हो जाती है।
बाबू साहब ने पंडितजी को देखते ही कुर्सी से उठकर कहा-अख्खाह! आप हैं? आइए-आइए। धन्य भाग! अरे कोई है। कहां चले गये सब-के-सब, झगडू, गुरदीन, छकौड़ी, भवानी, रामगुलाम कोई है? क्या सब-के-सब मर गये! चलो रामगुलाम, भवानी, छकौड़ी, गुरदीन, झगड़ू। कोई नहीं बोलता, सब मर गये! दर्जन-भर आदमी हैं, पर मौके पर एक की भी सूरत नहीं नजर आती, न जाने सब कहां गायब हो जाते हैं। आपके वास्ते कुर्सी लाओ।
बाबू साहब ने ये पांचों नाम कई बार दुहराये, लेकिन यह न हुआ कि पंखा झलनेवाले दोनों आदमियों में से किसी को कुर्सी लाने को भेज देते। तीन-चार मिनट के बाद एक काना आदमी खांसता हुआ आकर बोला-सरकार, ईतना की नौकरी हमार कीन न होई ! कहां तक उधार-बाढ़ी लै-लै खाई मांगत-मांगत थेथर होय गयेना।
भाल- बको मत, जाकर कुर्सी लाओ। जब कोई काम करने की कहा गया, तो रोने लगता है। कहिए पडितजी, वहां सब कुशल है? 
मोटेराम-क्या कुशल कहूं बाबूजी, अब कुशल कहां? सारा घर मिट्टी में मिल गया।
इतने में कहार ने एक टूटा हुआ चीड़ का सन्दूक लाकर रख दिया और बोला-कर्सी-मेज हमारे उठाये नाहीं उठत है।
पंडितजी शर्माते हुए डरते-डरते उस पर बैठे कि कहीं टूट न जाएे और कल्याणी का पत्र बाबू साहब के हाथ में रख दिया।
भाल-अब और कैसे मिट्टी में मिलेगा? इससे बड़ी और कौन विपत्ति पड़ेगी? बाबू उदयभानु लाल से मेरी पुरानी दोस्ती थी। आदमी नहीं, हीरा था! क्या दिल था, क्या हिम्मत थी, (आंखें पोंछकर) मेरा तो जैसे दाहिना हाथ ही कट गया। विश्वास मानिए, जबसे यह खबर सुनी है, आंखों में अंधेरा-सा छा गया है। खाने बैठता हूं, तो कौर मुंह में नहीं जाता। उनकी सूरत आंखों के सामने खड़ी रहती है। मुंह जूठा करके उठ जाता हूं। किसी काम में दिल नहीं लगता। भाई के मरने का रंज भी इससे कम ही होता है। आदमी नहीं, हीरा था! 
मोटे- सरकार, नगर में अब ऐसा कोई रईस नहीं रहा।
भाल- मैं खूब जानता हूं, पंडितजी, आप मुझसे क्या कहते हैं। ऐसा आदमी लाख-दो-लाख में एक होता है। जितना मैं उनको जानता था, उतना दूसरा नहीं जान सकता। दो-ही-तीन बार की मुलाकात में उनका भक्त हो गया और मरने दम तक रहूंगा। आप समधिन साहब से कह दीजिएगा, मुझे दिली रंज है। 
मोटे-आपसे ऐसी ही आशा थी! आज-जैसे सज्जनों के दर्शन दुर्लभ हैं। नहीं तो आज कौन बिना दहेज के पुत्र का विवाह करता है।
भाल-महाराज, देहज की बातचीत ऐसे सत्यवादी पुरूषों से नहीं की जाती। उनसे सम्बन्ध हो जाना ही लाख रूपये के बराबर है। मैं इसी को अपना अहोभाग्य समझता हूं। हा! कितनी उदार आमत्मा थी। रूपये को तो उन्होंने कुछ समझा ही नहीं, तिनके के बराबर भी परवाह नहीं की। बुरा रिवाज है, बेहद बुरा! मेरा बस चले, तो दहेज लेनेवालों और दहेज देनेवालों दोनों ही को गोली मार दूं, हां साहब, साफ गोली मार दूं, फिर चाहे फांसी ही क्यों न हो जाए! पूछो, आप लड़के का विवाह करते हैं कि उसे बेचते हैं? अगर आपको लड़के के शादी में दिल खोलकर खर्च करने का अरमान है, तो शौक के खर्च कीजिए, लेकिन जो कुछ कीजिए, अपने बल पर। यह क्या कि कन्या के पिता का गला रेतिए। नीचता है, घोर नीचता! मेरा बस चले, तो इन पाजियों को गोली मार दूं।
मोटे- धन्य हो सरकार! भगवान् ने आपको बड़ी बुद्धि दी है। यह धर्म का प्रताप है। मालकिन की इच्छा है कि विवाह का मुहूर्त वही रहे और तो उन्होंने सारी बातें पत्र में लिख दी हैं। बस, अब आप ही उबारें तो हम उबर सकते हैं। इस तरह तो बारात में जितने सज्जन आयेंगे, उनकी सेवा-सत्कार हम करेंगे ही, लेकिन परिस्थिति अब बहुत बदल गयी है सरकार, कोई करने-धरनेवाला नहीं है। बस ऐसी बात कीजिए कि वकील साहब के नाम पर बट्टा न लगे।
भालचन्द्र एक मिनट तक आंखें बन्द किये बैठे रहे, फिर एक लम्बी सांस खींच कर बोले-ईश्वर को मंजूर ही न था कि वह लक्ष्मी मेरे घर आती, नहीं तो क्या यह वज्र गिरता? सारे मनसूबे खाक में मिल गये। फूला न समाता था कि वह शुभ-अवसर निकट आ रहा है, पर क्या जानता था कि ईश्वर के दरबार में कुछ और षड्यन्त्र रचा जा रहा है। मरनेवाले की याद ही रूलाने के लिए काफी है। उसे देखकर तो जख्म और भी हरा जो जाएेगा। उस दशा में न जाने क्या कर बैठूं। इसे गुण समझिए, चाहे दोष कि जिससे एक बार मेरी घनिष्ठता हो गयी, फिर उसकी याद चित्त से नहीं उतरती। अभी तो खैर इतना ही है कि उनकी सूरत आंखों के सामने नाचती रहती है, लेकिन यदि वह कन्या घर में आ गयी, तब मेरा जिन्दा रहना कठिन हो जाएेगा। सच मानिए, रोते-रोते मेरी आंखें फूट जाएेंगी। जानता हूं, रोना-धोना व्यर्थ है। जो मर गया वह लौटकर नहीं आ सकता। सब्र करने के सिवाय और कोई उपाय नहीं है, लेकिन दिल से मजबूर हूं। उस अनाथ बालिका को देखकर मेरा कलेजा फट जाएेगा।
मोटे- ऐसा न कहिए सरकार! वकील साहब नहीं तो क्या, आप तो हैं। अब आप ही उसके पिता-तुल्य हैं। वह अब वकील साहब की कन्या नहीं, आपकी कन्या है। आपके हृदय के भाव तो कोई जानता नहीं, लोग समझेंगे, वकील साहब का देहान्त हो जाने के कारण आप अपने वचन से फिर गये। इसमें आपकी बदनामी है। चित्त को समझाइए और हंस-खुशी कन्या का पाणिग्रहण करा लीजिए। हाथी मरे तो नौ लाख का। लाख विपत्ति पड़ी है, लेकिन मालकिन आप लोगों की सेवा-सत्कार करने में कोई बात न उठा रखेंगी।
बाबू साहब समझ गये कि पंडित मोटेराम कोरे पोथी के ही पंडित नहीं, वरन व्यवहार-नीति में भी चतुर हैं। बोले-पंडितजी, हलफ से कहता हूं, मुझे उस लड़की से जितना प्रेम है, उतना अपनी लड़की से भी नहीं है, लेकिन जब ईश्वर को मंजूर नहीं है, तो मेरा क्या बस है? वह मृत्यु एक प्रकार की अमंगल सूचना है, जो विधाता की ओर से हमें मिली है। यह किसी आनेवाली मुसीबत की आकाशवाणी है विधाता स्पष्ट रीति से कह रहा है कि यह विवाह मंगलमय न होगा। ऐसी दशा में आप ही सोचिये, यह संयोग कहां तक उचित है। आप तो विद्वान आदमी हैं। सोचिए, जिस काम का आरम्भ ही अमंगल से हो, उसका अंत अमंगलमय हो सकता है? नहीं, जानबूझकर मक्खी नहीं निगली जाती। समधिन साहब को समझाकर कह दीजिएगा, मैं उनकी आज्ञापालन करने को तैयार हूं, लेकिन इसका परिणाम अच्छा न होगा। स्वार्थ के वंश में होकर मैं अपने परम मित्र की सन्तान के साथ यह अन्याय नहीं कर सकता।
इस तर्क ने पडितजी को निरुत्तर कर दिया। वादी ने यह तीर छोड़ा था, जिसकी उनके पास कोई काट न थी। शत्रु ने उन्हीं के हथियार से उन पर वार किया था और वह उसका प्रतिकार न कर सकते थे। वह अभी कोई जवाब सोच ही रहे थे, कि बाबू साहब ने फिर नौकरों को पुकारना शुरू किया- अरे, तुम सब फिर गायब हो गये- झगडू, छकौड़ी, भवानी, गुरूदीन, रामगुलाम! एक भी नहीं बोलता, सब-के-सब मर गये। पंडितजी के वास्ते पानी-वानी की फिक्र है? ना जाने इन सबों को कोई कहां तक समझये। अक्ल छू तक नहीं गयी। देख रहे हैं कि एक महाशय दूर से थके-मांदे चले आ रहे हैं, पर किसी को जरा भी परवाह नहीं। लाओं, पानी-वानी रखो। पडितजी, आपके लिए शर्बत बनवाऊं या फलाहारी मिठाई मंगवा दूं।
मोटेरामजी मिठाइयों के विषय में किसी तरह का बन्धन न स्वीकार करते थे। उनका सिद्धान्त था कि घृत से सभी वस्तुएं पवित्र हो जाती हैं। रसगुल्ले और बेसन के लड्डू उन्हें बहुत प्रिय थे, पर शर्बत से उन्हें रुचि न थी। पानी से पेट भरना उनके नियम के विरूद्ध था। सकुचाते हुए बोले-शर्बत पीने की तो मुझे आदत नहीं, मिठाई खा लूंगा।
भाल- फलाहारी न?
मोटे- इसका मुझे कोई विचार नहीं।
भाल- है तो यही बात। छूत-छात सब ढकोसला है। मैं स्वयं नहीं मानता। अरे, अभी तक कोई नहीं आया? छकौड़ी, भवानी, गुरुदीन, रामगुलाम, कोई तो बोले!
अबकी भी वही बूढ़ा कहार खांसता हुआ आकर खड़ा हो गया और बोला-सरकार, मोर तलब दै दीन जाए। ऐसी नौकरी मोसे न होई। कहां लो दौरी दौरत-दौरत गोड़ पिराय लागत है।
भाल-काम कुछ करो या न करो, पर तलब पहिले चहिए! दिन भर पड़े-पड़े खांसा करो, तलब तो तुम्हारी चढ़ रही है। जाकर बाजार से एक आने की ताजी मिठाई ला। दौड़ता हुआ जा।
कहार को यह हुक्म देकर बाबू साहब घर में गये और स्त्री से बोले-वहां से एक पंडितजी आये हैं। यह खत लाये हैं, जरा पढ़ो तो। 
पत्नी जी का नाम रंगीलीबाई था। गोरे रंग की प्रसन्न-मुख महिला थीं। रूप और यौवन उनसे विदा हो रहे थे, पर किसी प्रेमी मित्र की भांति मचल-मचल कर तीस साल तक जिसके गले से लगे रहे, उसे छोड़ते न बनता था।
रंगीलीबाई बैठी पान लगा रही थीं। बोली-कह दिया न कि हमें वहां ब्याह करना मंजूर नहीं।
भाल-हां, कह तो दिया, पर मारे संकोच के मुंह से शब्द न निकलता था। झूठ-मूठ का होला करना पड़ता।
रंगीली-साफ बात करने में संकोच क्या? हमारी इच्छा है, न

निर्मला प्रेमचंद उपन्यास / Nirmala Premchand Novel / अध्याय-6

निर्मला प्रेमचंद उपन्यास / Nirmala Premchand Novel / अध्याय-6

निर्मला प्रेमचंद उपन्यास / Nirmala Premchand Novel / अध्याय-6
मुंशी तोताराम संध्या समय कचहरी से घर पहुँचे, तो निर्मला ने पूछा- उन्हें देखा, क्या हाल है? मुंशीजी ने देखा कि निर्मला के मुख पर नाममात्र को भी शोक याचिनता का चिन्ह नहीं है। उसका बनाव-सिंगार और दिनों से भी कुछ गाढ़ा हुआ है। मसलन वह गले का हार न पहनती थी, पर आजा वह भी गले मे शोभ दे रहा था। झूमर से भी उसे बहुत प्रेम था, वह आज वह भी महीन रेशमी साड़ी के नीचे, काले-काले केशों के ऊपर, फानुस के दीपक की भांति चमक रहा था।
मुंशीजी ने मुंह फेरकर कहा- बीमार है और क्या हाल बताऊं?
निर्मला- तुम तो उन्हें यहां लाने गये थे?
मुंशीजी ने झुंझलाकर कहा- वह नहीं आता, तो क्या मैं जबरदस्ती उठा लाता? कितना समझाया कि बेटा घर चलो, वहां तुम्हें कोई तकलीफ न होने पावेगी, लेकिन घर का नाम सुनकर उसे जैसे दूना ज्वर हो जाता था। कहने लगा- मैं यहां मर जाऊंगा, लेकिन घर न जाऊंगा। आखिर मजबूर होकर अस्पताल पहुंचा आया और क्या करता?
रुक्मिणी भी आकर बरामदे में खड़ी हो गई थी। बोलीं- वह जन्म का हठी है, यहां किसी तरह न आयेगा और यह भी देख लेना, वहां अच्छा भी न होगा?
मुंशीजी ने कातर स्वर में कहा- तुम दो-चार दिन के लिए वहां चली जाओ, तो बड़ा अच्छा हो बहन, तुम्हारे रहने से उसे तस्कीन होती रहेगी। मेरी बहन, मेरी यह विनय मान लो। अकेले वह रो-रोकर प्राण दे देगा। बस हाय अम्मां! हाय अम्मां! की रट लगाकर रोया करता है। मैं वहीं जा रहा हूं, मेरे साथ ही चलो। उसकी दशा अच्छी नहीं। बहन, वह सूरत ही नहीं रही। देखें ईश्वर क्या करते हैं?
यह कहते-कहते मुंशीजी की आंखों से आंसू बहने लगे, लेकिन रुक्मिणी अविचलित भाव से बोली- मैं जाने को तैयार हूं। मेरे वहां रहने से अगर मेरे लाल के प्राण बच जाएें, तो मैं सिर के बल दौड़ी जाऊं, लेकिन मेरा कहना गिरह में बांध लो भैया, वहां वह अच्छा न होगा। मैं उसे खूब पहचानती हूं। उसे कोई बीमारी नहीं है, केवल घर से निकाले जाने का शोक है। यही दु:ख ज्वर के रुप में प्रकट हुआ है। तुम एक नहीं, लाख दवा करो, सिविल सर्जन को ही क्यों न दिखाओ, उसे कोई दवा असार न करेगी।
मुंशीजी- बहन, उसे घर से निकाला किसने है? मैंने तो केवल उसकी पढ़ाई के खयाल से उसे वहां भेजा था।
रुक्मिणी- तुमने चाहे जिस खयाल से भेजा हो, लेकिन यह बात उसे लग गयी। मैं तो अब किसी गिनती में नहीं हूं, मुझे किसी बात में बोलने का कोई अधिकार नहीं। मालिक तुम, मालकिन तुम्हारी स्त्री। मैं तो केवल तुम्हारी रोटियों पर पड़ी हुई अभगिनी विधवा हूं। मेरी कौन सुनेगा और कौन परवाह करेगा? लेकिन बिना बोले रही नहीं जाता। मंसा तभी अच्छा होगा: जब घर आयेगा, जब तुम्हारा हृदय वही हो जाएेगा, जो पहले था।
यह कहकर रुक्मिणी वहां से चली गयीं, उनकी ज्योतिहीन, पर अनुभवपूर्ण आंखों के सामने जो चरित्र हो रहे थे, उनका रहस्य वह खूब समझती थीं और उनका सारा क्रोध निरपराधिनी निर्मला ही पर उतरता था। इस समय भी वह कहते-कहते रुग गयीं, कि जब तक यह लक्ष्मी इस घर में रहेंगी, इस घर की दशा बिगड़ती हो जाएेगी। उसको प्रगट रुप से न कहने पर भी उसका आशय मुंशीजी से छिपा नहीं रहा। उनके चले जाने पर मुंशीजी ने सिर झुका लिया और सोचने लगे। उन्हें अपने ऊपर इस समय इतना क्रोध आ रहा था कि दीवार से सिर पटककर प्राणों का अन्त कर दें। उन्होंने क्यों विवाह किया था? विवाह करेन की क्या जरुरत थी? ईश्वर ने उन्हें एक नहीं, तीन-तीन पुत्र दिये थे? उनकी अवस्था भी पचास के लगभग पहुंच गेयी थी फिर उन्होंने क्यों विवाह किया? क्या इसी बहाने ईश्वर को उनका सर्वनाश करना मंजूर था? उन्होंने सिर उठाकर एक बार निर्मला को सहास, पर निश्चल मूर्ति देखी और अस्पताल चले गये। निर्मला की सहास, छवि ने उनका चित्त शान्त कर दिया था। आज कई दिनों के बाद उन्हें शान्ति मयसर हुई थी। प्रेम-पीड़ित हृदय इस दशा में क्या इतना शान्त और अविचलित रह सकता है? नहीं, कभी नहीं। हृदय की चोट भाव-कौशल से नहीं छिपाई जा सकती। अपने चित्त की दुर्बनजा पर इस समय उन्हें अत्यन्त क्षोभ हुआ। उन्होंने अकारण ही सन्देह को हृदय में स्थान देकर इतना अनर्थ किया। मंसाराम की ओर से भी उनका मन नि:शंक हो गया। हां उसकी जगह अब एक नयी शंका उत्पन्न हो गयी। क्या मंसाराम भांप तो नहीं गया? क्या भांपकर ही तो घर आने से इन्कार नहीं कर रहा है? अगर वह भांप गया है, तो महान् अनर्थ हो जाएेगा। उसकी कल्पना ही से उनका मन दहल उठा। उनकी देह की सारी हड्डियां मानों इस हाहाकार पर पानी डालने के लिए व्याकुल हो उठीं। उन्होंने कोचवान से घोड़े को तेज चलाने को कहा। आज कई दिनों के बाद उनके हृदय मंडल पर छाया हुआ सघन फट गया था और प्रकाश की लहरें अन्दर से निकलने के लिए व्यग्र हो रही थीं। उन्होंने बाहर सिर निकाल कर देखा, कोचवान सो तो नहीं रहा ह। घोड़े की चाल उन्हें इतनी मन्द कभी न मालूम हुई थी।
अस्पताल पहुंचकर वह लपके हुए मंसाराम के पास गये। देखा तो डॉक्टर साहब उसके सामने चिन्ता में मग्न खड़े थे। मुंशीजी के हाथ-पांव फूल गये। मुंह से शब्द न निकल सका। भरभराई हुई आवाज में बड़ी मुश्किल से बोले- क्या हाल है, डॉक्टर साहब? यह कहते-कहते वह रो पड़े और जब डॉक्टर साहब को उनके प्रश्न का उत्तर देने में एक क्षण का विलम्बा हुआ, तब तो उनके प्राण नहों में समा गये। उन्होंने पलंग पर बैठकर अचेत बालक को गोद में उठा लिया और बालक की भांति सिसक-सिसककर रोने लगे। मंसाराम की देह तवे की तरह जल रही थी। मंसाराम ने एक बार आंखें खोलीं। आह, कितनी भयंकर और उसके साथ ही कितनी दी दृष्टि थी। मुंशीजी ने बालक को कण्ठ से लगाकर डॉक्टर से पूछा-क्या हाल है, साहब! आप चुप क्यों हैं?
डॉक्टर ने संदिग्ध स्वर से कहा- हाल जो कुछ है, वह आपे देख ही रहे हैं। 106 डिग्री का ज्वर है और मैं क्या बताऊं? अभी ज्वर का प्रकोप बढ़ता ही जाता है। मेरे किये जो कुद हो सकता है, कर रहा हूं। ईश्वर मालिक है। जबसे आप गये हैं, मैं एक मिनट के लिए भी यहां से नहीं हिला। भोजन तक नहीं कर सका। हालत इतनी नाजुक है कि एक मिनट में क्या हो जाएेगा, नहीं कहा जा सकता? यह महाज्वर है, बिलकुल होश नहीं है। रह-रहकर ‘डिलीरियम’ का दौरा-सा हो जाता है। क्या घर में इन्हें किसी ने कुछ कहा है! बार-बार, अम्मांजी, तुम कहां हो! यही आवाज मुंह से निकली है।
डॉक्टर साहब यह कह ही रहे थे कि सहसा मंसाराम उठकर बैठ गया और धक्के से मुंशीज को चारपाई के नीचे ढकेलकर उन्मत्त स्वर से बोला- क्यों धमकाते हैं, आप! मार डालिए, मार डालि, अभी मार डालिए। तलवार नहीं मिलती! रस्सी का फन्दा है या वह भी नहीं। मैं अपने गले में लगा लूंगा। हाय अम्मांजी, तुम कहां हो! यह कहते-कहते वह फिर अचेते होकर गिर पड़ा।
मुंशीजी एक क्षण तक मंसाराम की शिथिल मुद्रा की ओर व्यथित नेत्रों से ताकते रहे, फिर सहस उन्होंने डॉक्टर साहब का हाथ पकड़ लिया और अत्यन्त दीनतापूर्ण आग्रह से बोले-डॉक्टर साहब, इस लड़के को बचा लीजिए, ईश्वर के लिए बचा लीजिए, नहीं मेरा सर्वनाश हो जाएेगा। मैं अमीर नहीं हूं लेकिन आप जो कुछ कहेंगे, वह हाजिर करुंगा, इसे बचा लीजिए। आप बड़े-से-बड़े डॉक्टर को बुलाइए और उनकी राय लीजिएक , मैं सब खर्च दूंगा। इसीक अब नहीं देखी जाती। हाय, मेरा होनहार बेटा!
डॉक्टर साहब ने करुण स्वर में कहा- बाबू साहब, मैं आपसे सत्य कह रहा हूं कि मैं इनके लिए अपनी तरफ से कोई बात उठा नहीं रख रहा हूं। अब आप दूसरे डॉक्टरों से सलाह लेने को कहते हैं। अभी डॉक्टर लाहिरी, डॉक्टर भाटिया और डॉक्टर माथुर को बुलाता हूं। विनायक शास्त्री को भी बुलाये लेता हूं, लेकिन मैं आपको व्यर्थ का आश्वासन नहीं देना चाहता, हालत नाजुक है।
मंशीजी ने रोते हुए कहा- नहीं, डॉक्टर साहब, यह शब्द मुंह से न निकालिए। हाल इसके दुश्मनों की नाजुक हो। ईश्वर मुझ पर इतना कोप न करेंगे। आप कलकत्ता और बम्बई के डॉक्टरों को तारा दीजिए, मैं जिन्दगी भर आपकी गुलामी करुंगा। यही मेरे कुल का दीपक है। यही मेरे जीवन का आधार है। मेरा हृदय फटा जा रहा है। कोई ऐसी दवा दीजिए, जिससे इसे होश आ जाएे। मैं जरा अपने कानों से उसकी बाते सुनूं जानूं कि उसे क्या कष्ट हो रहा है? हाय, मेरा बच्चा!
डॉक्टर- आप जरा दिल को तस्कीन दीजिए। आप बुजुर्ग आदमी हैं, यों हाय-हाय करने और डॉक्टरों की फौज जमा करने से कोई नतीजा न निकलेगा। शान्त होकर बैठिए, मैं शहर के लोगों को बुला रहा हूं, देखिए क्या कहते हैं? आप तो खुद ही बदहवास हुए जाते हैं।
मुंशीजी- अच्छा, डॉक्टर साहब! मैं अब न बोलूंग, जबान तब तक न खोलूंगा, आप जो चाहे करें, बच्चा अब हाथ में है। आप ही उसकी रक्षा कर सकते हैं। मैं इतना ही चाहता हूं कि जरा इसे होश आ जाएे, मुझे पहचान ले, मेरी बातें समझने लगे। क्या कोई ऐसी संजीवनी बूटी नहीं? मैं इससे दो-चार बातें कर लेता।
यह कहते-कहते मुंशीजी आवेश में आकर मंसाराम से बोले- बेटा, जरा आंखें खोलो, कैसा जी है? मैं तुम्हारे पास बैठा रो रहा हूं, मुझे तुमसे कोई शिकायत नहीं है, मेरा दिल तुम्हारी ओर से साफ है।
डॉक्टर- फिर आपने अनर्गला बातें करनी शुरु कीं। अरे साहब, आप बच्चे नहीं हैं, बुजुर्ग है, जरा धैर्य से काम लीजिए।
मुंशीजी- अच्छा, डॉक्टर साहब, अब न बोलूंगा, खता हुई। आप जो चाहें कीजिए। मैंने सब कुछ आप पर छोड़ दिया। कोई ऐसा उपाय नहीं, जिससे मैं इसे इतना समझा सकूं कि मेरा दिल साफ है? आप ही कह दीजिए डॉक्टर साहब, कह दीजिए, तुम्हारा अभागा पिता बैठा रो रहा है। उसका दिल तुम्हारी तरफ से बिलकुल साफ है। उसे कुछ भ्रम हुआ था। वब अब दूर हो गया। बस, इतना ही कर दीजिए। मैं और कुछ नहीं चाहता। मैं चुपचाप बैठा हूं। जबान को नहीं खोलता, लेकिन आप इतना जरुर कह दीजिए।
डॉक्टर- ईश्वर के लिए बाबू साहब, जरा सब्र कीजिए, वरना मुझे मजबूर होकर आपसे कहना पड़ेगा कि घर जाइए। मैं जरा दफ्तर में जाकर डॉक्टरों को खत लिख रहा हूं। आप चुपचाप बैठे रहिएगा।
निर्दयी डॉक्टर! जवान बेटे की यहा दशा देखकर कौन पिता है, जो धैर्य से कामे लेगा? मुंशीजी बहुत गम्भीर स्वभाव के मनुष्य थे। यह भी जानते थे कि इस वक्त हाय-हाय मचाने से कोई नतीजा नहीं, लेकिन फिरी भी इस समय शान्त बैठना उनके लिए असम्भव था। अगर दैव-गति से यह बीमारी होती, तो वह शान्त हो सकते थे, दूसरों को समझा सकते थे, खुद डॉक्टरों का बुला सकते थे, लेकिन क्यायह जानकर भी धैर्य रख सकते थे कि यह सब आग मेरी ही लगाई हुई है? कोई पिता इतना वज्र-हृदय हो सकता है? उनका रोम-रोम इस समय उन्हें धिक्कार रहा था। उन्होंने सोचा, मुझे यह दुर्भावना उत्पन्न ही क्यों हुई? मैंने क्यां बिना किसी प्रत्यक्ष प्रमाण के ऐसी भीषण कल्पना कर डाली? अच्दा मुझे उसक दशा में क्या करना चाहिए था। जो कुछ उन्होंने किया उसके सिवा वह और क्या करते, इसका वह निश्चय न कर सके। वास्तव में विवाह के बन्धन में पड़ना ही अपने पैरों में कुल्हाड़ी माराना था। हां, यही सारे उपद्रव की जड़ है।
मगर मैंने यह कोई अनोखी बात नहीं की। सभी स्त्री-पुरुष का विवाह करते हैं। उनका जीवन आनन्द से कटता है। आनन्द की अच्दा से ही तो हम विवाह करते हैं। मुहल्ले में सैकड़ों आदमियों ने दूसरी, तीसरी, चौथी यहां तक कि सातवीं शदियां की हैं और मुझसे भी कहीं अधिक अवस्था में। वह जब तक जिये आराम ही से जिये। यह भी नहीं हआ कि सभी स्त्री से पहले मर गये हों। दुहाज-तिहाज होने पर भी कितने ही फिर रंडुए हो गये। अगर मेरी-जैसी दशा सबकी होती, तो विवाह का नाम ही कौन लेता? मेरे पिताजी ने पचपनवें वर्ष में विवाह किया था और मेरे जन्म के समय उनकी अवस्था साठ से कम न थी। हां, इतनी बात जरुर है कि तब और अब में कुछ अंतर हो गया है। पहले स्त्रीयां पढ़ी-लिखी न होती थीं। पति चाहे कैसा ही हो, उसे पूज्य समझती थी, यह बात हो कि पुरुष सब कुछ देखकर भी बेहयाई से काम लेता हो, अवश्य यही बात है। जब युवक वृद्धा के साथ प्रसन्न नहीं रह सकता, तो युवती क्यों किसी वृद्ध के साथ प्रसन्न रहने लगी? लेकिन मैं तो कुछ ऐसा बुड्ढ़ा न था। मुझे देखकर कोई चालीस से अधिक नहीं बता सकता। कुछ भी हो, जवानी ढल जाने पर जवान औरत से विवाह करके कुछ-न-कुछ बेहयाई जरुर करनी पड़ती है, इसमें सन्देह नहीं। स्त्री स्वभाव से लज्जाशील होती है। कुलटाओं की बात तो दूसरी है, पर साधारणत: स्त्री पुरुष से कहीं ज्यादा संयमशील होती है। जोड़ का पति पाकर वह चाहे पर-पुरुष से हंसी-दिल्लगी कर ले, पर उसका मन शुद्ध रहता है। बेजोड़े विवाह हो जाने से वह चाहे किसी की ओर आंखे उठाकर न देखे, पर उसका चित्त दुखी रहता है। वह पक्की दीवार है, उसमें सबरी का असर नहीं होता, यह कच्ची दीवार है और उसी वक्त तक खड़ी रहती है, जब तक इस पर सबरी न चलाई जाएे।
इन्हीं विचारां में पड़े-पड़े मुंशीजी का एक झपकी आ गयी। मने के भावों ने तत्काल स्वप्न का रुप धारण कर लिया। क्या देखते हैं कि उनकी पहली स्त्री मंसाराम के सामने खड़ी कह रही है- ‘स्वामी, यह तुमने क्या किया? जिस बालक को मैंने अपना रक्त पिला-पिलाकर पाला, उसको तुमने इतनी निर्दयता से मार डाला। ऐसे आदर्श चरित्र बालक पर तुमने इतना घोर कलंक लगा दिया? अब बैठे क्या बिसूरते हो। तुमने उससे हाथ धो लिया। मैं तुम्हारे निर्दया हाथों से छीनकर उसे अपने साथ लिए जाती हूं। तुम तो इतनो शक्की कभी न थे। क्या विवाह करते ही शक को भी गले बांध लाये? इस कोमल हृदय पर इतना कठारे आघात! इतना भीषण कलंक! इतन बड़ा अपमान सहकर जीनेवाले कोई बेहया होंगे। मेरा बेटा नहीं सह सकता!’ यह कहते-कहते उसने बालक को गोद में उठा लिया और चली। मुंशीजी ने रोते हुए उसकी गोद से मंसाराम को छीनने के लिए हाथ बढ़ाया, तो आंखे खुल गयीं और डॉक्टर लाहिरी, डॉक्टर लाहिरी, डॉक्टर भाटिया आदि आधे दर्जन डॉक्टर उनको सामने खड़े दिखायी दिये।
तीन दिन गुजर गये और मुंशीजी घर न आये। रुक्मिणी दोनों वक्त अस्पताल जातीं और मंसाराम को देख आती थीं। दोनों लड़के भी जाते थे, पर निर्मला कैसे जाती? उनके पैरों में तो बेड़ियां पड़ी हुई थीं। वह मंसाराम की बीमारी का हाल-चाल जानने क लिए व्यग्र रहती थी, यदि रुक्मिणी से कुछ पूछती थीं, तो ताने मिलते थे और लड़को से पूछती तो बेसिर-पैर की बातें करने लगते थे। एक बार खुद जाकर देखने के लिए उसका चित्त व्याकुल हो रहा था। उसे यह भय होता था कि सन्देह ने कहीं मुंशीजी के पुत्र-प्रेम को शिथिल न कर दिया हो, कहीं उनकी कृपणता ही तो मंसाराम क अच्छे होने में बाधक नहीं हो रही है? डॉक्टर किसी के सगे नहीं होते, उन्हें तो अपने पैसों से काम है, मुर्दा दोजख में जाएे या बहिश्त में। उसक मन मे प्रबल इच्छा होती थी कि जाकर अस्पताल क डॉक्टरों का एक हजार की थैली देकर कहे- इन्हें बचा लीजिए, यह थैली आपकी भेंट हैं, पर उसके पास न तो इतने रुपये ही थे, न इतने साहस ही था। अब भी यदि वहां पहुंच सकती, तो मंसाराम अच्छा हो जाता। उसकी जैसी सेवा-शुश्रूषा होनी चाहिए, वैसी नहीं हो रही है। नहीं तो क्या तीन दिन तक ज्वर ही न उतरता? यह दैहिक ज्वर नहीं, मानसिक ज्वर है और चित्त के शान्त होने ही से इसका प्रकोप उतर सकता है। अगर वह वहां रात भर बैठी रह सकती और मुंशीजी जरा भी मन मैला न करते, तो कदाचित् मंसाराम को विश्वास हो जाता कि पिताजी का दिल साफ है और फिर अच्छे होने में देर न लगती, लेकिन ऐसा होगा? मुंशीजी उसे वहां देखकर प्रसन्नचित्त रह सकेंगे? क्या अब भी उनका दिल साफ नहीं हुआ? यहां से जाते समय तो ऐसा ज्ञात हुआ था कि वह अपने प्रमाद पर पछता रहे हैं। ऐसा तो न होगा कि उसके वहां जाते ही मुंशीजी का सन्देह फिर भड़क उठे और वह बेटे की जान लेकर ही छोड़ें?
इस दुविधा में पड़े-पड़े तीन दिन गुजर गये और न घर में चूल्हा जला, न किसी ने कुछ खाया। लड़को के लिए बाजार से पूरियां ली जाती थीं, रुक्मिणी और निर्मला भूखी ही सो जाती थीं। उन्हें भोजन की इच्छा ही न होती।
चौथे दिन जियाराम स्कूल से लौटा, तो अस्पताल होता हुआ घर आया। निर्मला ने पूछा-क्यों भैया, अस्पताल भी गये थे? आज क्या हाल है? तुम्हारे भैया उठे या नहीं?
जियाराम रुआंसा होकर बोला- अम्मांजी, आज तो वह कुछ बोलते-चालते ही न थे। चुपचाप चारपाई पर पड़े जोर-जोर से हाथ-पांव पटक रहे थे।
निर्मला के चेहरे का रंग उड़ गया। घबराकर पूछा- तुम्हारे बाबूजी वहां न थे?
जियाराम- थे क्यों नहीं? आज वह बहुत रोते थे।
निर्मला का कलेजा धक्-धक् करने लगा। पूछा- डॉक्टर लोग वहां न थे?
जियाराम- डॉक्टर भी खड़े थे और आपस में कुछ सलाह कर रहे थे। सबसे बड़ा सिविल सर्जन अंगरेजी में कह रहा था कि मरीज की देह में कुछ ताजा खून डालना चाहिए। इस पर बाबूजीय ने कहा- मेरी देह से जितना खून चाहें ले लीजिए। सिविल सर्जन ने हंसकर कहा- आपके ब्लड से काम नहीं चलेगा, किसी जवान आदमी का ब्लड चाहिए। आखिर उसने पिचकारी से कोई दवा भैया के बाजू में डाल दी। चार अंगुल से कम के सुई न रही होगी, पर भैया मिनके तक नहीं। मैंने तो मारे डरके आंखें बन्द कर लीं।
बड़े-बड़े महान संकल्प आवेश में ही जन्म लेते हैं। कहां तो निर्मला भय से सूखी जाती थी, कहां उसके मुंह पर दृढ़ संकल्प की आभा झलक पड़ी। उसने अपनी देह का ताजा खून देने का निश्चय किया। आगर उसके रक्त से मंसाराम के प्राण बच जाएें, तो वह बड़ी खुशी से उसकी अन्तिम बूंद तक दे डालेगी। अब जिसका जो जी चाहे समझे, वह कुछ परवाह न करेगी। उसने जियाराम से काह- तुम लपककर एक एक्का बुला लो, मैं अस्पताला जाऊंगी।
जियाराम- वहां तो इस वक्त बहुत से आदमी होंगे। जरा रात हो जाने दीजिए।
निर्मला- नहीं, तुम अभी एक्का बुला लो।
जियाराम- कहीं बाबूजी बिगड़ें न?
निर्मला- बिगड़ने दो। तुमे अभी जाकर सवारी लाओ।
जियाराम- मैं कह दूंगा, अम्मांजी ही ने मुझसे सवारी मंगाई थी।
निर्मला- कह देना।
जियाराम तो उधर तांगा लाने गया, इतनी देर में निर्मला ने सिर में कंघी की, जूड़ा बांधा, कपड़े बदले, आभूषण पहने, पान खाया और द्वार पर आकर तांगे की राह देखने लगी।
रुक्मिणी अपने कमरे में बैठी हुई थीं उसे इस तैयारी से आते देखकर बोलीं- कहां जाती हो, बहू?
निर्मला- जरा अस्पताल तक जाती हूं।
रुक्मिणी- वहां जाकर क्या करोगी?
निर्मला- कुछ नहीं, करुंगी क्या? करने वाले तो भगवान हैं। देखने को जी चाहता है।
रुक्मिणी- मैं कहतीं हूं, मत जाओ।
निर्मला- ने विनीत भाव से कहा- अभी चली आऊंगी, दीदीजी। जियाराम कह रहे हैं कि इस वक्त उनकी हालत अच्छी नहीं है। जी नहीं मानता, आप भी चलिए न?
रुक्मिणी- मैं देख आई हूं। इतना ही समझ लो कि, अब बाहरी खून पहुंचाने पर ही जीवन की आशा है। कौन अपना ताजा खून देगा और क्यों देगा? उसमें भी तो प्राणों का भय है।
निर्मला- इसीलिए तो मैं जाती हूं। मेरे खून से क्या काम न चलेगा?
रुक्मिणी- चलेगा क्यों नहीं, जवान ही का तो खून चाहिए, लेकिन तुम्हारे खून से मंसाराम की जान बचे, इससे यह कहीं अच्छा है कि उसे पानी में बहा दिया जाएे।
तांगा आ गया। निर्मला और जियाराम दोनों जा बैठे। तांगा चला।
रुक्मिणी द्वार पर खड़ी देत तक रोती रही। आज पहली बार उसे निर्मला पर दया आई, उसका बस होता तो वह निर्मला को बांध रखती। करुणा और सहानुभूति का आवेश उसे कहां लिये जाता है, वह अप्रकट रुप से देख रही थी। आह! यह दुर्भाग्य की प्रेरणा है। यह सर्वनाश का मार्ग है।
निर्मला अस्पताल पहुंची, तो दीपक जल चुके थे। डॉक्टर लोग अपनी राय देकर विदा हो चुके थे। मंसाराम का ज्वर कुछ कम हो गयाथा वह टकटकी लगाए हुद द्वार की ओर देख रहा था। उसकी दृष्टि उन्मुक्त आकाश की ओर लगी हुई थी, माने किसी देवता की प्रतीक्षा कर रहा हो! वह कहां है, जिस दशा में है, इसका उसे कुछ ज्ञान न था।
सहसा निर्मला को देखते ही वह चौंककर उठ बैठा। उसका समाधि टूट गई। उसकी विलुप्त चेतना प्रदीप्त हो गई। उसे अपने स्थिति का, अपनी दशा का ज्ञान हो गया, मानो कोई भूली हुई बात याद हो गई हो। उसने आंखें फाड़कर निर्मला को देखा और मुंह फेर लिया।
एकाएक मुंशीजी तीव्र स्वर से बोले- तुम, यहां क्या करने आईं?
निर्मला अवाक् रह गई। वह बतलाये कि क्या करने आई? इतने सीधे से प्रश्न का भी वह कोई जवाब दे सकी? वह क्या करने आई थी? इतना जटिल प्रश्न किसने सामने आया होगा? घर का आदमी बीमार है, उसे देखने आई है, यह बात क्या बिना पूछे मालूम न हो सकती थी? फिर प्रश्न क्यों?
वह हतबुद्धी-सी खड़ी रही, मानो संज्ञाहीन हो गई हो उसने दोनों लड़को से मुंशीजी के शोक और संताप की बातें सुनकर यह अनुमान किया था कि अब उसनका दिल साफ हो गया है। अब उसे ज्ञात हुआ कि वह भ्रम था। हां, वह महाभ्रम था। मगर वह जानती थी आंसुओं की दृष्टि ने भी संदेह की अग्नि शांत नहीं की, तो वह कदापि न आती। वह कुढ़-कुढ़ाकर मर जाती, घर से पांव न निकालती।
मुंशजी ने फिर वही प्रश्न किया- तुम यहां क्यों आईं?
निर्मला ने नि:शंक भाव से उत्तर दिया- आप यहां क्या करने आये हैं?
मुंशीजी के नथुने फड़कने लगा। वह झल्लाकर चारपाई से उठे और निर्मला का हाथ पकड़कर बोले- तुम्हारे यहां आने की कोई जरुरत नहीं। जब मैं बुलाऊं तब आना। समझ गईं?
अरे! यह क्या अनर्थ हुआ! मंसाराम जो चारपाई से हिल भी न सकता था, उठकर खड़ा हो गया औग्र निर्मला के पैरों पर गिरकर रोते हुए बोला- अम्मांजी, इस अभागे के लिए आपको व्यर्थ इतना कष्ट हुआ। मैं आपका स्नेह कभी भी न भूलंगा। ईश्वर से मेरी यही प्रार्थना है कि मेरा पुर्नजनम आपके गर्भ से हो, जिससे मैं आपके ऋण से अऋण हो सकूं। ईश्वर जानता है, मैंने आपको विमाता नहीं समझा। मैं आपको अपनी माता समझता रहा । आपकी उम्र मुझसे बहुत ज्या न हो, लेकिन आप, मेरी माता के स्थान पर थी और मैंने आपको सदैव इसी दृष्टि से देखा...अब नहीं बोला जाता अम्मांजी, क्षमा कीजिए! यह अंतिम भेंट है।
निर्मला ने अश्रु-प्रवाह को रोकते हुए कहा- तुम ऐसी बातें क्यों करते हो? दो-चार दिन में अच्छे हो जाओगे।
मंसाराम ने क्षीण स्वर में कहा- अब जीने की इच्छा नहीं और न बोलने की शक्ति ही है।
यह कहते-कहते मंसाराम अशक्त होकर वहीं जमीन पर लेट गया। निर्मला ने पति की ओर निर्भय नेत्रों से देखते हुए कहा- डॉक्टर ने क्या सलाह दी?
मुंशीजी- सब-के-सब भंग खा गए हैं, कहते हैं, ताजा खून चाहिए।
निर्मला- ताजा खून मिल जाएे, तो प्राण-रक्षा हो सकती है?
मुंशीजी ने निर्मेला की ओर तीव्र नेत्रों से देखकर कहा- मैं ईश्वर नहीं हूं और न डॉक्टर ही को ईश्वर समझता हूं।
निर्मला- ताजा खून तो ऐसी अलभ्य वस्तु नहीं!
मुंशीजी- आकाश के तारे भी तो अलभ्य नही! मुंह के सामने खदंक क्या चीज है?
निर्मला- मैं आपना खून देने को तैयार हूं। डॉक्टर को बुलाइए।
मुंशीजी ने विस्मित होकर कहा- तुम!
निर्मला- हां, क्या मेरे खून से काम न चलेगा?
मुंशीजी- तुम अपना खून दोगी? नहीं, तुम्हारे खून की जरुरत नहीं। इसमें प्राणो का भय है।
निर्मला- मेरे प्राण और किस दिन काम आयेंगे?
मुंशीजी ने सजल-नेत्र होकर कहा- नहीं निर्मला, उसका मूल्य अब मेरी निगाहों में बहुत बढ़ गया है। आज तक वह मेरे भोग की वस्तु थी, आज से वह मेरी भक्ति की वस्तु है। मैंने तुम्हारे साथ बड़ा अन्याय किया है, क्षमा करो।

निर्मला प्रेमचंद उपन्यास / Nirmala Premchand Novel / अध्याय-5

निर्मला प्रेमचंद उपन्यास / Nirmala Premchand Novel / अध्याय-5

निर्मला प्रेमचंद उपन्यास / Nirmala Premchand Novel / अध्याय-5
मंसाराम के जाने से घर सूना हो गया। दोनों छोटे लड़के उसी स्कूल में पढ़ते थे। निर्मला रोज उनसे मंसाराम का हाल पूछती। आशा थी कि छुट्टी के दिन वह आयेगा, लेकिन जब छुट्टी के दिन गुजर गये और वह न आया, तो निर्मला की तबीयत घबराने लगी। उसने उसके लिए मूंग के लड्डू बना रखे थे। सोमवार को प्रात: भूंगी का लड्डू देकर मदरसे भेजा। नौ बजे भूंगी लौट आयी। मंसाराम ने लड्डू ज्यों-के-त्यों लौटा दिये थे।
निर्मला ने पूछा-पहले से कुछ हरे हुए हैं, रे?
भूंगी-हरे-वरे तो नहीं हुए, और सूख गये हैं।
निर्मला- क्या जी अच्छा नहीं है?
भूंगी-यह तो मैंने नहीं पूछा बहूजी, झूठ क्यों बोलूं? हां, वहां का कहार मेरा देवर लगता है । वह कहता था कि तुम्हारे बाबूजी की खुराक कुछ नहीं है। दो फुलकियां खाकर उठ जाते हैं, फिर दिन भर कुछ नहीं खाते। हरदम पढ़ते रहते हैं।
निर्मला-तूने पूछा नहीं, लड्डू क्यों लौटाये देते हो?
भूंगी- बहूजी, झूठ क्यों बोलूं? यह पूछने की तो मुझे सुध ही न रही। हां, यह कहते थे कि अब तू यहां कभी न आना, न मेरे लिए कोई चीज लाना और अपनी बहूजी से कह देना कि मेरे पास कोई चिट्ठी-पत्तरी न भेजें। लड़कों से भी मेरे पास कोई संदेशा न भेजें और एक ऐसी बात कही कि मेरे मुंह से निकल नहीं सकती, फिर रोने लगे।
निर्मला-कौन बात थी कह तो?
भूंगी-क्या कहूं कहते थे मेरे जीने को धीक्कार है? यही कहकर रोने लगे।
निर्मला के मुंह से एक ठंडी सांस निकल गयी। ऐसा मालूम हुआ, मानो कलेजा बैठा जाता है। उसका रोम-रोम आर्तनाद करने लगा। वह वहां बैठी न रह सकी। जाकर बिस्तर पर मुंह ढांपकर लेट रही और फूट-फूटकर रोने लगी। ‘वह भी जान गये’। उसके अन्त:करण में बार-बार यही आवाज़ गूंजने लगी-‘वह भी जान गये’। भगवान् अब क्या होगा? जिस संदेह की आग में वह भस्म हो रही थी, अब शतगुण वेग से धधकने लगी। उसे अपनी कोई चिंता न थी। जीवन में अब सुख की क्या आशा थी, जिसकी उसे लालसा होती? उसने अपने मन को इस विचार से समझाया था कि यह मेरे पूर्व कर्मों का प्रायश्चित है। कौन प्राणी ऐसा निर्लज्ज होगा, जो इस दशा में बहुत दिन जी सके? कर्त्तव्य की वेदी पर उसने अपना जीवन और उसकी सारी कामनाएं होम कर दी थीं। हृदय रोता रहता था, पर मुख पर हंसी का रंग भरना पड़ता था। जिसका मुंह देखने को जी न चाहता था, उसके सामने हंस-हंसकर बातें करनी पड़ती थीं। जिस देह का स्पर्श उसे सर्प के शीतल स्पर्श के समान लगता था, उससे आलिंगित होकर उसे जितनी घृणा, जितनी मर्मवेदना होती थी, उसे कौन जान सकता है? उस समय उसकी यही इच्छा थी कि धरती फट जाएे और मैं उसमें समा जाऊं। लेकिन सारी विडम्बना अब तक अपने ही तक थी। अपनी चिंता उसन छोड़ दी थी, लेकिन वह समस्या अब अत्यंत भयंकर हो गयी थी। वह अपनी आंखों से मंसाराम की आत्मपीड़ा नहीं देख सकती थी। मंसाराम जैसे मनस्वी, साहसी युवक पर इस आक्षेप का जो असर पड़ सकता था, उसकी कल्पना ही से उसके प्राण कांप उठते थे। अब चाहे उस पर कितने ही संदेह क्यों न हों, चाहे उसे आत्महत्या ही क्यों न करनी पड़े, पर वह चुप नहीं बैठ सकती। मंसाराम की रक्षा करने के लिए वह विकल हो गयी। उसने संकोच और लज्जा की चादर उतारकर फेंक देने का निश्चय कर लिया।
वकील साहब भोजन करके कचहरी जाने के पहले एक बार उससे अवश्य मिल लिया करते थे। उनके आने का समय हो गया था। आ ही रहे होंगे, यह सोचकर निर्मला द्वार पर खड़ी हो गयी और उनका इंतजार करने लगी लेकिन यह क्या? वह तो बाहर चले जा रहे है। गाड़ी जुतकर आ गयी, यह हुक्म वह यहीं से दिया करते थे। तो क्या आज वह न आयेंगे, बाहर-ही-बाहर चले जाएेंगे। नहीं, ऐसा नहीं होने पायेगा। उसने भूंगी से कहा-जाकर बाबूजी को बुला ला। कहना, एक जरुरी काम है, सुन लीजिए।
मुंशीजी जाने को तैयार ही थे। यह संदेशा पाकर अंदर आये, पर कमरे में न आकर दूर से ही पूछा-क्या बात है भाई? जल्दी कह दो, मुझे एक जरुरी काम से जाना है। अभी थोड़ी देर हुई, हेडमास्टर साहब का एक पत्र आया है कि मंसाराम को ज्वर आ गया है, बेहतर हो कि आप घर ही पर उसका इलाज करें। इसलिए उधर ही से हाता हुआ कचहरी जाऊंगा। तुम्हें कोई खास बात तो नहीं कहनी है।
निर्मला पर मानो वज्र गिर पड़ा। आंसुओं के आवेग और कंठ-स्वर में घोर संग्राम होने लगा। दोनों पहले निकलने पर तुले हुए थे। दो में से कोई एक कदम भी पीछे हटना नहीं चाहता था। कंठ-स्वर की दुर्बलता और आंसुओं की सबलता देखकर यह निश्चय करना कठिन नहीं था कि एक क्षण यही संग्राम होता रहा तो मैदान किसके हाथ रहेगा। अखीर दोनों साथ-साथ निकले, लेकिन बाहर आते ही बलवान ने निर्बल को दबा लिया। केवल इतना मुंह से निकला-कोई खास बात नहीं थी। आप तो उधर जा ही रहे हैं।
मुंशीजी- मैंने लड़कों पूछा था, तो वे कहते थे, कल बैठे पढ़ रहे थे, आज न जाने क्या हो गया।
निर्मला ने आवेश से कांपते हुए कहा-यह सब आप कर रहे हैं
मुंशीजी ने त्योरियां बदलकर कहा-मैं कर रहा हूं? मैं क्या कर रहा हूं?
निर्मला-अपने दिल से पूछिए।
मुंशीजी-मैंने तो यही सोचा था कि यहां उसका पढ़ने में जी नहीं लगता, वहां और लड़कों के साथ खामाख्वह पढ़ेगा ही। यह तो बुरी बात न थी और मैंने क्या किया?
निर्मला-खूब सोचिए, इसीलिए आपने उन्हें वहां भेजा था? आपके मन में और कोई बात न थी।
मुंशीजी जरा हिचकिचाए और अपनी दुर्बलता को छिपाने के लिए मुस्कराने की चेष्टा करके बोले-और क्या बात हो सकती थी? भला तुम्हीं सोचो।
निर्मला-खैर, यही सही। अब आप कृपा करके उन्हें आज ही लेते आइयेगा, वहां रहने से उनकी बीमारी बढ़ जाने का भय है। यहां दीदीजी जितनी तीमारदारी कर सकती हैं, दूसरा नहीं कर सकता।
एक क्षण के बाद उसने सिर नीचा करके कहा-मेरे कारण न लाना चाहते हों, तो मुझे घर भेज दीजिए। मैं वहां आराम से रहूंगी।
मुंशीजी ने इसका कुछ जवाब न दिया। बाहर चले गये, और एक क्षण में गाड़ी स्कूल की ओर चली।
मन। तेरी गति कितनी विचित्र है, कितनी रहस्य से भरी हुई, कितनी दुर्भेद्य। तू कितनी जल्द रंग बदलता है? इस कला में तू निपुण है। आतिशबाजी की चर्खी को भी रंग बदलते कुछ देरी लगती है, पर तुझे रंग बदलने में उसका लक्षांश समय भी नहीं लगता। जहां अभी वात्सल्य था, वहां फिर संदेह ने आसन जमा लिया।
वह सोचते थे-कहीं उसने बहाना तो नहीं किया है?
मंसाराम दो दिन तक गहरी चिंता में डूबा रहा। बार-बार अपनी माता की याद आती, न खाना अच्छा लगता, न पढ़ने ही में जी लगता। उसकी कायापलट-सी हो गई। दो दिन गुजर गये और छात्रालय में रहते हुए भी उसने वह काम न किया, जो स्कूल के मास्टरों ने घर से कर लाने को दिया था। परिणाम स्वरुप उसे बेंच पर खड़ा रहना पड़ा। जो बात कभी न हुई थी, वह आज हो गई। यह असह्य अपमान भी उसे सहना पड़ा।
तीसरे दिन वह इन्हीं चिंताओं में मग्न हुआ अपने मन को समझा रहा था-कहा संसार में अकेले मेरी ही माता मरी है? विमाताएं तो सभी इसी प्रकार की होती हैं। मेरे साथ कोई नई बात नहीं हो रही है। अब मुझे पुरुषों की भांति द्विगुण परिश्रम से अपना म करना चाहिए, जैसे माता-पिता राजी रहें, वैसे उन्हें राजी रखना चाहिए। इस साल अगर छात्रवृति मिल गई, तो मुझे घर से कुछ लेने की जरुरत ही न रहेगी। कितने ही लड़के अपने ही बल पर बड़ी-बड़ी उपाधियां प्राप्त कर लेते हैं। भागय के नाम को रोने-कोसने से क्या होगा।
इतने में जियाराम आकर खड़ा हो गया।
मंसाराम ने पूछा-घर का क्या हाल है जिया? नई अम्मांजी तो बहुत प्रसन्न होंगी?
जियाराम-उनके मन का हाल तो मैं नहीं जानता, लेकिन जब से तुम आये हो, उन्होने एक जून भी खाना नहीं खाया। जब देखो, तब रोया करती हैं। जब बाबूजी आते हैं, तब अलबत्ता हंसने लगती हैं। तुम चले आये तो मैंने भी शाम को अपनी किताबें संभाली। यहीं तुम्हारे साथ रहना चाहता था। भूंगी चुड़ैल ने जाकर अम्मांजी से कह दिया। बाबूजी बैठे थे, उनके सामने ही अम्मांजी ने आकर मेरी किताबें छीन लीं और रोकर बोलीं, तुम भी चले जाओगे, तो इस घर में कौन रहेगा? अगर मेरे कारण तुम लोग घर छोड़-छोड़कर भागे जा रहे तो लो, मैं ही कहीं चली जाती हूं। मैं तो झल्लाया हुआ था ही, वहां अब बाबूजी भी न थे, बिगड़कर बोला, आप क्यों कहीं चली जाएेंगी? आपका तो घर है, आप आराम से रहिए। गैर तो हमीं लोग हैं, हम न रहेंगे, तब तो आपको आराम-आराम ही होग।
मंसाराम-तुमने खूब कहा, बहुत ही अच्छा कहा। इस पर और भी झल्लाई होंगी और जाकर बाबूजी से शिकायत की होगी।
जियाराम-नहीं, यह कुछ नहीं हुआ। बेचारी जमीन पर बैठकर रोने लगीं। मुझे भी करुणा आ गयी। मैं भी रो पड़ा। उन्होने आंचल से मेरे आंसू पोंछे और बोलीं, जिया। मैं ईश्वर को साक्षी देकर कहती हूं कि मैंने तुम्हारे भैया केइविषय में तुम्हारे बाबूजी से एक शब्द भी नहीं कहा। मेरे भाग में कलंक लिखा हुआ है, वही भाग रही हूं। फिर और न जाने क्या-क्या कहा, जा मेरी समझ में नहीं आया। कुछ बाबुजी की बात थी।
मंसाराम ने उद्विग्नता से पूछा-बाबूजी के विषय में क्या कहा? कुछ याद है?
जियाराम-बातें तो भई, मुझे याद नहीं आती। मेरी ‘मेमोरी’ कौन बड़ी ते है, लेकिन उनकी बातों का मतलब कुछ ऐसा मालूम होता था कि उन्हें बाबूजी को प्रसन्न रखने के लिए यह स्वांग भरना पड़ रहा है। न जाने धर्म-अधर्म की कैसी बातें करती थीं जो मैं बिल्कुल न समझ सका। मुझे तो अब इसका विश्वास आ गया है कि उनकी इच्छा तुम्हें यहां भेजन की न थी।
मंसाराम- तुम इन चालों का मतलब नहीं समझ सकते। ये बड़ी गहरी चालें हैं।
जियाराम- तुम्हारी समझ में होंगी, मेरी समझ में नहीं हैं।
मंसाराम- जब तुम ज्योमेट्री नहीं समझ सकते, तो इन बातों को क्या समझ सकोगे? उस रात को जब मुझे खाना खाने के लिए बुलाने आयी थीं औरउनके आग्रह पर मैं जाने को तैयार भी हो गया था, उस वक्त बाबूजी को देखते ही उन्होने जो कैंडा बदला, वह क्या मैं कभी भी भूल सकता हूं?
जियाराम-यही बात मेरी समझ में नहीं आती। अभी कल ही मैं यहां से गया, तो लगीं तुम्हारा हाल पूछने। मैंने कहा, वह तो कहते थे कि अब कभी इस घर में कदम न रखूंगा। मैंने कुछ झूठ तो कहा नहीं, तुमने मुझसे कहा ही था। इतना सुनना था कि फूट-फूटकर रोने लगीं मैं दिल में बहुत पछताया कि कहां-से-कहां मैंने यह बात कह दी। बार-बार यही कहती थीं, क्या वह मेरे कारण घर छोड़ देंगे? मुझसे इतने नाराज है।? चले गये और मझसे मिले तक नहीं। खाना तैयार था, खाने तक नहीं आये। हाय। मैं क्या बताऊं, किस विपत्ति में हूं। इतने में बाबूजी आ गये। बस तुरन्त आंखें पोंछकर मुस्कुराती हुई उनके पास चली गई। यह बात मेरी समझ में नहीं आती। आज मुझे बड़ी मिन्नत की कि उनको साथ लेते आना। आज मैं तुम्हें खींच ले चलूंगा। दो दिन में वह कितनी दुबली हो गयी हैं, तुम्हें यह देखकर उन पर दया आयी। तो चलोगे न?
मंसाराम ने कुछ जवाब न दिया। उसके पैर कांप रहे थे। जियाराम तो हाजिरी की घंटी सुनकर भागा, पर वह बेंच पर लेट गया और इतनी लम्बी सांस ली, मानो बहुत देर से उसने सांस ही नहीं ली है। उसके मुख से दुस्सह वेदना में डूबे हुए शब्द निकले-हाय ईश्वर। इस नाम के सिवा उसे अपना जीवन निराधार मालूम होता था। इस एक उच्छवास में कितना नैराश्य था, कितनी संवेदना, कितनी करुणा, कितनी दीन-प्रार्थना भरी हुई थी, इसका कौन अनुमान कर सकता है। अब सारा रहस्य उसकी समझ में आ रहा था और बार-बार उसका पीड़ित हृदय आर्तनाद कर रहा था-हाय ईश्वर। इतना घोर कलंक।
क्या जीवन में इससे बड़ी विपत्ति की कल्पना की जा सकती है? क्या संसार में इससे घोरतम नीचता की कल्पना हो सकती है? आज तक किसी पिता ने अपने पुत्र पर इतना निर्दय कलंक न लगाया होगा। जिसके चरित्र की सभी प्रशंसा करते थे, जो अन्य युवकों के लिए आदर्श समझा जाता था, जिसने कभी अपवित्र विचारों को अपने पास नहीं फटकने दिया, उसी पर यह घोरतम कलंक। मंसाराम को ऐसा मालूम हुआ, मानों उसका दिल फटा जाता है।
दूसरी घंटी भी बज गई। लड़के अपने-अपने कमरे में गए, पर मंसाराम हथेली पर गाल रखे अनिमेष नेत्रों से भूमि की ओर देख रहा था, मानो उसका सर्वस्व जलमग्न हो गया हो, मानो वह किसी को मुंह न दिखा सकता हो। स्कूल में गैरहाजिरी हो जाएेगी, जुर्माना हो जाएेगा, इसकी उसे चिंता नहीं, जब उसका सर्वस्व लुट गया, तो अब इन छोटी-छोटी बातों का क्या भय? इतना बड़ा कलंक लगने पर भी अगर जीता रहूं, तो मेरे जीने को धिक्कार है।
उसी शोकातिरेक दशा में वह चिल्ला पड़ा-माताजी। तुम कहां हो? तुम्हारा बेटा, जिस पर तुम प्राण देती थीं, जिसे तुम अपने जीवन का आधार समझती थीं, आज घोर संकट में है। उसी का पिता उसकी गर्दन पर छुरी फेर रहा है। हाय, तुम हो?
मंसाराम फिर शांतचित्त से सोचने लगा-मुझ पर यह संदेह क्यों हो रहा है? इसका क्या कारण है? मुझमें ऐसी कौन-सी बात उन्होंने देखी, जिससे उन्हें यह संदेह हुआ? वह हमारे पिता हैं, मेरे शत्रु नहीं है, जो अनायास ही मझ पर यह अपराध लगाने बैठ जाएें। जरुर उन्होनें कोई-कोई बात देखी या सुनी है। उनका मुझ पर कितना स्नेह था। मेरे बगैर भोजन न करते थे, वही मेरे शत्रु हो जाएें, यह बात अकारण नहीं हो सकती।
अच्छा, इस संदेह का बीजारोपण किस दिन हुआ? मुझे बोर्डिंग हाउस में ठहराने की बात तो पीछे की है। उस दिन रात को वह मेरे कमरे में आकर मेरी परीक्षा लेने लगे थे, उसी दिन उनकी त्योरियां बदली हुईं थीं। उस दिन ऐसी कौन-सी बात हुई, जो अप्रिय लगी हो। मैं नई अम्मां से कुछ खाने को मांगने गया था। बाबूजी उस समय वहां बैठे थे। हां, अब याद आती है, उसी वक्त उनका चेहरा तमतमा गया था। उसी दिन से नई अम्मां ने मुझसे पढ़ना छोड़ दिया। अगर मैं जानता कि मेरा घर में आना-जाना, अम्मांजी से कुछ कहना-सुनना और उन्हें पढ़ाना-लिखाना पिताजी को बुरा लगता है, तो आज क्यों यह नौबत आती? और नई अम्मां। उन पर क्या बीत रही होगी?
मंसाराम ने अब तक निर्मला की ओर ध्यान नहीं दिया था। निर्मला का ध्यान आते ही उसके रोंये खड़े हो गये। हाय उनका सरल स्नेहशील हृदय यह आघात कैसे सह सकेगा? आह। मैं कितने भ्रम में था। मैं उनके स्नेह को कौशल समझता था। मुझे क्या मालूम था कि उन्हें पिताजी का भ्रम शांत करने के लिए मेरे प्रति इतना कटु व्यवहार करना पड़ता है। आह। मैंने उन पर कितना अन्याय किया है। उनकी दशा तो मुझसे भी खराब हो रही होगी। मैं तो यहां चला आय, मगर वह कहां जाएेंगी? जिया कहता था, उन्होंने दो दिन से भोजन नहीं किया। हरदम रोया करती हैं। कैसे जाकर समझाऊं। वह इस अभागे के पीछे क्यों अपने सिर यह विपत्ति ले रही हैं? वह बार-बार मेरा हाल पूछती हैं? क्यों बार-बार मुझे बुलाती हैं? कैसे कह दूं कि माता मुझे तुमसे जरा भी शिकायत नहीं, मेरा दिल तुम्हारी तरफ से साफ है।
वह अब भी बैठी रो रही होंगी। कितना बड़ा अनर्थ है। बाबूजी को यह क्या हो रहा है? क्या इसीलिए विवाह किया था? एक बालिका की हत्या करने के लिए ही उसे लाये थे? इस कोमल पुष्प को मसल डालने के लिए ही तोड़ा था।
उनका उद्वार कैसे होगा। उस निरपराधिनी का मुख कैस उज्जवल होगा? उन्हें केवल मेरे साथ स्नेह का व्यवहार करने के लिए यह दंड दिया जा रहा है। उनकी सज्जनता का उन्हें यह उपहार मिल रहा है। मैं उन्हें इस प्रकार निर्दय आघात सहते देखकर बैठा रहूंगा? अपनी मान-रक्षा के लिए न सही, उनकी आत्म-रक्षा के लिए इन प्राणों का बलिदान करना पड़ेगा। इसके सिवाय उद्धार का काई उपाय नहीं। आह। दिल में कैसे-कैसे अरमान थे। वे सब खाक में मिला देने होंगे। एक सती पर संदेह किया जा रहा है और मेरे कारण। मुझे अपनी प्राणों से उनकी रक्षा करनी होगी, यही मेरा कर्त्तव्य है। इसी में सच्ची वीरता है। माता, मैं अपने रक्त से इस कालिमा को धो दूंगा। इसी में मेरा और तुम्हारा दोनों का कल्याण है।
वह दिन भर इन्हीं विचारों मे डूबा रहा। शाम को उसके दोनों भाई आकर घर चलने के लिए आग्रह करने लगे।
सियाराम-चलते क्यां नही? मेरे भैयाजी, चले चलो न।
मंसाराम-मुझे फुरसत नहीं है कि तुम्हारे कहने से चला चलूं।
जियाराम-आखिर कल तो इतवार है ही।
मंसाराम-इतवार को भी काम है।
जियाराम-अच्छा, कल आआगे न?
मंसाराम-नहीं, कल मुझे एक मैच में जाना है।
सियाराम-अम्मांजी मूंग के लड्डू बना रही हैं। न चलोगे तो एक भी पाआगे। हम तुम मिल के खा जाएेंगे, जिया इन्हें न देंगे।
जियाराम-भैया, अगर तुम कल न गये तो शायद अम्मांजी यहीं चली आयें।
मंसाराम-सच। नहीं ऐसा क्यों करेंगी। यहां आयीं, तो बड़ी परेशानी होगी। तुम कह देना, वह कहीं मैच देखने गये हैं।
जियाराम-मैं झूठ क्यों बोलने लगा। मैं कह दूंगा, वह मुंह फुलाये बैठे थे। देख ले उन्हें साथ लाता हूं कि नहीं।
सियाराम-हम कह देंगे कि आज पढ़ने नहीं गये। पड़े-पड़े सोते रहे।
मंसाराम ने इन दूतों से कल आने का वादा करके गला छुड़ाया। जब दोनों चले गये, तो फिर चिंता में डूबा। रात-भर उसे करवटें बदलते गुजरी। छुट्टी का दिन भी बैठे-बैठे कट गया, उसे दिन भर शंका होती रहती कि कहीं अम्मांजी सचमुच न चली आयें। किसी गाड़ी की खड़खड़ाहट सुनता, तो उसका कलेजा धकधक करने लगता। कहीं आ तो नहीं गयीं?
छात्रालय में एक छोटा-सा औषधालय था। एक डांक्टर साहब संध्या समय एक घण्टे के लिए आ जाएा करते थे। अगर कोई लड़का बीमार होता तो उसे दवा देते। आज वह आये तो मंसाराम कुछ सोचता हुआ उनके पास जाकर खड़ा हो गया। वह मंसाराम को अच्छी तरह जानते थे। उसे देखकर आश्चर्य से बोले-यह तुम्हारी क्या हालत है जी? तुम तो मानो गले जा रहे हो। कहीं बाजार का का चस्का तो नहीं पड़ गया? आखिर तुम्हें हुआ क्या? जरा यहां तो आओ।
मंसाराम ने मुस्कराकर कहा-मुझे जिन्दगी का रोग है। आपके पास इसकी भी तो कोई दवा है?
डाक्टर-मैं तुम्हारी परीक्षा करना चाहता हूं। तुम्हारी सूरत ही बदल गयी है, पहचाने भी नहीं जाते।
यह कहकर, उन्होने मंसाराम का हाथ पकड़ लिया और छाती, पीठ, आंखें, जीभ सब बारी-बारी से देखीं। तब चिंतित होकर बोले-वकील साहब से मैं आज ही मिलूंगा। तुम्हें थाइसिस हो रहा है। सारे लक्षण उसी के हैं।
मंसाराम ने बड़ी उत्सुकता से पूछा-कितने दिनों में काम तमाम हो जाएेगा, डक्टर साहब?
डाक्टर-कैसी बात करते हो जी। मैं वकील साहब से मिलकर तुम्हें किसी पहाड़ी जगह भेजने की सलाद दूंगा। ईश्वर ने चाहा, तो बहुत जल्द अच्छे हो जाओगे। बीमारी अभी पहले स्टेज में है।
मंसाराम-तब तो अभी साल दो साल की देर मालूम होती है। मैं तो इतना इंतजार नहीं कर सकता। सुनिए, मुझे थायसिस-वायसिस कुछ नहीं है, न कोई दूसरी शिकायत ही है, आप बाबूजी को नाहक तरद्रदुद में न डालिएगा। इस वक्त मेरे सिर में दर्द है, कोई दवा दीजिए। कोई ऐसी दवा हो, जिससे नींद भी आ जाएे। मुझे दो रात से नींद नहीं आती।
डॉक्टर ने जहरीली दवाइयों की आलमारी खोली और शीशी से थोड़ी सी दवा निकालकर मंसाराम को दी। मंसाराम ने पूछा-यह तो कोई जहर है भला इस कोई पी ले तो मर जाएे?
डॉक्टर-नहीं, मर तो नहीं जाएे, पर सिर में चक्कर जरूर आ जाएे।
मंसाराम-कोई ऐसी दवा भी इसमें है, जिसे पीते ही प्राण निकल जाएें?
डॉक्टर-ऐसी एक-दो नहीं कितनी ही दवाएं हैं। यह जो शीशी देख रहे हो, इसकी एक बूंद भी पेट में चली जाएे, तो जान न बचे। आनन-फानन में मौत हो जाएे।
मंसाराम-क्यों डॉक्टर साहब, जो लोग जहर खा लेते हैं, उन्हें बड़ी तकलीफ होती होगी?
डॉक्टर-सभी जहरों में तकलीफ नहीं होती। बाज तो ऐसे हैं कि पीते ही आदमी ठंडा हो जाता है। यह शीशी इसी किस्म की है, इस पीते ही आदमी बेहोश हो जाता है, फिर उसे होश नहीं आता।
मंसाराम ने सोचा-तब तो प्राण देना बहुत आसान है, फिर क्यों लोग इतना डरते हैं? यह शीशी कैसे मिलेगी? अगर दवा का नाम पूछकर शहर के किसी दवा-फरोश से लेना चाहूं, तो वह कभी न देगा। ऊंह, इसे मिलने में कोई दिक्कत नहीं। यह तो मालूम हो गया कि प्राणों का अन्त बड़ी आसानी से किया जा सकता है। मंसाराम इतना प्रसन्न हुआ, मानो कोई इनाम पा गया हो। उसके दिल पर से बोझ-सा हट गया। चिंता की मेघ-राशि जो सिर पर मंडरा रही थी, छिन्न-भिन्न् हो गयी। महीनों बाद आज उसे मन में एक स्फूर्ति का अनुभव हुआ। लड़के थियेटर देखने जा रहे थे, निरीक्षक से आज्ञा ले ली थी। मंसाराम भी उनके साथ थियेटर देखने चला गया। ऐसा खुश था, मानो उससे ज्यादा सुखी जीव संसार में कोई नहीं है। थियेटर में नकल देखकर तो वह हंसते-हंसते लोट गया। बार-बार तालियां बजाने और ‘वन्स मोर’ की हांक लगाने में पहला नम्बर उसी का था। गाना सुनकर वह मस्त हो जाता था, और ‘ओहो हो। करके चिल्ला उठता था। दर्शकों की निगाहें बार-बार उसकी तरफ उठ जाती थीं। थियेटर के पात्र भी उसी की ओर ताकते थे और यह जानने को उत्सुक थे कि कौन महाशय इतने रसिक और भावुक हैं। उसके मित्रों को उसकी उच्छृंखलता पर आश्चर्य हो रहा था। वह बहुत ही शांतचित्त, गम्भीर स्वभाव का युवक था। आज वह क्यों इतना हास्यशील हो गया है, क्यों उसके विनोद का पारावार नहीं है।
दो बजे रात को थियेटर से लौटने पर भी उसका हास्योन्माद कम नहीं हुआ। उसने एक लड़के की चारपाई उलट दी, कई लड़कों के कमरे के द्वार बाहर से बंद कर दिये और उन्हें भीतर से खट-खट करते सुनकर हंसता रहा। यहां तक कि छात्रालय के अध्यक्ष महोदय करी नींद में भी शोरगुल सुनकर खुल गयी और उन्होंने मंसाराम की शरारत पर खेद प्रकट किया। कौन जानता है कि उसके अन्त:स्थल में कितनी भीषण क्रांति हो रही है? संदेह के निर्दय आघात ने उसकी लज्जा और आत्मसम्मान को कुचल डाला है। उसे अपमान और तिरस्कार का लेशमात्र भी भय नहीं है। यह विनोद नहीं, उसकी आत्मा का करुण विलाप है। जब और सब लड़के सो गये, तो वह भी चारपाई पर लेटा, लेकिन उसे नींद नहीं आयी। एक क्षण के बाद वह बैठा और अपनी सारी पुस्तकें बांधकर संदूक में रख दीं। जब मरना ही है, तो पढ़कर क्या होगा? जिस जीवन में ऐसी-एसी बाधाएं हैं, ऐसी-ऐसी यातनाएं हैं, उससे मृत्यु कहीं अच्छी।
यह सोचते-सोचते तड़का हो गया। तीन रात से वह एक क्षण भी न सोया था। इस वक्त वह उठा तो उसके पैर थर-थर कांप रहे थे और सिर में चक्कर सा आ रहा था। आंखें जल रही थीं और शरीर के सारे अंग शिथिल हो रहे थे। दिन चढ़ता जाता था और उसमें इतनी शक्ति दिन चढ़ता जाता था और उसमें इतनी शक्ति भी न थी कि उठकर मुंह हाथ धो डाले। एकाएक उसने भूंगी को रूमाल में कुछ लिए हुए एक कहार के साथ आते देखा। उसका कलेजा सन्न रह गया। हाय। ईश्वर वे आ गयीं। अब क्या होगा? भूंगी अकेले नहीं आयी होगी? बग्घी जरूर बाहर खड़ी होगी? कहां तो उससे उठा प्रश्न जाता था, कहां भूंगी को देखते ही दौड़ा और घबराई हुई आवाज में बोला-अम्मांजी भी आयी हैं, क्या रे? जब मालूम हुआ कि अम्मांजी नहीं आयी, तब उसका चित्त शांत हुआ।
भूंगी ने कहा-भैया। तुम कल गये नही, बहूजी तुम्हारी राह देखती रह गयीं। उनसे क्यों रुठे हो भैया? कहती हैं, मैंने उनकी कुछ भी शिकायत नहीं की है। मुझसे आज रोकर कहने लगीं-उनके पास यह मिठाई लेती जा और कहना, मेरे कारण क्यों घर छोड़ दिया है? कहां रख दूं यह थाली?
मंसाराम ने रुखाई से कहा-यह थाली अपने सिर पर पटक दे चुड़ैल। वहां से चली है मिठाई लेकर। खबरदार, जो फिर कभी इधर आयी। सौगात लेकर चली है। जाकर कह देना, मुझे उनकी मिठाई नहीं चाहिए। जाकर कह देना, तुम्हारा घर है तुम रहो, वहां वे बड़े आराम से हैं। खूब खाते और मौज करते हैं। सुनती है, बाबूजी की मुंह पर कहना, समझ गयी? मुझे किसी का डर नहीं है, और जो करना चाहें, कर डालें, जिससे दिल में कोई अरमान न रह जाएे। कहें तो इलाहाबाद, लखनऊ, कलकत्ता चला जाऊं। मेरे लिए जैसे बनारस वैसे दूसरा शहर। यहां क्या रखा है?
भूंगी-भैया, मिठाई रख लो, नहीं रो-रोकर मर जाएेंगी। सच मानो रो-रोकर मर जाएेंगी।
मंसाराम ने आंसुओं के उठते हुए वेग को दबाकर कहा-मर जाएेंगी, मेरी बला से। कौन मुझे बड़ा सुख दे दिया है, जिसके लिए पछताऊं। मेरा तो उन्होंने सर्वनाश कर दिया। कह देना, मेरे पास कोई संदेशा न भेजें, कुछ जरूरत नहीं।
भूंगी- भैया, तुम तो कहते हो यहां खूब खाता हूं और मौज करता हूं, मगर देह तो आधी भी न रही। जैसे आये थे, उससे आधे भी न रहे।
मंसाराम-यह तेरी आंखों का फेर है। देखना, दो-चार दिन में मुटाकर कोल्हू हो जाता हूं कि नहीं। उनसे यह भी कह देना कि रोना-धोना बंद करें। जो मैंने सुना कि रोती हैं और खाना नहीं खातीं, मुझसे बुरा कोई नहीं। मुझे घर से निकाला है, तो आप न से रहें। चली हैं, प्रेम दिखाने। मैं ऐसे त्रिया-चरित्र बहुत पढ़े बैठा हूं।
भूंगी चली गयी। मंसाराम को उससे बातें करते ही कुछ ठण्ड मालूम होने लगी थी। यह अभिनय करने के लिए उसे अपने मनोभावों को जितना दबाना पड़ा था, वह उसके लिए असाध्य था। उसका आत्म-सम्मान उसे इस कुटिल व्यवहार का जल्द-से-जल्द अंत कर देने के लिए बाध्य कर रहा था, पर इसका परिणाम क्या होगा? निर्मला क्या यह आघात सह सकेगी? अब तक वह मृत्यु की कल्पना करते समय किसी अन्य प्राणी का विचार न करता था, पर आज एकाएक ज्ञान हुआ कि मेरे जीवन के साथ एक और प्राणी का जीवन-सूत्र भी बंधा हुआ है। निर्मला यह समझेगी कि मेरी निष्ठुरता ही ने इनकी जान ली। यह समझकर उसका कोमल हृदय फट न जाएेगा? उसका जीवन तो अब भी संकट में है। संदेह के कठोर पंजे में फंसी हुई अबला क्या अपने का हत्यारिणी समझकर बहुत दिन जीवित रह सकती है?
मंसाराम ने चारपाई पर लेटकर लिहाफ ओढ़ लिया, फिर भी सर्दी से कलेजा कांप रहा था। थोड़ी ही देर में उसे जोर से ज्वर चढ़ आया, वह बेहोश हो गया। इस अचेत दशा में उसे भांति-भांति के स्वप्न दिखाई देने लगे। थोड़ी-थोड़ी देर के बाद चौंक पड़ता, आंखें खुल जाती, फिर बेहोश हो जाता।
सहसा वकील साहब की आवाज सुनकर वह चौंक पड़ा। हां, वकील साहब की आवाज थी। उसने लिहाफ फेंक दिया और चारपाई से उतरकर नीचे खड़ा हो गया। उसके मन में एक आवेग हुआ कि इस वक्त इनके सामने प्राण दे दूं। उसे ऐसा मालूम हुआ कि मैं मर जाऊं, तो इन्हें सच्ची खुशी होगी। शायद इसीलिए वह देखने आये हैं कि मेरे मरने में कितनी देर है। वकील साहब ने उसका हाथ पकड़ लिया, जिससे वह गिर न पड़े और पूछा-कैसी तबीयत है लल्लू। लेटे क्यों न रहे? लेट न जाओ, तुम खड़े क्यों हो गये?
मंसाराम-मेरी तबीयत तो बहुत अच्छी है। आपको व्यर्थ ही कष्ट हुआ। मुंशी जी ने कुछ जवाब न दिया। लड़के की दशा देखकर उनकी आंखों से आंसू निकल आये। वह हृष्ट-पुष्ट बालक, जिसे देखकर चित्त प्रसन्न हो जाता था, अब सूखकर कांटा हो गया था। पांच-छ: दिन में ही वह इतना दुबला हो गया था कि उसे पहचानना कठिन था। मुंशीजी ने उसे आहिस्ता से चारपाई पर लिटा दिया और लिहाफ अच्छी तरह उसे उढ़ाकर सोचने लगे कि अब क्या करना चाहिए। कहीं लड़का हाथ से तो नहीं जाएगा। यह ख्याल करके वह शोक विह्ववल हो गये और स्टूल पर बैठकर फूट-फूटकर रोने लगे। मंसाराम भी लिहाफ में मुंह लपेटे रो रहा था। अभी थोड़े ही दिनों पहले उसे देखकर पिता का हृदय गर्व से फूल उठता था, लेकिन आज उसे इस दारुण दशा में देखकर भी वह सोच रहे हैं कि इसे घर ले चलूं या नहीं। क्या यहां दवा नहीं हो सकती? मैं यहां चौबीसों घण्टे बैठा रहूंगा। डॉक्टर साहब यहां हैं ही। कोई दिक्कत न होगी। घर ले चलने से में उन्हें बाधाएं-ही-बाधाएं दिखाई देती थीं, सबसे बड़ा भय यह था कि वहां निर्मला इसके पास हरदम बैठी रहेगी और मैं मना न कर सकूंगा, यह उनके लिए असह्य था।
इतने में अध्यक्ष ने आकर कहा-मैं तो समझता हूं कि आप इन्हें अपने साथ ले जाएें। गाड़ी है ही, कोई तकलीफ न होगी। यहां अच्छी तरह देखभाल न हो सकेगी।
मुंशीजी-हां, आया तो मैं इसी खयाल से था, लेकिन इनकी हालत बहुत ही नाजुक मालूम होती है। जरा-सी असावधानी होने से सरसाम हो जाने का भय है।
अध्यक्ष-यहां से इन्हें ले जाने में थोड़ी-सी दिक्कत जरुर है, लेकिन यह तो आप खुद सोच सकते हैं कि घर पर जो आराम मिल सकता है, वह यहां किसी तरह नहीं मिल सकता। इसके अतिरिक्त किसी बीमार लड़के को यहां रखना नियम-विरुद्ध भी है।
मुंशीजी- कहिए तो मैं हेडमास्टर से आज्ञा ले लूं। मुझे इनका यहां से इस हालत में ले जाना किसी तरह मुनासिब नहीं मालूम होता।
अध्यक्ष ने हेडमास्टर का नाम सुना, तो समझे कि यह महाशय धमकी दे रहे हैं। जरा तिनककर बोले-हेडमास्टर नियम-विरुद्व कोई बात नहीं कर सकते। मैं इतनी बड़ी जिम्मेदारी कैसे ले सकता हूं?
अब क्या हो? क्या घर ले जाना ही पड़ेगा? यहां रखने का तो यह बहाना था कि ले जाने बीमारी बढ़ जाने की शंका है। यहां से ले जाकर हस्पताल में ठहराने का कोई बहाना नहीं है। जो सुनेगा, वह यही कहेगा कि डाक्टर की फीस बचाने के लिए लड़के को अस्पताल फेंक आये, पर अब ले जाने के सिवा और कोई उपाय न था। अगर अध्यक्ष महोदय इस वक्त रिश्वत लेने पर तैयार हो जाते, तो शायद दो-चार साल का वेतन ले लेते, लेकिन कायदे के पाबंद लोगों में इतनी बुद्वि, इतनी चतुराई कहां। अगर इस वक्त मुंशीजी को कोई आदमी ऐसा उज्र सुझा देता, जिसमें उनहें मंसाराम को घर न ले जाना पड़े, तो वह आजीवन असका एहसान मानते। सोचने का समय भी न था। अध्यक्ष महोदय शैतान की तरह सिर पर सवार था। विवश होकर मुंशीजी ने दोनों साईसों को बुलाया और मंसाराम को उठाने लगे। मंसाराम अर्धचेतना की दशा में था, चौककर बोला, क्या है? कोन है?
मुंशीजी-कोई नहीं है बेटा, मैं तुम्हें घर ले चलना चाहता हूं, आओ, गोद में उठा लूं।
मंसाराम- मुझे क्यों घर ले चलते हैं? मैं वहां नहीं जाऊंगा।
मुंशीजी- यहां तो रह नहीं सकत, नियम ही ऐसा है।
मंसाराम- कुछ भी हो, वहां न जाऊंगा। मुझे और कहीं ले चलिए, किसी पेड़ के नीचे, किसी झोंपड़े में, जहां चाहे रखिए, पर घर पर न ले चलिए।
अध्यक्ष ने मुंशीजी से कहा-आप इन बातों का ख्याल न करें, यह तो होश में नहीं है।
मंसाराम- कौन होश में नहीं है? मैं होश में नहीं हूं? किसी को गालियां देता हू? दांत काटता हूं? क्यों होश में नहीं हूं? मुझे यहीं पड़ा रहने दीजिए, जो कुछ होना होगा, अगरन ऐसा है, तो मुझे अस्पताल ले चलिए, मैं वहां पड़ा रहूंगा। जीना होगा, जीऊगा, मरना होगा मरुंगा, लेकिन घर किसी तरह भी न जाऊंगा।
यह जोर पाकर मुंशीजी फिरा अध्यक्ष की मिन्नतें करने लगे, लेकिन वह कायदे का पाबंदी आदमी कुछ सुनता ही न था। अगर छूत की बीमारी हुई और किसी दूसरे लड़के को छूत लग गयी, तो कौन उसका जवाबदेह होगा। इस तर्क के सामने मुंशीजी की कानूनी दलीलें भी मात हो गयीं।
आखिर मुंशीजी ने मंसाराम से कहा-बेटा, तुम्हें घर चलने से क्यों इंकार हो रहा है? वहां तो सभी तरह का आराम रहेगा। मुंशीजी ने कहने को तो यह बात कह दी, लेकिन डर रहे थे कि कहीं सचमुच मंसाराम च लने पर राजी न हो जाएे। मंसाराम को अस्पताल में रखने का कोई बहाना खोज रहे थे और उसकी जिम्मेदारी मंसाराम ही के सिर डालना चाहते थे। यह अध्यक्ष के सामने की बात थी, वह इस बात की साक्षी दे सकते थे कि मंसाराम अपनी जिद से अस्पताल जा रहा है। मुंशीजी का इसमे लेशमात्र भी दोष नहीं है।
मंसाराम ने झल्लाकर हा-नहीं, नहीं सौ बार नहीं, मैं घ नहीं जाऊंगा। मुझे अस्पताल ले चलिए और घर के सब आदमियों को मना कर दीजिए कि मुझे देखने न आये। मुझे कुछ नहीं हुआ है, बिल्कुल बीमार नहीं हू। आप मुझे छोड़ दीजिए, मैं अपने पांव से चल सकता हूं।
वह उठ खड़ा हुआ और उन्मत्त की भांति द्वार की ओर चला, लेकिन पैर लड़खडा गये। यदि मुंशीजी ने संभाल न लिया होता, तो उसे बड़ी चोट आती। दोनों नौकरों की मदद से मुंशीजी उसे बग्घी के पास लाये और अंदर बैठा दिया।
गाड़ी अस्पताल की ओर चली। वही हुआ जो मुंशीजी चाहते थे। इस शोक में भी उनका चित्त संतुष्ट था। लड़का अपनी इच्छा से अस्पताल जा रहा था क्या यह इस बात का प्रमाण नहीं था कि घर में इसे कोई स्नेह नहीं है? क्या इससे यह सिद्ध नहीं होता कि मंसाराम निर्दोष है ? वह उसक पर अकारण ही भ्रम कर रहे थे।
लेकिन जरा ही देर में इस तुष्टि की जगह उनके मन में ग्लानि का भाव जाग्रत हुआ। वह अपने प्राण-प्रिय पुत्र को घर न ले जाकर अस्पताल लिये जा रहे थे। उनके विशाल भवन में उनके पुत्र के लिए जगह न थी, इस दशा में भी जबकि उसकी जीवल संकट में पड़ा हुआ था। कितनी विडम्बना है!
एक क्षण के बाद एकाएक मुंशीजी के मन में प्रश्न उठा-कहीं मंसाराम उनके भावों को ताड़ तो नहीं गया? इसीलिए तो उसे घर से घृणा नहीं हो गेयी है? अगर ऐसा है, तो गजब हो जाएेगा।
उस अनर्थ की कल्पना ही से मुंशीजी के रोंए खड़े हो गये और कलेजा धक्धक करने लगा। हृदय में एक धक्का-सा लगा। अगर इस ज्वर का यही कारण है, तो ईश्वर ही मालिक है। इस समय उनकी दशा अत्यन्त दयनीय थी। वह आग जो उन्होंने अपने ठिठुरे हुए हाथों को सेंकने के लिए जलाई थी, अब उनके घर में लगी जा रही थी। इस करुणा, शोक, पश्चात्ताप और शंका से उनका चित्त घबरा उठा। उनके गुप्त रोदन की ध्वनि बाहर निकल सकती, तो सुनने वाले रो पड़ते। उनके आंसू बाहर निकल सकते, तो उनका तार बंध जाता। उन्होंने पुत्र के वर्ण-हीन मुख की ओर एक वात्सल्यूपर्ण नेत्रों से देखा, वेदना से विकल होकर उसे छाती से लगा लिया और इतना रोये कि हिचकी बंच गयी।
सामने अस्पताल का फाटक दिखाई दे रहा था।

शंखनाद / प्रेमचंद / Premchand

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