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Monday, 27 March 2017

कौशल / प्रेमचंद / Premchand

कौशल / प्रेमचंद / Premchand

कौशल / प्रेमचंद / Premchand
पंडित बालकराम शास्त्री की धर्मपत्नी माया को बहुत दिनों से एक हार की लालसा थी और वह सैकड़ों ही बार पंडितजी से उसके लिए आग्रह कर चुकी थीं, किन्तु पंडितजी हीला-हवाला करते रहते थे । यह तो साफ़-साफ़ न कहते थे कि मेरे पास रूपये नहीं हैं—इससे उनके पराक्रम में बट्टा लगता था—तर्कनाओं की शरण लिया करते थे । गहनों से कुछ लाभ नहीं, एक तो धातु अच्छी नहीं मिलती, उस पर सोनार रुपऐ के आठ-आठ आने कर देता है, और सबसे बड़ी बात यह कि घर में गहने रखना चोरों को नेवता देना है । घड़ी-भर के श्रृगांर के लिए इतनी विपत्ति सिर पर लेना मूर्खों का काम है । बेचारी माया तर्क–शास्त्र न पढ़ी थी, इन युक्तियों के सामने निरूत्तर हो जाती थी । पड़ोसिनों को देख-देखकर उसका जी ललचा करता था, पर दुःख किससे कहे ? यदि पंडितजी ज्यादा मेहनत करने के योग्य होते तो यह मुश्किल आसान हो जाती । पर वे आलसी जीव थे, अधिकांश समय भोजन और विश्राम में व्यतीत किया करते थे । पत्नीजी की कटूक्तियाँ सुननी मंजूर थीं, लेकिन निद्रा की मात्रा में कमी न कर सकते थे।
एक दिन पंडितजी पाठशाला से आये तो देखा कि माया के गले में सोने का हार विराज रहा है। हार की चमक से उसकी मुख-ज्योति चमक उठी थी। उन्होंने उसे कभी इतनी सुन्दर न समझा था। पूछा –यह हार किसका है?
माया बोली—पड़ोस में जो बाबूजी रहते हैं, उन्हीं की स्त्री का है। आज उनसे मिलने गयी थी, यह हार देखा , बहुत पसंद आया। तुम्हें दिखाने के लिए पहन कर चली आई। बस, ऐसा ही एक हार मुझे बनवा दो। 
पंडित—दूसरे की चीज नाहक माँग लायीं। कहीं चोरी हो जाए तो हार तो बनवाना ही पड़े, उपर से बदनामी भी हो। 
माया—मैं तो ऐसा ही हार लूगी। 20 तोले का है।
पंडित—फिर वही जिद। 
माया—जब सभी पहनती हैं, तो मै ही क्यों न पहनूं?
पंडित—सब कुएं में गिर पड़ें तो तुम भी कुएं में गिर पड़ोगी। सोचो तो, इस वक्त इस हार के बनवाने में 600 रुपये लगेंगे। अगर 1 रु० प्रति सैकड़ा ब्याज रख लिया जाए तो 5 वर्ष मे 600 रू० के लगभग 1000 रु० हो जायेगें। लेकिन 5 वर्ष में तुम्हारा हार मुश्किल से 300 रू० का रह जायेगा। इतना बड़ा नुकसान उठाकर हार पहनने से क्या सुख? यह हार वापस कर दो , भोजन करो और आराम से पड़ी रहो। यह कहते हुए पंडितजी बाहर चले गये।
रात को एकाएक माया ने शोर मचाकर कहा –चोर, चोर, हाय, घर में चोर , मुझे घसीटे लिए जाते हैं।
पंडितजी हकबका कर उठे और बोले-कहाँ, कहाँ? दौड़ो,दौड़ो।
माया—मेरी कोठारी में गया है। मैनें उसकी परछाईं देखी । 
पंडित—लालटेन लाओ, जरा मेरी लकड़ी उठा लेना। 
माया—मुझसे तो डर के उठा नहीं जाता।
कई आदमी बाहर से बोले—कहाँ है पंडितजी, कोई सेंध पड़ी है क्या?
माया—नहीं, नहीं, खपरैल पर से उतरे हैं। मेरी नींद खुली तो कोई मेरे ऊपर झुका हुआ था। हाय राम! यह तो हार ही ले गया! पहने-पहने सो गई थी ! मुए ने गले से निकाल लिया । हाय भगवान !
पंडित—तुमने हार उतार क्यों न दिया था?
माया-मै क्या जानती थी कि आज ही यह मुसीबत सिर पड़नेवाली है, हाय भगवान् !
पंडित—अब हाय-हाय करने से क्या होगा? अपने कर्मों को रोओ। इसीलिए कहा करता था कि सब घड़ी बराबर नहीं जाती, न जाने कब क्या हो जाए। अब आयी समझ में मेरी बात, देखो, और कुछ तो न ले गया? 
पड़ोसी लालटेन लिए आ पहुंचे। घर में कोना-कोना देखा। करियाँ देखीं, छत पर चढ़कर देखा, अगवाड़े-पिछवाड़े देखा, शौच गृह में झाँका, कहीं चोर का पता न था।
एक पड़ोसी—किसी जानकार आदमी का काम है।
दूसरा पड़ोसी—बिना घर के भेदिये के कभी चोरी होती ही नहीं। और कुछ तो नहीं ले गया?
माया—और तो कुछ नहीं गया। बरतन सब पड़े हुए हैं। सन्दूक भी बन्द पड़े है। निगोड़े को ले ही जाना था तो मेरी चीज़ें ले जाता । परायी चीज़ ठहरी। भगवान् उन्हें कौन मुँह दिखाऊँगी।
पंडित—अब गहने का मजा मिल गया न?
माया—हाय, भगवान्, यह अपजस बदा था।
पंडित—कितना समझा के हार गया, तुम न मानीं, न मानीं। बात की बात में 600 रू० निकल गए, अब देखूँ भगवान कैसे लाज रखते हैं। 
माया—अभागे मेरे घर का एक-एक तिनका चुन ले जाते तो मुझे इतना दु:ख न होता। अभी बेचारी ने नया ही बनावाया था।
पंडित—खूब मालूम है, 20 तोले का था?
माया—20 ही तोले को तो कहती थी? 
पंडित—बधिया बैठ गई, और क्या?
माया—कह दूँगी घर में चोरी हो गयी। क्या जान लेंगी? अब उनके लिए कोई चोरी थोड़े ही करने जायेगा।
पंडित तुम्हारे घर से चीज गयी, तुम्हें देनी पड़ेगी। उन्हें इससे क्या प्रयोजन कि चोर ले गया या तुमने उठाकर रख लिया। पतियाएँगी ही नहीं। 
माया–तो इतने रूपये कहाँ से आएँगे? 
पंडित—कहीं न कहीं से तो आएँगे ही,नहीं तो लाज कैसे रहेगी, मगर की तुमने बड़ी भूल ।
माया—भगवान् से मँगनी की चीज भी न देखी गयी। मुझे काल ने घेरा था, नहीं तो इस घड़ी भर गले में डाल लेने से ऐसा कौन-सा बड़ा सुख मिल गया? मै हूँ ही अभागिनी।
पंडित—अब पछताने और अपने को कोसने से क्या फायदा? चुप हो के बैठो, पड़ेसिन से कह देना, घबराओ नहीं, तुम्हारी चीज़ जब तक लौटा न देंगें, तब तक हमें चैन न आयेगा।


पंडित बालकराम को अब नित्य यही चिंता रहने लगी कि किसी तरह हार बने। यों अगर टाट उलट देते तो कोई बात न थी । पड़ोसिन को सन्तोष ही करना पड़ता, ब्राह्मण से डाँड कौन लेता , किन्तु पंडितजी ब्राह्मणत्व के गौरव को इतने सस्ते दामों न बेचना चाहते थे। आलस्य छोड़कर धनोपार्जन में दत्तचित्त हो गये।
छ: महीने तक उन्होंने दिन को दिन और रात को रात नहीं जाना। दोपहर को सोना छोड़ दिया, रात को भी बहुत देर तक जागते। पहले केवल एक पाठशाला में पढ़ाया करते थे। इसके सिवा वह ब्राह्मण के लिए खुले हुए एक सौ एक व्यवसायों में सभी को निंदनिय समझते थे। अब पाठशाला से आकर संध्या समय एक जगह ‘भगवत् की कथा' कहने जाते, वहाँ से लौट कर 11-12बजे रात तक जन्म कुण्डलियाँ, वर्ष-फल आदि बनाया करते। प्रात:काल मन्दिर में ‘दुर्गा जी का पाठ' करते । माया पंडितजी का अध्यवसाय देखकर कभी-कभी पछताती कि कहाँ-से-कहाँ मैंने यह विपत्ति सिर पर ली । कहीं बीमार पड जायें तो लेने के देने पड़ें । उनका शरीर क्षीण होते देखकर उसे अब यह चिनता व्यथित करने लगी। यहाँ तक कि पाँच महीने गुज़र गए।
एक दिन संध्या समय वह दिया-बत्ती करने जा रही थी कि पंडितजी आये, जेब से पुड़िया निकाल कर उसके सामने फेंक दी और बोले—लो, आज तुम्हारे ऋण से मुक्त हो गया।
माया ने पुड़िया खोली, तो उसमें सोने का हार था, उसकी चमक-दमक, उसकी सुन्दर बनावट देखकर उसके अन्त:स्थल में गुदगदी –सी होने लगी । मुख पर आन्नद की आभा दौड़ गई। उसने कातर नेत्रों से देखकर पूछा—खुश होकर दे रहे हो या नाराज होकर ?
पंडित--इससे क्या मतलब ? ऋण तो चुकाना ही पड़ेगा, चाहे खुशी से हो या नाखुशी से।
माया--यह ऋण नहीं है।
पंडित--और क्या है ?
माया--बदला भी नहीं है।
पंडित--फिर क्या है ?
माया--तुम्हारी … निशानी?
पंडित--तो क्या ऋण के लिए कोई दूसरा हार बनवाना पड़ेगा?
माया--नहीं-नहीं, वह हार चारी नहीं गया था। मैनें झूठ-मूठ शोर मचाया था।
पंडित--सच?
माया--हां, सच कहती हूँ।
पंडित--मेरी कसम?
माया--तुम्हारे चरण छूकर कहती हूँ। 
पंडित--तो तमने मुझसे कौशल किया था?
माया-- हाँ ।
पंडित--तुम्हे मालूम है, तुम्हारे कौशल का मुझे क्या मूल्य देना पड़ा ?
माया--600 रु० से ऊपर ?
पंडित--बहुत ऊपर ! इसके लिए मुझे अपने आत्मस्वातंत्रय को बलिदान करना पड़ा ।

शंखनाद / प्रेमचंद / Premchand

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