गोदान प्रेमचंद उपन्यास / Godan Premchand Novel / अध्याय-1
होरीराम ने दोनों बैलों को सानी-पानी दे कर अपनी स्त्री धनिया से कहा - गोबर को ऊख गोड़ने भेज देना। मैं न जाने कब लौटूँ। जरा मेरी लाठी दे दे।
धनिया के दोनों हाथ गोबर से भरे थे। उपले पाथ कर आई थी। बोली - अरे, कुछ रस-पानी तो कर लो। ऐसी जल्दी क्या है?
होरी ने अपने झुर्रियों से भरे हुए माथे को सिकोड़ कर कहा - तुझे रस-पानी की पड़ी है, मुझे यह चिंता है कि अबेर हो गई तो मालिक से भेंट न होगी। असनान-पूजा करने लगेंगे, तो घंटों बैठे बीत जायगा।
'इसी से तो कहती हूँ, कुछ जलपान कर लो और आज न जाओगे तो कौन हरज होगा! अभी तो परसों गए थे।'
'तू जो बात नहीं समझती, उसमें टाँग क्यों अड़ाती है भाई! मेरी लाठी दे दे और अपना काम देख। यह इसी मिलते-जुलते रहने का परसाद है कि अब तक जान बची हुई है, नहीं कहीं पता न लगता कि किधर गए। गाँव में इतने आदमी तो हैं, किस पर बेदखली नहीं आई, किस पर कुड़की नहीं आई। जब दूसरे के पाँवों-तले अपनी गर्दन दबी हुई है, तो उन पाँवों को सहलाने में ही कुसल है।'
धनिया इतनी व्यवहार-कुशल न थी। उसका विचार था कि हमने जमींदार के खेत जोते हैं, तो वह अपना लगान ही तो लेगा। उसकी खुशामद क्यों करें, उसके तलवे क्यों सहलाएँ। यद्यपि अपने विवाहित जीवन के इन बीस बरसों में उसे अच्छी तरह अनुभव हो गया था कि चाहे कितनी ही कतर-ब्योंत करो, कितना ही पेट-तन काटो, चाहे एक-एक कौड़ी को दाँत से पकड़ो; मगर लगान का बेबाक होना मुश्किल है। फिर भी वह हार न मानती थी, और इस विषय पर स्त्री-पुरुष में आए दिन संग्राम छिड़ा रहता था। उसकी छ: संतानों में अब केवल तीन जिंदा हैं, एक लड़का गोबर कोई सोलह साल का, और दो लड़कियाँ सोना और रूपा, बारह और आठ साल की। तीन लड़के बचपन ही में मर गए। उसका मन आज भी कहता था, अगर उनकी दवा-दवाई होती तो वे बच जाते; पर वह एक धेले की दवा भी न मँगवा सकी थी। उसकी ही उम्र अभी क्या थी। छत्तीसवाँ ही साल तो था; पर सारे बाल पक गए थे, चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ गई थीं। सारी देह ढल गई थी, वह सुंदर गेहुँआँ रंग सँवला गया था, और आँखों से भी कम सूझने लगा था। पेट की चिंता ही के कारण तो। कभी तो जीवन का सुख न मिला। इस चिरस्थायी जीर्णावस्था ने उसके आत्मसम्मान को उदासीनता का रूप दे दिया था। जिस गृहस्थी में पेट की रोटियाँ भी न मिलें, उसके लिए इतनी खुशामद क्यों? इस परिस्थिति से उसका मन बराबर विद्रोह किया करता था, और दो-चार घुड़कियाँ खा लेने पर ही उसे यथार्थ का ज्ञान होता था।
उसने परास्त हो कर होरी की लाठी, मिरजई, जूते, पगड़ी और तमाखू का बटुआ ला कर सामने पटक दिए।
होरी ने उसकी ओर आँखें तरेर कर कहा - क्या ससुराल जाना है, जो पाँचों पोसाक लाई है? ससुराल में भी तो कोई जवान साली-सलहज नहीं बैठी है, जिसे जा कर दिखाऊँ।
होरी के गहरे साँवले, पिचके हुए चेहरे पर मुस्कराहट की मृदुता झलक पड़ी। धनिया ने लजाते हुए कहा - ऐसे ही बड़े सजीले जवान हो कि साली-सलहजें तुम्हें देख कर रीझ जाएँगी।
होरी ने फटी हुई मिरजई को बड़ी सावधानी से तह करके खाट पर रखते हुए कहा - तो क्या तू समझती है, मैं बूढ़ा हो गया? अभी तो चालीस भी नहीं हुए। मर्द साठे पर पाठे होते हैं।
'जा कर सीसे में मुँह देखो। तुम-जैसे मर्द साठे पर पाठे नहीं होते। दूध-घी अंजन लगाने तक को तो मिलता नहीं, पाठे होंगे। तुम्हारी दसा देख-देख कर तो मैं और भी सूखी जाती हूँ कि भगवान यह बुढ़ापा कैसे कटेगा? किसके द्वार पर भीख माँगेंगे?'
होरी की वह क्षणिक मृदुता यथार्थ की इस आँच में झुलस गई। लकड़ी सँभलता हुआ बोला - साठे तक पहुँचने की नौबत न आने पाएगी धनिया, इसके पहले ही चल देंगे।
धनिया ने तिरस्कार किया - अच्छा रहने दो, मत असुभ मुँह से निकालो। तुमसे कोई अच्छी बात भी कहे, तो लगते हो कोसने।
होरी कंधों पर लाठी रख कर घर से निकला, तो धनिया द्वार पर खड़ी उसे देर तक देखती रही। उसके इन निराशा-भरे शब्दों ने धनिया के चोट खाए हुए हृदय में आतंकमय कंपन-सा डाल दिया था। वह जैसे अपने नारीत्व के संपूर्ण तप और व्रत से अपने पति को अभय-दान दे रही थी। उसके अंत:करण से जैसे आशीर्वादों का व्यूह-सा निकल कर होरी को अपने अंदर छिपाए लेता था। विपन्नता के इस अथाह सागर में सोहाग ही वह तृण था, जिसे पकड़े हुए वह सागर को पार कर रही थी। इन असंगत शब्दों ने यथार्थ के निकट होने पर भी, मानो झटका दे कर उसके हाथ से वह तिनके का सहारा छीन लेना चाहा। बल्कि यथार्थ के निकट होने के कारण ही उनमें इतनी वेदना-शक्ति आ गई थी। काना कहने से काने को जो दु:ख होता है, वह क्या दो आँखों वाले आदमी को हो सकता है?
होरी कदम बढ़ाए चला जाता था। पगडंडी के दोनों ओर ऊख के पौधों की लहराती हुई हरियाली देख कर उसने मन में कहा - भगवान कहीं गौं से बरखा कर दे और डाँड़ी भी सुभीते से रहे, तो एक गाय जरूर लेगा। देसी गाएँ तो न दूध दें, न उनके बछवे ही किसी काम के हों। बहुत हुआ तो तेली के कोल्हू में चले। नहीं, वह पछाईं गाय लेगा। उसकी खूब सेवा करेगा। कुछ नहीं तो चार-पाँच सेर दूध होगा? गोबर दूध के लिए तरस-तरस रह जाता है। इस उमिर में न खाया-पिया, तो फिर कब खाएगा? साल-भर भी दूध पी ले, तो देखने लायक हो जाए। बछवे भी अच्छे बैल निकलेंगे। दो सौ से कम की गोंई न होगी। फिर गऊ से ही तो द्वार की सोभा है। सबेरे-सबेरे गऊ के दर्सन हो जायँ तो क्या कहना! न जाने कब यह साध पूरी होगी, कब वह सुभ दिन आएगा!
हर एक गृहस्थ की भाँति होरी के मन में भी गऊ की लालसा चिरकाल से संचित चली आती थी। यही उसके जीवन का सबसे बड़ा स्वप्न, सबसे बड़ी साध थी। बैंक के सूद से चैन करने या जमीन खरीदने या महल बनवाने की विशाल आकांक्षाएँ उसके नन्हें-से हृदय में कैसे समातीं !
जेठ का सूर्य आमों के झुरमुट से निकल कर आकाश पर छाई हुई लालिमा को अपने रजत-प्रताप से तेज प्रदान करता हुआ ऊपर चढ़ रहा था और हवा में गरमी आने लगी थी। दोनों ओर खेतों में काम करने वाले किसान उसे देख कर राम-राम करते और सम्मान-भाव से चिलम पीने का निमंत्रण देते थे; पर होरी को इतना अवकाश कहाँ था? उसके अंदर बैठी हुई सम्मान-लालसा ऐसा आदर पा कर उसके सूखे मुख पर गर्व की झलक पैदा कर रही थी। मालिकों से मिलते-जुलते रहने ही का तो यह प्रसाद है कि सब उसका आदर करते हैं, नहीं उसे कौन पूछता- पाँच बीघे के किसान की बिसात ही क्या? यह कम आदर नहीं है कि तीन-तीन, चार-चार हल वाले महतो भी उसके सामने सिर झुकाते हैं।
अब वह खेतों के बीच की पगडंडी छोड़ कर एक खलेटी में आ गया था, जहाँ बरसात में पानी भर जाने के कारण तरी रहती थी और जेठ में कुछ हरियाली नजर आती थी। आस-पास के गाँवों की गउएँ यहाँ चरने आया करती थीं। उस उमस में भी यहाँ की हवा में कुछ ताजगी और ठंडक थी। होरी ने दो-तीन साँसें जोर से लीं। उसके जी में आया, कुछ देर यहीं बैठ जाए। दिन-भर तो लू-लपट में मरना है ही। कई किसान इस गड्ढे का पट्टा लिखाने को तैयार थे। अच्छी रकम देते थे; पर ईश्वर भला करे रायसाहब का कि उन्होंने साफ कह दिया, यह जमीन जानवरों की चराई के लिए छोड़ दी गई है और किसी दाम पर भी न उठाई जायगी। कोई स्वार्थी जमींदार होता, तो कहता गाएँ जायँ भाड़ में, हमें रुपए मिलते हैं, क्यों छोड़ें; पर रायसाहब अभी तक पुरानी मर्यादा निभाते आते हैं। जो मालिक प्रजा को न पाले, वह भी कोई आदमी है?
सहसा उसने देखा, भोला अपनी गाय लिए इसी तरफ चला आ रहा है। भोला इसी गाँव से मिले हुए पुरवे का ग्वाला था और दूध-मक्खन का व्यवसाय करता था। अच्छा दाम मिल जाने पर कभी-कभी किसानों के हाथ गाएँ बेच भी देता था। होरी का मन उन गायों को देख कर ललचा गया। अगर भोला वह आगे वाली गाय उसे दे तो क्या कहना! रुपए आगे-पीछे देता रहेगा। वह जानता था, घर में रुपए नहीं हैं। अभी तक लगान नहीं चुकाया जा सका; बिसेसर साह का देना भी बाकी है, जिस पर आने रुपए का सूद चढ़ रहा है, लेकिन दरिद्रता में जो एक प्रकार की अदूरदर्शिता होती है, वह निर्लज्जता जो तकाजे, गाली और मार से भी भयभीत नहीं होती, उसने उसे प्रोत्साहित किया। बरसों से जो साध मन को आंदोलित कर रही थी, उसने उसे विचलित कर दिया। भोला के समीप जा कर बोला - राम-राम भोला भाई, कहो क्या रंग-ढंग हैं? सुना अबकी मेले से नई गाएँ लाए हो?
भोला ने रूखाई से जवाब दिया। होरी के मन की बात उसने ताड़ ली थी - हाँ, दो बछिएँ और दो गाएँ लाया। पहलेवाली गाएँ सब सूख गई थी। बँधी पर दूध न पहुँचे तो गुजर कैसे हो?
होरी ने आगे वाली गाय के पुट्टे पर हाथ रख कर कहा - दुधार तो मालूम होती है। कितने में ली?
भोला ने शान जमाई - अबकी बाजार तेज रहा महतो, इसके अस्सी रुपए देने पड़े। आँखें निकल गईं। तीस-तीस रुपए तो दोनों कलोरों के दिए। तिस पर गाहक रुपए का आठ सेर दूध माँगता है।
'बड़ा भारी कलेजा है तुम लोगों का भाई, लेकिन फिर लाए भी तो वह माल कि यहाँ दस-पाँच गाँवों में तो किसी के पास निकलेगी नहीं।'
भोला पर नशा चढ़ने लगा। बोला - रायसाहब इसके सौ रुपए देते थे। दोनों कलोरों के पचास-पचास रुपए, लेकिन हमने न दिए। भगवान ने चाहा तो सौ रुपए इसी ब्यान में पीट लूँगा।
'इसमें क्या संदेह है भाई। मालिक क्या खा के लेंगे? नजराने में मिल जाय, तो भले ले लें। यह तुम्हीं लोगों का गुर्दा है कि अंजुली-भर रुपए तकदीर के भरोसे गिन देते हो। यही जी चाहता है कि इसके दरसन करता रहूँ। धन्य है तुम्हारा जीवन कि गऊओं की इतनी सेवा करते हो! हमें तो गाय का गोबर भी मयस्सर नहीं। गिरस्त के घर में एक गाय भी न हो, तो कितनी लज्जा की बात है। साल-के-साल बीत जाते हैं, गोरस के दरसन नहीं होते। घरवाली बार-बार कहती है, भोला भैया से क्यों नहीं कहते? मैं कह देता हूँ, कभी मिलेंगे तो कहूँगा। तुम्हारे सुभाव से बड़ी परसन रहती है। कहती है, ऐसा मर्द ही नहीं देखा कि जब बातें करेंगे, नीची आँखें करके कभी सिर नहीं उठाते।'
भोला पर जो नशा चढ़ रहा था, उसे इस भरपूर प्याले ने और गहरा कर दिया। बोला - आदमी वही है, जो दूसरों की बहू-बेटी को अपनी बहू-बेटी समझे। जो दुष्ट किसी मेहरिया की ओर ताके, उसे गोली मार देना चाहिए।
'यह तुमने लाख रुपए की बात कह दी भाई! बस सज्जन वही, जो दूसरों की आबरू समझे।'
'जिस तरह मर्द के मर जाने से औरत अनाथ हो जाती है, उसी तरह औरत के मर जाने से मर्द के हाथ-पाँव टूट जाते हैं। मेरा तो घर उजड़ गया महतो, कोई एक लोटा पानी देने वाला भी नहीं।'
गत वर्ष भोला की स्त्री लू लग जाने से मर गई थी। यह होरी जानता था, लेकिन पचास बरस का खंखड़ भोला भीतर से इतना स्निग्ध है, वह न जानता था। स्त्री की लालसा उसकी आँखों में सजल हो गई थी। होरी को आसन मिल गया। उसकी व्यावहारिक कृषक-बुद्धि सजग हो गई।
'पुरानी मसल झूठी थोड़े है - बिन घरनी घर भूत का डेरा। कहीं सगाई क्यों नहीं ठीक कर लेते?'
'ताक में हूँ महतो, पर कोई जल्दी फँसता नहीं। सौ-पचास खरच करने को भी तैयार हूँ। जैसी भगवान की इच्छा।'
'अब मैं भी फिराक में रहूँगा। भगवान चाहेंगे, तो जल्दी घर बस जायगा।'
'बस, यही समझ लो कि उबर जाऊँगा भैया! घर में खाने को भगवान का दिया बहुत है। चार पसेरी रोज दूध हो जाता है, लेकिन किस काम का?'
'मेरे ससुराल में एक मेहरिया है। तीन-चार साल हुए, उसका आदमी उसे छोड़ कर कलकत्ते चला गया। बेचारी पिसाई करके गुजारा कर रही है। बाल-बच्चा भी कोई नहीं। देखने-सुनने में अच्छी है। बस, लच्छमी समझ लो।'
भोला का सिकुड़ा हुआ चेहरा जैसे चिकना गया। आशा में कितनी सुधा है! बोला - अब तो तुम्हारा ही आसरा है महतो! छुट्टी हो, तो चलो एक दिन देख आएँ।
'मैं ठीक-ठाक करके तब तुमसे कहूँगा। बहुत उतावली करने से भी काम बिगड़ जाता है।'
'जब तुम्हारी इच्छा हो तब चलो। उतावली काहे की - इस कबरी पर मन ललचाया हो, तो ले लो।'
'यह गाय मेरे मान की नहीं है दादा। मैं तुम्हें नुकसान नहीं पहुँचाना चाहता। अपना धरम यह नहीं है कि मित्रों का गला दबाएँ। जैसे इतने दिन बीते हैं, वैसे और भी बीत जाएँगे।'
'तुम तो ऐसी बातें करते हो होरी, जैसे हम-तुम दो हैं। तुम गाय ले जाओ, दाम जो चाहे देना। जैसे मेरे घर रही, वैसे तुम्हारे घर रही। अस्सी रुपए में ली थी, तुम अस्सी रुपए ही देना देना। जाओ।'
'लेकिन मेरे पास नगद नहीं है दादा, समझ लो।'
'तो तुमसे नगद माँगता कौन है भाई?'
होरी की छाती गज-भर की हो गई। अस्सी रुपए में गाय महँगी न थी। ऐसा अच्छा डील-डौल, दोनों जून में छ:-सात सेर दूध, सीधी ऐसी कि बच्चा भी दुह ले। इसका तो एक-एक बाछा सौ-सौ का होगा। द्वार पर बँधेगी तो द्वार की सोभा बढ़ जायगी। उसे अभी कोई चार सौ रुपए देने थे; लेकिन उधार को वह एक तरह से मुफ्त समझता था। कहीं भोला की सगाई ठीक हो गई, तो साल-दो साल तो वह बोलेगा भी नहीं। सगाई न भी हुई, तो होरी का क्या बिगड़ता है! यही तो होगा, भोला बार-बार तगादा करने आएगा, बिगड़ेगा, गालियाँ देगा; लेकिन होरी को इसकी ज्यादा शर्म न थी। इस व्यवहार का वह आदी था। कृषक के जीवन का तो यह प्रसाद है। भोला के साथ वह छल कर रहा था और यह व्यापार उसकी मर्यादा के अनुकूल न था। अब भी लेन-देन में उसके लिए लिखा-पढ़ी होने और न होने में कोई अंतर न था। सूखे-बूड़े की विपदाएँ उसके मन को भीरु बनाए रहती थीं। ईश्वर का रुद्र रूप सदैव उसके सामने रहता था; पर यह छल उसकी नीति में छल न था। यह केवल स्वार्थ-सिद्धि थी और यह कोई बुरी बात न थी। इस तरह का छल तो वह दिन-रात करता रहता था। घर में दो-चार रुपए पड़े रहने पर भी महाजन के सामने कसमें खा जाता था कि एक पाई भी नहीं है। सन को कुछ गीला कर देना और रूई में कुछ बिनौले भर देना उसकी नीति में जायज था और यहाँ तो केवल स्वार्थ न था, थोड़ा-सा मनोरंजन भी था। बुड्ढों का बुढ़भस हास्यास्पद वस्तु है और ऐसे बुड्ढों से अगर कुछ ऐंठ भी लिया जाय, तो कोई दोष-पाप नहीं।
भोला ने गाय की पगहिया होरी के हाथ में देते हुए कहा - ले जाओ महतो, तुम भी क्या याद करोगे। ब्याते ही छ: सेर दूध लेना। चलो, मैं तुम्हारे घर तक पहुँचा दूँ। साइत तुम्हें अनजान समझ कर रास्ते में कुछ दिक करे। अब तुमसे सच कहता हूँ, मालिक नब्बे रुपए देते थे, पर उनके यहाँ गऊओें की क्या कदर। मुझसे ले कर किसी हाकिम-हुक्काम को दे देते। हाकिमों को गऊ की सेवा से मतलब? वह तो खून चूसना-भर जानते हैं। जब तक दूध देती, रखते, फिर किसी के हाथ बेच देते। किसके पल्ले पड़ती, कौन जाने। रूपया ही सब कुछ नहीं है भैया, कुछ अपना धरम भी तो है। तुम्हारे घर आराम से रहेगी तो। यह न होगा कि तुम आप खा कर सो रहो और गऊ भूखी खड़ी रहे। उसकी सेवा करोगे, प्यार करोगे, चुमकारोगे। गऊ हमें आसिरवाद देगी। तुमसे क्या कहूँ भैया, घर में चंगुल-भर भी भूसा नहीं रहा। रुपए सब बाजार में निकल गए। सोचा था, महाजन से कुछ ले कर भूसा ले लेंगे; लेकिन महाजन का पहला ही नहीं चुका। उसने इनकार कर दिया। इतने जानवरों को क्या खिलाएँ, यही चिंता मारे डालती है। चुटकी-चुटकी भर खिलाऊँ, तो मन-भर रोज का खरच है। भगवान ही पार लगाएँ तो लगे।
होरी ने सहानुभूति के स्वर में कहा - तुमने हमसे पहले क्यों नहीं कहा - हमने एक गाड़ी भूसा बेच दिया।
भोला ने माथा ठोक कर कहा - इसीलिए नहीं कहा - भैया कि सबसे अपना दु:ख क्यों रोऊँ; बाँटता कोई नहीं, हँसते सब हैं। जो गाएँ सूख गई हैं, उनका गम नहीं, पत्ती-सत्ती खिला कर जिला लूँगा; लेकिन अब यह तो रातिब बिना नहीं रह सकती। हो सके, तो दस-बीस रुपए भूसे के लिए दे दो।
किसान पक्का स्वार्थी होता है, इसमें संदेह नहीं। उसकी गाँठ से रिश्वत के पैसे बड़ी मुश्किल से निकलते हैं, भाव-ताव में भी वह चौकस होता है, ब्याज की एक-एक पाई छुड़ाने के लिए वह महाजन की घंटों चिरौरी करता है, जब तक पक्का विश्वास न हो जाय, वह किसी के फुसलाने में नहीं आता, लेकिन उसका संपूर्ण जीवन प्रकृति से स्थायी सहयोग है। वृक्षों में फल लगते हैं, उन्हें जनता खाती है, खेती में अनाज होता है, वह संसार के काम आता है; गाय के थन में दूध होता है, वह खुद पीने नहीं जाती, दूसरे ही पीते हैं, मेघों से वर्षा होती है, उससे पृथ्वी तृप्त होती है। ऐसी संगति में कुत्सित स्वार्थ के लिए कहाँ स्थान? होरी किसान था और किसी के जलते हुए घर में हाथ सेंकना उसने सीखा ही न था।
भोला की संकट-कथा सुनते ही उसकी मनोवृत्ति बदल गई। पगहिया को भोला के हाथ में लौटाता हुआ बोला - रुपए तो दादा मेरे पास नहीं हैं। हाँ, थोड़ा-सा भूसा बचा है, वह तुम्हें दूँगा। चल कर उठवा लो। भूसे के लिए तुम गाय बेचोगे, और मैं लूँगा! मेरे हाथ न कट जाएँगे?
भोला ने आर्द्र कंठ से कहा - तुम्हारे बैल भूखों न मरेंगे। तुम्हारे पास भी ऐसा कौन-सा बहुत-सा भूसा रखा है।
'नहीं दादा, अबकी भूसा अच्छा हो गया था।'
'मैंने तुमसे नाहक भूसे की चर्चा की।'
'तुम न कहते और पीछे से मुझे मालूम होता, तो मुझे बड़ा रंज होता कि तुमने मुझे इतना गैर समझ लिया। अवसर पड़ने पर भाई की मदद भाई न करे, तो काम कैसे चले!'
'मुदा यह गाय तो लेते जाओ।'
'अभी नहीं दादा, फिर ले लूँगा।'
'तो भूसे के दाम दूध में कटवा लेना।'
होरी ने दु:खित स्वर में कहा - दाम-कौड़ी की इसमें कौन बात है दादा, मैं एक-दो जून तुम्हारे घर खा लूँ तो तुम मुझसे दाम माँगोगे?
'लेकिन तुम्हारे बैल भूखों मरेंगे कि नही?
'भगवान कोई-न-कोई सबील निकालेंगे ही। आसाढ़ सिर पर है। कड़वी बो लूँगा।'
'मगर यह गाय तुम्हारी हो गई। जिस दिन इच्छा हो, आ कर ले जाना।'
'किसी भाई का लिलाम पर चढ़ा हुआ बैल लेने में जो पाप है, वह इस समय तुम्हारी गाय लेने में है।'
होरी में बाल की खाल निकालने की शक्ति होती, तो वह खुशी से गाय ले कर घर की राह लेता। भोला जब नकद रुपए नहीं माँगता, तो स्पष्ट था कि वह भूसे के लिए गाय नहीं बेच रहा है, बल्कि इसका कुछ और आशय है; लेकिन जैसे पत्तों के खड़कने पर घोड़ा अकारण ही ठिठक जाता है और मारने पर भी आगे कदम नहीं उठाता, वही दशा होरी की थी। संकट की चीज लेना पाप है, यह बात जन्म-जन्मांतरों से उसकी आत्मा का अंश बन गई थी।
भोला ने गदगद कंठ से कहा - तो किसी को भेज दूँ भूसे के लिए?
होरी ने जवाब दिया - अभी मैं रायसाहब की ड्योढ़ी पर जा रहा हूँ। वहाँ से घड़ी-भर में लौटूँगा, तभी किसी को भेजना।
भोला की आँखों में आँसू भर आए। बोला - तुमने आज मुझे उबार लिया होरी भाई! मुझे अब मालूम हुआ कि मैं संसार में अकेला नहीं हूँ। मेरा भी कोई हितू है। एक क्षण के बाद उसने फिर कहा - उस बात को भूल न जाना।
होरी आगे बढ़ा, तो उसका चित्त प्रसन्न था। मन में एक विचित्र स्फूर्ति हो रही थी। क्या हुआ, दस-पाँच मन भूसा चला जायगा, बेचारे को संकट में पड़ कर अपनी गाय तो न बेचनी पड़ेगी। जब मेरे पास चारा हो जायगा तब गाय खोल लाऊँगा। भगवान करें, मुझे कोई मेहरिया मिल जाए। फिर तो कोई बात ही नहीं।
उसने पीछे फिर कर देखा। कबरी गाय पूँछ से मक्खियाँ उड़ाती, सिर हिलाती, मस्तानी, मंद-गति से झूमती चली जाती थी, जैसे बांदियों के बीच में कोई रानी हो। कैसा शुभ होगा वह दिन, जब यह कामधेनु उसके द्वार पर बँधेगी!
गोदान प्रेमचंद उपन्यास / Godan Premchand Novel / अध्याय-2
सेमरी और बेलारी दोनों अवध-प्रांत के गाँव हैं। जिले का नाम बताने की कोई जरूरत नहीं। होरी बेलारी में रहता है, रायसाहब अमरपाल सिंह सेमरी में। दोनों गाँवों में केवल पाँच मील का अंतर है। पिछले सत्याग्रह-संग्राम में रायसाहब ने बड़ा यश कमाया था। कौंसिल की मेंबरी छोड़ कर जेल चले गए थे। तब से उनके इलाके के असामियों को उनसे बड़ी श्रद्धा हो गई थी। यह नहीं कि उनके इलाके में असामियों के साथ कोई खास रियायत की जाती हो, या डाँड़ और बेगार की कड़ाई कुछ कम हो, मगर यह सारी बदनामी मुख्तारों के सिर जाती थी। रायसाहब की कीर्ति पर कोई कलंक न लग सकता था। वह बेचारे भी तो उसी व्यवस्था के गुलाम थे। जाब्ते का काम तो जैसे होता चला आया है, वैसा ही होगा। रायसाहब की सज्जनता उस पर कोई असर न डाल सकती थी, इसलिए आमदनी और अधिकार में जौ-भर की भी कमी न होने पर भी उनका यश मानो बढ़ गया था। असामियों से वह हँस कर बोल लेते थे। यही क्या कम है? सिंह का काम तो शिकार करना है; अगर वह गरजने और गुर्राने के बदले मीठी बोली बोल सकता, तो उसे घर बैठे मनमाना शिकार मिल जाता। शिकार की खोज में जंगल में न भटकना पड़ता।
रायसाहब राष्ट्रवादी होने पर भी हुक्काम से मेल-जोल बनाए रखते थे। उनकी नजरें और डालियाँ और कर्मचारियों की दस्तूरियाँ जैसी की तैसी चली आती थीं। साहित्य और संगीत के प्रेमी थे, ड्रामा के शौकीन, अच्छे वक्ता थे, अच्छे लेखक, अच्छे निशानेबाज। उनकी पत्नी को मरे आज दस साल हो चुके थे; मगर दूसरी शादी न की थी। हँस बोल कर अपने विधुर जीवन को बहलाते रहते थे।
होरी ड्योढ़ी पर पहुँचा तो देखा, जेठ के दशहरे के अवसर पर होने वाले धनुष-यज्ञ की बड़ी जोरों से तैयारियाँ हो रही हैं! कहीं रंग-मंच बन रहा था, कहीं मंडप, कहीं मेहमानों का आतिथ्य-गृह, कहीं दुकानदारों के लिए दूकानें। धूप तेज हो गई थी, पर रायसाहब खुद काम में लगे हुए थे। अपने पिता से संपत्ति के साथ-साथ उन्होंने राम की भक्ति भी पाई थी और धनुष-यज्ञ को नाटक का रूप दे कर उसे शिष्ट मनोरंजन का साधन बना दिया था। इस अवसर पर उनके यार-दोस्त, हाकिम-हुक्काम सभी निमंत्रित होते थे और दो-तीन दिन इलाके में बड़ी चहल-पहल रहती थी। रायसाहब का परिवार बहुत विशाल था। कोई डेढ़ सौ सरदार एक साथ भोजन करते थे। कई चचा थे। दरजनों चचेरे भाई, कई सगे भाई, बीसियों नाते के भाई। एक चचा साहब राधा के अनन्य उपासक थे और बराबर वृंदावन में रहते थे। भक्ति-रस के कितने ही कवित्त रच डाले थे और समय-समय पर उन्हें छपवा कर दोस्तों की भेंट कर देते थे। एक दूसरे चचा थे, जो राम के परम भक्त थे और फारसी-भाषा में रामायण का अनुवाद कर रहे थे। रियासत से सबक वजीफे बँधे हुए थे। किसी को कोई काम करने की जरूरत न थी।
होरी मंडप में खड़ा सोच रहा था कि अपने आने की सूचना कैसे दे कि सहसा रायसाहब उधर ही आ निकले और उसे देखते ही बोले - अरे! तू आ गया होरी, मैं तो तुझे बुलवाने वाला था। देख, अबकी तुझे राजा जनक का माली बनना पडेग़ा। समझ गया न, जिस वक्त श्री जानकी जी मंदिर में पूजा करने जाती हैं, उसी वक्त तू एक गुलदस्ता लिए खड़ा रहेगा और जानकी जी को भेंट करेगा, गलती न करना और देख, असामियों से ताकीद करके यह कह देना कि सब-के-सब शगुन करने आएँ। मेरे साथ कोठी में आ, तुझसे कुछ बातें करनी हैं।
वह आगे-आगे कोठी की ओर चले, होरी पीछे-पीछे चला। वहीं एक घने वृक्ष की छाया में एक कुर्सी पर बैठ गए और होरी को जमीन पर बैठने का इशारा करके बोले - समझ गया, मैंने क्या कहा - कारकुन को तो जो कुछ करना है, वह करेगा ही, लेकिन असामी जितने मन से असामी की बात सुनता है, कारकुन की नहीं सुनता। हमें इन्हीं पाँच-सात दिनों में बीस हजार का प्रबंध करना है। कैसे होगा, समझ में नहीं आता। तुम सोचते होगे, मुझ टके के आदमी से मालिक क्यों अपना दुखड़ा ले बैठे। किससे अपने मन की कहूँ? न जाने क्यों तुम्हारे ऊपर विश्वास होता है। इतना जानता हूँ कि तुम मन में मुझ पर हँसोगे नहीं। और हँसो भी, तो तुम्हारी हँसी मैं बर्दाशत कर सकता हूँ। नहीं सह सकता उनकी हँसी, जो अपने बराबर के हैं, क्योंकि उनकी हँसी में ईर्ष्या व्यंग और जलन है। और वे क्यों न हँसेंगे? मैं भी तो उनकी दुर्दशा और विपत्ति और पतन पर हँसता हूँ, दिल खोल कर, तालियाँ बजा कर। संपत्ति और सहृदयता में बैर है। हम भी दान देते हैं, धर्म करते हैं। लेकिन जानते हो, क्यों? केवल अपने बराबर वालों को नीचा दिखाने के लिए। हमारा दान और धर्म कोरा अहंकार है, विशुदध अहंकार। हममें से किसी पर डिगरी हो जाय, कुर्की आ जाय, बकाया मालगुजारी की इल्लत में हवालात हो जाय, किसी का जवान बेटा मर जाय, किसी की विधवा बहू निकल जाय, किसी के घर में आग लग जाय, कोई किसी वेश्या के हाथों उल्लू बन जाय, या अपने असामियों के हाथों पिट जाय, तो उसके और सभी भाई उस पर हँसेंगे, बगलें बजाएँगे, मानों सारे संसार की संपदा मिल गई है और मिलेंगे तो इतने प्रेम से, जैसे हमारे पसीने की जगह खून बहाने को तैयार हैं। अरे, और तो और, हमारे चचेरे, फुफुरे, ममेरे, मौसेरे भाई जो इसी रियासत की बदौलत मौज उड़ा रहे हैं, कविता कर रहे हैं, और जुए खेल रहे हैं, शराबें पी रहे हैं और ऐयाशी कर रहे हैं, वह भी मुझसे जलते हैं, आज मर जाऊँ तो घी के चिराग जलाएँ। मेरे दु:ख को दु:ख समझने वाला कोई नहीं। उनकी नजरों में मुझे दुखी होने का कोई अधिकार ही नहीं है। मैं अगर रोता हूँ, तो दु:ख की हँसी उड़ाता हूँ। मैं अगर बीमार होता हूँ, तो मुझे सुख होता है। मैं अगर अपना ब्याह करके घर में कलह नहीं बढ़ाता, तो यह मेरी नीच स्वार्थपरता है, अगर ब्याह कर लूँ, तो वह विलासांधता होगी। अगर शराब नहीं पीता तो मेरी कंजूसी है। शराब पीने लगूँ, तो वह प्रजा का रक्त होगा। अगर ऐयाशी नहीं करता, तो अरसिक हूँ; ऐयाशी करने लगूँ, तो फिर कहना ही क्या! इन लोगों ने मुझे भोग-विलास में फँसाने के लिए कम चालें नहीं चलीं और अब तक चलते जाते हैं। उनकी यही इच्छा है कि मैं अंधा हो जाऊँ और ये लोग मुझे लूट लें, और मेरा धर्म यह है कि सब कुछ देख कर भी कुछ न देखूँ। सब कुछ जान कर भी गधा बना रहूँ।
रायसाहब ने गाड़ी को आगे बढ़ाने के लिए दो बीड़े पान खाए और होरी के मुँह की ओर ताकने लगे, जैसे उसके मनोभावों को पढ़ना चाहते हों।
होरी ने साहस बटोर कहा - हम समझते थे कि ऐसी बातें हमीं लोगों में होती हैं, पर जान पड़ता है, बड़े आदमियों में भी उनकी कमी नहीं है।
रायसाहब ने मुँह पान से भर कर कहा - तुम हमें बड़ा आदमी समझते हो? हमारे नाम बड़े हैं, पर दर्शन थोड़े। गरीबों में अगर ईर्ष्या या बैर है, तो स्वार्थ के लिए या पेट के लिए। ऐसी ईर्ष्या और बैर को मैं क्षम्य समझता हूँ। हमारे मुँह की रोटी कोई छीन ले, तो उसके गले में उँगली डाल कर निकालना हमारा धर्म हो जाता है। अगर हम छोड़ दें, तो देवता हैं। बड़े आदमियों की ईर्ष्या और बैर केवल आनंद के लिए है। हम इतने बड़े आदमी हो गए हैं कि हमें नीचता और कुटिलता में ही नि:स्वार्थ और परम आनंद मिलता है। हम देवतापन के उस दर्जे पर पहुँच गए हैं, जब हमें दूसरों के रोने पर हँसी आती है। इसे तुम छोटी साधना मत समझो। जब इतना बड़ा कुटुंब है, तो कोई-न-कोई तो हमेशा बीमार रहेगा ही। और बड़े आदमियों के रोग भी बड़े होते हैं। वह बड़ा आदमी ही क्या, जिसे कोई छोटा रोग हो। मामूली ज्वर भी आ जाय, तो हमें सरसाम की दवा दी जाती है; मामूली गुंसी भी निकल आए, तो वह जहरबाद बन जाती है। अब छोटे सर्जन और मझोले सर्जन और बड़े सर्जन तार से बुलाए जा रहे हैं, मसीहुलमुल्क को लाने के लिए दिल्ली आदमी भेजा जा रहा है, भिषगाचार्य को लाने के लिए कलकत्ता। उधर देवालय में दुर्गापाठ हो रहा है और ज्योतिषाचार्य कुंडली का विचार कर रहे हैं और तंत्र के आचार्य अपने अनुष्ठान में लगे हुए हैं। राजा साहब को यमराज के मुँह से निकालने के लिए दौड़ लगी हुई है। वैद्य और डॉक्टर इस ताक में रहते हैं कि कब इनके सिर में दर्द हो और कब उनके घर में सोने की वर्षा हो। और ए रुपए तुमसे और तुम्हारे भाइयों से वसूल किए जाते हैं, भाले की नोंक पर। मुझे तो यही आश्चर्य होता है कि क्यों तुम्हारी आहों का दावानल हमें भस्म नहीं कर डालता; मगर नहीं आश्चर्य करने की कोई बात नहीं। भस्म होने में तो बहुत देर नहीं लगती, वेदना भी थोड़ी ही देर की होती है। हम जौ-जौ और अंगुल-अंगुल और पोर-पोर भस्म हो रहे हैं। उस हाहाकार से बचने के लिए हम पुलिस की, हुक्काम की, अदालत की, वकीलों की शरण लेते हैं और रूपवती स्त्री की भाँति सभी के हाथों का खिलौना बनते हैं। दुनिया समझती है, हम बड़े सुखी हैं। हमारे पास इलाके, महल, सवारियाँ, नौकर-चाकर, कर्ज, वेश्याएँ, क्या नहीं हैं, लेकिन जिसकी आत्मा में बल नहीं, अभिमान नहीं, वह और चाहे कुछ हो, आदमी नहीं है। जिसे दुश्मन के भय के मारे रात को नींद न आती हो, जिसके दु:ख पर सब हँसें और रोने वाला कोई न हो, जिसकी चोटी दूसरों के पैरों की नीचे दबी हो, जो भोग-विलास के नशे में अपने को बिलकुल भूल गया हो, जो हुक्काम के तलवे चाटता हो और अपने अधीनों का खून चूसता हो, मैं उसे सुखी नहीं कहता। वह तो संसार का सबसे अभागा प्राणी है। साहब शिकार खेलने आएँ या दौरे पर, मेरा कर्तव्य है कि उनकी दुम के पीछे लगा रहूँ। उनकी भौंहों पर शिकन पड़ी और हमारे प्राण सूखे। उन्हें प्रसन्न करने के लिए हम क्या नहीं करते; मगर वह पचड़ा सुनाने लगूँ तो शायद तुम्हें विश्वास न आए। डालियों और रिश्वतों तक तो खैर गनीमत है, हम सिजदे करने को भी तैयार रहते हैं। मुफ्तखोरी ने हमें अपंग बना दिया है, हमें अपने पुरुषार्थ पर लेश मात्र भी विश्वास नहीं, केवल अफसरों के सामने दुम हिला-हिला कर किसी तरह उनके कृपापात्र बने रहना और उनकी सहायता से अपने प्रजा पर आतंक जमाना ही हमारा उद्यम है। पिछलगुओं की खुशामदों ने हमें इतना अभिमानी और तुनकमिजाज बना दिया है कि हममें शील, विनय और सेवा का लोप हो गया है। मैं तो कभी-कभी सोचता हूँ कि अगर सरकार हमारे इलाके छीन कर हमें अपने रोजी के लिए मेहनत करना सिखा दे, तो हमारे साथ महान उपकार करे, और यह तो निश्चय है कि अब सरकार भी हमारी रक्षा न करेगी। हमसे अब उसका कोई स्वार्थ नहीं निकलता। लक्षण कह रहे हैं कि बहुत जल्द हमारे वर्ग की हस्ती मिट जाने वाली है। मैं उस दिन का स्वागत करने को तैयार बैठा हूँ। ईश्वर वह दिन जल्द लाए। वह हमारे उद्धार का दिन होगा। हम परिस्थितियों के शिकार बने हुए हैं। यह परिस्थिति ही हमारा सर्वनाश कर रही है और जब तक संपत्ति की यह बेड़ी हमारे पैरों से न निकलेगी, जब तक यह अभिशाप हमारे सिर पर मँडराता रहेगा, हम मानवता का वह पद न पा सकेंगे, जिस पर पहुँचना ही जीवन का अंतिम लक्ष्य है।
रायसाहब ने फिर गिलौरी-दान निकाला और कई गिलौरियाँ निकाल कर मुँह में भर लीं। कुछ और कहने वाले थे कि एक चपरासी ने आ कर कहा - सरकार, बेगारों ने काम करने से इनकार कर दिया है। कहते हैं, जब तक हमें खाने को न मिलेगा, हम काम न करेंगे। हमने धमकाया, तो सब काम छोड़ कर अलग हो गए।
रायसाहब के माथे पर बल पड़ गए। आँखें निकाल कर बोले - चलो, मैं इन दुष्टों को ठीक करता हूँ। जब कभी खाने को नहीं दिया, तो आज यह नई बात क्यों? एक आने रोज के हिसाब से मजूरी मिलेगी, जो हमेशा मिलती रही है; और इस मजूरी पर काम करना होगा, सीधे करें या टेढ़े।
फिर होरी की ओर देख कर बोले - तुम अब जाओ होरी, अपने तैयारी करो। जो बात मैंने कही है, उसका खयाल रखना। तुम्हारे गाँव से मुझे कम-से-कम पाँच सौ की आशा है।
रायसाहब झल्लाते हुए चले गए। होरी ने मन में सोचा, अभी यह कैसी-कैसी नीति और धरम की बातें कर रहे थे और एकाएक इतने गरम हो गए!
सूर्य सिर पर आ गया था। उसके तेज से अभिभूत हो कर वृक्ष ने अपना पसार समेट लिया था। आकाश पर मटियाली गर्द छाई हुई थी और सामने की पृथ्वी काँपती हुई जान पड़ती थी।
होरी ने अपना डंडा उठाया और घर चला। शगुन के रुपए कहाँ से आएँगे, यही चिंता उसके सिर पर सवार थी।
गोदान प्रेमचंद उपन्यास / Godan Premchand Novel / अध्याय-3
होरी अपने गाँव के समीप पहुँचा, तो देखा, अभी तक गोबर खेत में ऊख गोड़ रहा है और दोनों लड़कियाँ भी उसके साथ काम कर रही हैं। लू चल रहीं थी, बगुले उठ रहे थे, भूतल धधक रहा था। जैसे प्रकृति ने वायु में आग घोल दी हो। यह सब अभी तक खेत में क्यों हैं? क्या काम के पीछे सब जान देने पर तुले हुए हैं? वह खेत की ओर चला और दूर ही से चिल्ला कर बोला - आता क्यों नहीं गोबर, क्या काम ही करता रहेगा? दोपहर ढल गई, कुछ सूझता है कि नहीं?
उसे देखते ही तीनों ने कुदालें उठा लीं और उसके साथ हो लिए। गोबर साँवला, लंबा, इकहरा युवक था, जिसे इस काम में रूचि न मालूम होती थी। प्रसन्नता की जगह मुख पर असंतोष और विद्रोह था। वह इसलिए काम में लगा हुआ था कि वह दिखाना चाहता था, उसे खाने-पीने की कोई फिक्र नहीं है। बड़ी लड़की सोना लज्जाशील कुमारी थी, साँवली, सुडौल, प्रसन्न और चपल। गाढ़े की लाल साड़ी, जिसे वह घुटनों से मोड़ कर कमर में बाँधे हुए थी, उसके हलके शरीर पर कुछ लदी हुई-सी थी, और उसे प्रौढ़ता की गरिमा दे रही थी। छोटी रूपा पाँच-छ: साल की छोकरी थी, मैली, सिर पर बालों का एक घोंसला-सा बना हुआ, एक लंगोटी कमर में बाँधे, बहुत ही ढीठ और रोनी।
रूपा ने होरी की टाँगो में लिपट कर कहा - काका! देखो, मैंने एक ढेला भी नहीं छोड़ा। बहन कहती है, जा पेड़ तले बैठ। ढेले न तोड़े जाएँगे काका, तो मिट्टी कैसे बराबर होगी?
होरी ने उसे गोद में उठा प्यार करते हुए कहा - तूने बहुत अच्छा किया बेटी, चल घर चलें। कुछ देर अपने विद्रोह को दबाए रहने के बाद गोबर बोला - यह तुम रोज-रोज मालिकों की खुशामद करने क्यों जाते हो? बाकी न चुके तो प्यादा आ कर गालियाँ सुनाता है, बेगार देनी ही पड़ती है, नजर-नजराना सब तो हमसे भराया जाता है। फिर किसी की क्यों सलामी करो!
इस समय यही भाव होरी के मन में भी आ रहे थे, लेकिन लड़के के इस विद्रोह-भाव को दबाना जरूरी था। बोला - सलामी करने न जायँ, तो रहें कहाँ? भगवान ने जब गुलाम बना दिया है, तो अपना क्या बस है? यह इसी सलामी की बरकत है, कि द्वार पर मँड़ैया डाल ली और किसी ने कुछ नहीं कहा । घूरे ने द्वार पर खूँटा गाड़ा था, जिस पर कारिंदों ने दो रुपए डाँड़ ले लिए थे। तलैया से कितनी मिट्टी हमने खोदी, कारिंदा ने कुछ नहीं कहा। दूसरा खोदे तो नजर देनी पड़े। अपने मतलब के लिए सलामी करने जाता हूँ, पाँव में सनीचर नहीं है और न सलामी करने में कोई बड़ा सुख मिलता है। घंटों खड़े रहो, तब जा कर मालिक को खबर होती है। कभी बाहर निकलते हैं, कभी कहला देते हैं कि फुरसत नहीं हैं।
गोबर ने कटाक्ष किया - बड़े आदमियों की हाँ-में-हाँ मिलाने में कुछ-न-कुछ आनंद तो मिलता ही है, नहीं लोग मेंबरी के लिए क्यों खड़े हों?
जब सिर पर पड़ेगी तब मालूम होगा बेटा, अभी जो चाहे कह लो। पहले मैं भी यही सब बातें सोचा करता था; पर अब मालूम हुआ कि हमारी गर्दन दूसरों के पैरों के नीचे दबी हुई है, अकड़ कर निबाह नहीं हो सकता।'
पिता पर अपना क्रोध उतार कर गोबर कुछ शांत हो गया और चुपचाप चलने लगा। सोना ने देखा, रूपा बाप की गोद में चढ़ी बैठी है तो ईर्ष्या हुई। उसे डाँट कर बोली - अब गोद से उतर कर पाँव-पाँव क्यों नहीं चलती, क्या पाँव टूट गए हैं?
रूपा ने बाप की गर्दन में हाथ डाल कर ढिठाई से कहा - न उतरेंगे जाओ। काका, बहन हमको रोज चिढ़ाती है कि तू रूपा है, मैं सोना हूँ। मेरा नाम कुछ और रख दो।
होरी ने सोना को बनावटी रोष से देख कर कहा - तू इसे क्यों चिढ़ाती है सोनिया, सोना तो देखने को है। निबाह तो रूपा से होता है। रूपा न हो, तो रुपए कहाँ से बनें, बता?
सोना ने अपने पक्ष का समर्थन किया - सोना न हो तो मोहर कैसे बने, नथुनिया कहाँ से आएँ, कंठा कैसे बने?
गोबर भी इस विनोदमय विवाद में शरीक हो गया। रूपा से बोला - तू कह दे कि सोना तो सूखी पत्ती की तरह पीला होता है, रूपा तो उजला होता है, जैसे सूरज।
सोना बोली - शादी-ब्याह में पीली साड़ी पहनी जाती है, उजली साड़ी कोई नहीं पहनता।
रूपा इस दलील से परास्त हो गई। गोबर और होरी की कोई दलील इसके सामने न ठहर सकी। उसने क्षुब्ध आँखों से होरी को देखा।
होरी को एक नई युक्ति सूझ गई। बोला - सोना बड़े आदमियों के लिए है। हम गरीबों के लिए तो रूपा ही है। जैसे जौ को राजा कहते हैं, गेहूँ को चमार; इसलिए न कि गेहूँ बड़े आदमी खाते हैं, जौ हम लोग खाते हैं।
सोना के पास इस सबल युक्ति का कोई जवाब न था। परास्त हो कर बोली - तुम सब जने एक ओर हो गए, नहीं रुपिया को रुला कर छोड़ती।
रूपा ने उँगली मटका कर कहा - ए राम, सोना चमार-ए राम, सोना चमार।
इस विजय का उसे इतना आनंद हुआ कि बाप की गोद में रह न सकी। जमीन पर कूद पड़ी और उछल-उछल कर यही रट लगाने लगी - रूपा राजा, सोना चमार - रूपा राजा, सोना चमार!
ए लोग घर पहुँचे तो धनिया द्वार पर खड़ी इनकी बाट जोह रही थी। रुष्ट हो कर बोली - आज इतनी देर क्यों की गोबर? काम के पीछे कोई परान थोड़े ही दे देता है।
फिर पति से गर्म हो कर कहा - तुम भी वहाँ से कमाई करके लौटे तो खेत में पहुँच गए। खेत कहीं भागा जाता था!
द्वार पर कुआँ था। होरी और गोबर ने एक-एक कलसा पानी सिर पर ऊँड़ेला, रूपा को नहलाया और भोजन करने गए। जौ की रोटियाँ थीं, पर गेहूँ-जैसी सफेद और चिकनी। अरहर की दाल थी, जिसमें कच्चे आम पड़े हुए थे। रूपा बाप की थाली में खाने बैठी। सोना ने उसे ईर्ष्या-भरी आँखों से देखा, मानो कह रही थी, वाह रे दुलार!
धनिया ने पूछा - मालिक से क्या बातचीत हुई?
होरी ने लोटा-भर पानी चढ़ाते हुए कहा - यही तहसील-वसूल की बात थी और क्या। हम लोग समझते हैं, बड़े आदमी बहुत सुखी होंगे, लेकिन सच पूछो तो वह हमसे भी ज्यादा दु:खी हैं। हमें पेट ही की चिंता है, उन्हें हजारों चिंताएँ घेरे रहती हैं।
रायसाहब ने और क्या-क्या कहा था, वह कुछ होरी को याद न था। उस सारे कथन का खुलासा-मात्र उसके स्मरण में चिपका हुआ रह गया था।
गोबर ने व्यंग्य किया - तो फिर अपना इलाका हमें क्यों नहीं दे देते। हम अपने खेत, बैल, हल, कुदाल सब उन्हें देने को तैयार हैं। करेंगे बदला? यह सब धूर्तता है, निरी मोटमरदी। जिसे दु:ख होता है, वह दरजनों मोटरें नहीं रखता, महलों में नहीं रहता, हलवा-पूरी नहीं खाता और न नाच-रंग में लिप्त रहता है। मजे से राज का सुख भोग रहे हैं, उस पर दु:खी हैं!
होरी ने झुँझला कर कहा - अब तुमसे बहस कौन करे भाई! जैजात किसी से छोड़ी जाती है कि वही छोड़ देंगे? हमीं को खेती से क्या मिलता है? एक आने नफरी की मजूरी भी तो नहीं पड़ती। जो दस रुपए महीने का भी नौकर है, वह भी हमसे अच्छा खाता-पहनता है, लेकिन खेतों को छोड़ा तो नहीं जाता। खेती छोड़ दें, तो और करें क्या? नौकरी कहीं मिलती है? फिर मरजाद भी तो पालना ही पड़ता है। खेती में जो मरजाद है, वह नौकरी में तो नहीं है। इसी तरह जमींदारों का हाल भी समझ लो। उनकी जान को भी तो सैकड़ों रोग लगे हुए हैं, हाकिमों को रसद पहुँचाओ, उनकी सलामी करो, अमलों को खुस करो। तारीख पर मालगुजारी न चुका दें, तो हवालात हो जाय, कुड़की आ जाए। हमें तो कोई हवालात नहीं ले जाता। दो-चार गालियाँ-घुड़कियाँ ही तो मिल कर रह जाती हैं।
गोबर ने प्रतिवाद किया - यह सब कहने की बातें हैं। हम लोग दाने-दाने को मुहताज हैं, देह पर साबित कपड़े नहीं हैं, चोटी का पसीना एड़ी तक आता है, तब भी गुजर नहीं होता। उन्हें क्या, मजे से गद्दी-मसनद लगाए बैठे हैं, सैकड़ों नौकर-चाकर हैं, हजारों आदमियों पर हुकूमत है। रुपए न जमा होते हों; पर सुख तो सभी तरह का भोगते हैं। धन ले कर आदमी और क्या करता है?
'तुम्हारी समझ में हम और वह बराबर हैं?'
'भगवान ने तो सबको बराबर ही बनाया है।'
'यह बात नहीं है बेटा, छोटे-बड़े भगवान के घर से बन कर आते हैं। संपत्ति बड़ी तपस्या से मिलती है। उन्होंने पूर्वजन्म में जैसे कर्म किए हैं, उनका आनंद भोग रहे हैं। हमने कुछ नहीं संचा, तो भोगें क्या?'
'यह सब मन को समझाने की बातें हैं। भगवान सबको बराबर बनाते हैं। यहाँ जिसके हाथ में लाठी है, वह गरीबों को कुचल कर बड़ा आदमी बन जाता है।'
'यह तुम्हारा भरम है। मालिक आज भी चार घंटे रोज भगवान का भजन करते हैं।'
'किसके बल पर यह भजन-भाव और दान-धरम होता है;
'अपने बल पर।'
'नहीं, किसानों के बल पर और मजदूरों के बल पर। यह पाप का धन पचे कैसे? इसीलिए दान-धरम करना पड़ता है, भगवान का भजन भी इसीलिए होता है। भूखे-नंगे रह कर भगवान का भजन करें, तो हम भी देखें। हमें कोई दोनों जून खाने को दे, तो हम आठों पहर भगवान का जाप ही करते रहें। एक दिन खेत में ऊख गोड़ना पड़े तो सारी भक्ति भूल जाए।'
होरी ने हार कर कहा - अब तुम्हारे मुँह कौन लगे भाई, तुम तो भगवान की लीला में भी टाँग अड़ाते हो।
तीसरे पहर गोबर कुदाल ले कर चला, तो होरी ने कहा - जरा ठहर जाओ बेटा, हम भी चलते हैं। तब तक थोड़ा-सा भूसा निकाल कर रख दो। मैंने भोला को देने को कहा है। बेचारा आजकल बहुत तंग है।
गोबर ने अवज्ञा-भरी आँखों से देख कर कहा - हमारे पास बेचने को भूसा नहीं है।
'बेचता नहीं हूँ भाई, यों ही दे रहा हूँ। वह संकट में है, उसकी मदद तो करनी ही पड़ेगी।'
'हमें तो उन्होंने कभी एक गाय नहीं दे दी।'
'दे तो रहा था, पर हमने ली ही नहीं।'
'धनिया मटक कर बोली - गाय नहीं वह दे रहा था। इन्हें गाय दे देगा! आँख में अंजन लगाने को कभी चिल्लू-भर दूध तो भेजा नहीं, गाय दे देगा!
होरी ने कसम खाई - नहीं, जवानी कसम, अपने पछाई गाय दे रहे थे। हाथ तंग है, भूसा-चारा नहीं रख सके। अब एक गाय बेच कर भूसा लेना चाहते हैं। मैंने सोचा, संकट में पड़े आदमी की गाय क्या लूँ। थोड़ा-सा भूसा दिए देता हूँ, कुछ रुपए हाथ आ जाएँगे तो गाय ले लूँगा। थोड़ा-थोड़ा करके चुका दूँगा। अस्सी रुपए की है, मगर ऐसी कि आदमी देखता रहे।
गोबर ने आड़े हाथों लिया - तुम्हारा यही धरमात्मापन तो तुम्हारी दुरगत कर रहा है। साफ-साफ तो बात है। अस्सी रुपए की गाय है, हमसे बीस रुपए का भूसा ले लें और गाय हमें दे दें। साठ रुपए रह जाएँगे, वह हम धीरे-धीरे दे देंगे।
होरी रहस्यमय ढंग से मुस्कराया - मैंने ऐसी चाल सोची है कि गाय सेंत-मेंत में हाथ आ जाए। कहीं भोला की सगाई ठीक करनी है, बस! दो-चार मन भूसा तो खाली अपना रंग जमाने को देता हूँ।
गोबर ने तिरस्कार किया - तो तुम अब सबकी सगाई ठीक करते फिरोगे?
धनिया ने तीखी आँखों से देखा - अब यही एक उद्यम तो रह गया है। नहीं देना है हमें भूसा किसी को। यहाँ भोला-भोली किसी का करज नहीं खाया है।
होरी ने अपने सफाई दी - अगर मेरे जतन से किसी का घर बस जाय तो इसमें कौन-सी बुराई है?
गोबर ने चिलम उठाई और आग लेने चला गया। उसे यह झमेला बिलकुल नहीं भाता था।
धनिया ने सिर हिला कर कहा - जो उनका घर बसाएगा, वह अस्सी रुपए की गाय ले कर चुप न होगा। एक थैली गिनवाएगा।
होरी ने पुचारा दिया - यह मैं जानता हूँ; लेकिन उनकी भलमनसी को भी तो देखो। मुझसे जब मिलता है, तेरा बखान ही करता है - ऐसी लक्ष्मी है, ऐसी सलीकेदार है।
धनिया के मुख पर स्निग्धता झलक पड़ी। मन भाए मुड़िया हिलाए वाले भाव से बोली - मैं उनके बखान की भूखी नहीं हूँ, अपना बखान धरे रहें।
होरी ने स्नेह-भरी मुस्कान के साथ कहा - मैंने तो कह दिया, भैया, वह नाक पर मक्खी भी नहीं बैठने देती, गालियों से बात करती है, लेकिन वह यही कहे जाय कि वह औरत नहीं, लक्ष्मी है। बात यह है कि उसकी घरवाली जबान की बड़ी तेज थी। बेचारा उसके डर के मारे भागा-भागा फिरता था। कहता था, जिस दिन तुम्हारी घरवाली का मुँह सबेरे देख लेता हूँ, उस दिन कुछ-न-कुछ जरूर हाथ लगता है। मैंने कहा - तुम्हारे हाथ लगता होगा, यहाँ तो रोज देखते हैं, कभी पैसे से भेंट नहीं होती।
'तुम्हारे भाग ही खोटे हैं, तो मैं क्या करूँ।'
'लगा अपने घरवाली की बुराई करने - भिखारी को भीख तक नहीं देती थी, झाड़ू ले कर मारने दौड़ती थी, लालचिन ऐसी थी कि नमक तक दूसरों के घर से माँग लाती थी।'
'मरने पर किसी की क्या बुराई करूँ। मुझे देख कर जल उठती थी।'
'भोला बड़ा गमखोर था कि उसके साथ निबाह कर दिया। दूसरा होता तो जहर खा मर जाता। मुझसे दस साल बड़े होंगे भोला, पर राम-राम पहले ही करते हैं।'
'तो क्या कहते थे कि जिस दिन तुम्हारी घरवाली का मुँह देख लेता हूँ तो क्या होता है?'
'उस दिन भगवान कहीं-न-कहीं से कुछ भेज देते हैं।;
'बहुएँ भी तो वैसी ही चटोरिन आई हैं। अबकी सबों ने दो रुपए के खरबूजे उधार खा डाले। उधार मिल जाय, फिर उन्हें चिंता नहीं होती कि देना पड़ेगा या नहीं।'
'अरे भोला रोते काहे को हैं?'
गोबर आ कर बोला - भोला दादा आ पहुँचे। मन-दो-मन भूसा है, वह उन्हें दे दो, फिर उनकी सगाई ढूँढने निकलो!
धनिया ने समझाया - आदमी द्वार पर बैठा है, उसके लिए खाट-वाट तो डाल नहीं दी, ऊपर से लगे भुनभुनाने। कुछ तो भलमनसी सीखो। कलसा ले जाओ, पानी भर कर रख दो, हाथ-मुँह धोएँ, कुछ रस-पानी पिला दो। मुसीबत में ही आदमी दूसरों के सामने हाथ फैलाता है।
होरी बोला - रस-वस का काम नहीं है, कौन कोई पाहुने हैं।
धनिया बिगड़ी - पाहुने और कैसे होते हैं। रोज-रोज तो तुम्हारे द्वार पर नहीं आते हैं? इतनी दूर से धूप-घाम में आए हैं, प्यास लगी ही होगी। रुपिया, देख डब्बे में तमाखू है कि नहीं, गोबर के मारे काहे को बची होगी। दौड़ कर एक पैसे की तमाखू सहुआइन की दुकान से ले ले।
भोला की आज जितनी खातिर हुई, और कभी न हुई होगी। गोबर ने खाट डाल दी, सोना रस घोल लाई, रूपा तमाखू भर लाई। धनिया द्वार पर किवाड़ की आड़ में खड़ी अपने कानों से अपना बखान सुनने के लिए अधीर हो रही थी।
भोला ने चिलम हाथ में ले कर कहा - अच्छी घरनी घर में आ जाय, तो समझ लो लक्ष्मी आ गई। वही जानती है, छोटे-बड़े का आदर-सत्कार कैसे करना चाहिए।
धनिया के हृदय में उल्लास का कंपन हो रहा था। चिंता और निराशा और अभाव से आहत आत्मा इन शब्दों में एक कोमल, शीतल स्पर्श का अनुभव कर रही थी।
होरी जब भोला का खाँचा उठा कर भूसा लाने अंदर चला, तो धनिया भी पीछे-पीछे चली। होरी ने कहा - जाने कहाँ से इतना बड़ा खाँचा मिल गया। किसी भड़भूँजे से माँग लिया होगा। मन-भर से कम में न भरेगा। दो खाँचे भी दिए, तो दो मन निकल जाएँगे।
धनिया फूली हुई थी। मलामत की आँखों से देखती हुई बोली - या तो किसी को नेवता न दो, और दो तो भरपेट खिलाओ। तुम्हारे पास फूल-पत्र लेने थोड़े ही आए हैं कि चँगेरी ले कर चलते। देते ही हो, तो तीन खाँचे दे दो। भला आदमी लड़कों को क्यों नहीं लाया? अकेले कहाँ तक ढोएगा? जान निकल जायगी।
'तीन खाँचे तो मेरे दिए न दिए जाएँगे।'
'तब क्या एक खाँचा दे कर टालोगे? गोबर से कह दो, अपना खाँचा भर कर उनके साथ चला जाए।'
'गोबर ऊख गोड़ने जा रहा है।'
'एक दिन न गोड़ने से ऊख सूख न जायगी।'
'यह तो उनका काम था कि किसी को अपने साथ ले लेते। भगवान के दिए दो-दो बेटे हैं।'
'न होंगे घर पर। दूध ले कर बाजार गए होंगे।'
'यह तो अच्छी दिल्लगी है कि अपना माल भी दो और उसे घर तक पहुँचा भी दो। लाद दे, लदा दे, लादने वाला साथ कर दे।'
'अच्छा भाई, कोई मत जाए। मैं पहुँचा दूँगी। बड़ों की सेवा करने में लाज नहीं है।'
'और तीन खाँचे उन्हें दे दूँ, तो अपने बैल क्या खाएँगे?'
'यह सब तो नेवता देने के पहले ही सोच लेना था। न हो, तुम और गोबर दोनों जने चले जाओ।'
'मुरौवत मुरौवत की तरह की जाती है, अपना घर उठा कर नहीं दे दिया जाता!'
'अभी जमींदार का प्यादा आ जाय, तो अपने सिर पर भूसा लाद कर पहुँचाओगे तुम, तुम्हारा लड़का, लड़की सब। और वहाँ साइत मन-दो-मन लकड़ी भी गाड़नी पड़े।'
'जमींदार की बात और है।'
'हाँ, वह डंडे के जोर से काम लेता है न।'
'उसके खेत नहीं जोतते?'
'खेत जोतते हैं, तो लगान नहीं देते?'
'अच्छा भाई, जान न खा, हम दोनों चले जाएँगे। कहाँ-से-कहाँ मैंने इन्हें भूसा देने को कह दिया। या तो चलेगी नहीं, या चलेगी तो दौड़ने लगेगी।'
तीनों खाँचे भूसे से भर दिए गए। गोबर कुढ़ रहा था। उसे अपने बाप के व्यवहारों में जरा भी विश्वास न था। वह समझता था, यह जहाँ जाते हैं, वहीं कुछ-न-कुछ घर से खो आते हैं। धनिया प्रसन्न थी। रहा होरी, वह धर्म और स्वार्थ के बीच में डूब-उतरा रहा था।
होरी और गोबर मिल कर एक खाँचा बाहर लाए। भोला ने तुरंत अपने-अंगौछे का बींड़ बना कर सिर पर रखते हुए कहा - मैं इसे रख कर अभी भागा आता हूँ। एक खाँचा और लूँगा।
होरी बोला - एक नहीं, अभी दो और भरे धरे हैं। और तुम्हें न आना पड़ेगा। मैं और गोबर एक-एक खाँचा ले कर तुम्हारे साथ ही चलते हैं।
भोला स्तंभित हो गया। होरी उसे अपना भाई, बल्कि उससे भी निकट जान पड़ा। उसे अपने भीतर एक ऐसी तृप्ति का अनुभव हुआ, जिसने मानों उसके संपूर्ण जीवन को हरा कर दिया।
तीनों भूसा ले कर चले, तो राह में बातें होने लगीं।
भोला ने पूछा - दसहरा आ रहा है, मालिकों के द्वार पर तो बड़ी धूमधाम होगी?
'हाँ, तंबू-सामियाना गड़ गया है। अबकी लीला में मैं भी काम करूँगा रायसाहब ने कहा है, तुम्हें राजा जनक का माली बनना पड़ेगा।'
'मालिक तुमसे बहुत खुश हैं।'
'उनकी दया है।'
एक क्षण के बाद भोला ने फिर पूछा - सगुन करने के लिए रुपए का कुछ जुगाड़ कर लिया है? माली बन जाने से तो गला न छूटेगा।
होरी ने मुँह का पसीना पोंछ कर कहा - उसी की चिंता तो मारे डालती है दादा - अनाज तो सब-का-सब खलिहान में ही तुल गया। जमींदार ने अपना लिया, महाजन ने अपना लिया। मेरे लिए पाँच सेर अनाज बच रहा। यह भूसा तो मैंने रातों-रात ढो कर छिपा दिया था, नहीं तिनका भी न बचता। जमींदार तो एक ही है, मगर महाजन तीन-तीन हैं, सहुआइन अलग और मँगरू अलग और दातादीन पंडित अलग। किसी का ब्याज भी पूरा न चुका। जमींदार के भी आधे रुपए बाकी पड़ गए। सहुआइन से फिर रुपए उधार लिए तो काम चला। सब तरह किफायत करके देख लिया भैया, कुछ नहीं होता। हमारा जनम इसीलिए हुआ है कि अपना रक्त बहाएँ और बड़ों का घर भरें। मूल का दुगुना सूद भर चुका, पर मूल ज्यों-का-त्यों सिर पर सवार है। लोग कहते हैं, सादी-गमी में, तीरथ-बरत में हाथ बाँध कर खरच करो। मुदा रास्ता कोई नहीं दिखाता। रायसाहब ने बेटे के ब्याह में बीस हजार लुटा दिए। उनसे कोई कुछ नहीं कहता। मँगरू ने अपने बाप के करिया-करम में पाँच हजार लगाए। उनसे कोई कुछ नहीं पूछता। वैसे ही मरजाद तो सबकी है।
भोला ने करुण भाव से कहा - बड़े आदमियों की बराबरी तुम कैसे कर सकते हो भाई?
'आदमी तो हम भी हैं।'
'कौन कहता है कि हम-तुम आदमी हैं। हममें आदमियत है कहीं? आदमी वह है, जिनके पास धन है, अख्तियार है, इलम है। हम लोग तो बैल हैं और जुतने के लिए पैदा हुए हैं। उस पर एक दूसरे को देख नहीं सकता। एका का नाम नहीं। एक किसान दूसरे के खेत पर न चढ़े तो कोई जागा कैसे करे, प्रेम तो संसार से उठ गया।'
बूढ़ों के लिए अतीत के सुखों और वर्तमान के दु:खों और भविष्य के सर्वनाश से ज्यादा मनोरंजक और कोई प्रसंग नहीं होता। दोनों मित्र अपने-अपने दुखड़े रोते रहे। भोला ने अपने बेटों के करतूत सुनाए, होरी ने अपने भाइयों का रोना रोया और तब एक कुएँ पर बोझ रख कर पानी पीने के लिए बैठ गए। गोबर ने बनिए से लोटा और गगरा माँगा और पानी खींचने लगा।
भोला ने सहृदयता से पूछा - अलगौझे के समय तो तुम्हें बड़ा रंज हुआ होगा। भाइयों को तो तुमने बेटों की तरह पाला था।
होरी आर्द्र कंठ से बोला - कुछ न पूछो दादा, यही जी चाहता था कि कहीं जाके डूब मरूँ मेरे जीते-जी सब कुछ हो गया। जिनके पीछे अपने जवानी धूल में मिला दी, वही मेरे मुद्दई हो गए और झगड़े की जड़ क्या थी? यही कि मेरी घरवाली हार में काम करने क्यों नहीं जाती। पूछो, घर देखने वाला भी कोई चाहिए कि नहीं - लेना-देना, धरना-उठाना, सँभालना-सहेजना, यह कौन करे- फिर वह घर बैठी तो नहीं रहती थी, झाड़ू-बुहारू, रसोई, चौका-बरतन, लड़कों की देखभाल यह कोई थोड़ा काम है। सोभा की औरत घर सँभाल लेती कि हीरा की औरत में यह सलीका था - जब से अलगौझा हुआ है, दोनों घरों में एक जून रोटी पकती है, नहीं सबको दिन में चार बार भूख लगती थी। अब खाएँ चार दफे, तो देखूँ। इस मालिकपन में गोबर की माँ की जो दुरगत हुई है, वह मैं ही जानता हूँ। बेचारी देवरानियों के फटे-पुराने कपड़े पहन कर दिन काटती थी। अपने खुद भूखी सो रही होगी, लेकिन बहुओं के जलपान तक का ध्यान रखती थी। अपने देह गहने के नाम कच्चा धागा भी न था, देवरानियों के लिए दो-दो चार-चार गहने बनवा दिए। सोने के न सही, चाँदी के तो हैं। जलन यही थी कि यह मालिक क्यों है। बहुत अच्छा हुआ कि अलग हो गए। मेरे सिर से बला टली।
भोला ने एक लोटा पानी चढ़ा कर कहा - यही हाल घर-घर है भैया! भाइयों की बात ही क्या, यहाँ तो लड़कों से भी नहीं पटती और पटती इसलिए नहीं कि मैं किसी की कुचाल देख कर मुँह नहीं बंद कर सकता। तुम जुआ खेलोगे, चरस पीओगे, गाँजे के दम लगाओगे, मगर आए किसके घर से? खरच करना चाहते हो तो कमाओ, मगर कमाई तो किसी से न होगी। खरच दिल खोल कर करेंगे। जेठा कामता सौदा ले कर बाजार जायगा तो आधे पैसे गायब। पूछो तो कोई जवाब नहीं। छोटा जंगी है, वह संगत के पीछे मतवाला रहता है। साँझ हुई और ढोल-मजीरा ले कर बैठ गए। संगत को मैं बुरा नहीं कहता। गाना-बजाना ऐब नहीं, लेकिन यह सब काम फुरसत के हैं। यह नहीं कि घर का तो कोई काम न करो, आठों पहर उसी धुन में पड़े रहो। जाती है मेरे सिर, सानी-पानी मैं करूँ, गाय-भैंस मैं दुहूँ, दूध ले कर बाजार मैं जाऊँ। यह गृहस्थी जी का जंजाल है, सोने की हँसिया, जिसे न उगलते बनता है, न निगलते। लड़की है झुनिया, वह भी नसीब की खोटी। तुम तो उसकी सगाई में आए थे। कितना अच्छा घर-बार था। उसका आदमी बंबई में दूध की दुकान करता था। उन दिनों वहाँ हिंदू-मुसलमानों में दंगा हुआ, तो किसी ने उसके पेट में छुरा भोंक दिया। घर ही चौपट हो गया। वहाँ अब उसका निबाह नहीं, जा कर लिवा लाया कि दूसरी सगाई कर दूँगा, मगर वह राजी ही नहीं होती। और दोनों भावजें हैं कि रात-दिन उसे जलाती रहती हैं। घर में महाभारत मचा रहता है। बिपत की मारी यहाँ आई, यहाँ भी चैन नहीं।
इन्हीं दुखड़ों में रास्ता कट गया। भोला का पुरवा था तो छोटा, मगर बहुत गुलजार। अधिकतर अहीर ही बसते थे। और किसानों के देखते इनकी दशा बहुत बुरी न थी। भोला गाँव का मुखिया था। द्वार पर बड़ी-सी चरनी थी, जिस पर दस-बारह गाएँ-भैंसें खड़ी सानी खा रही थीं। ओसारे में एक बड़ा-सा तख्त पड़ा था, जो शायद दस आदमियों से भी न उठता। किसी खूँटी पर ढोलक लटक रही थी, किसी पर मजीरा। एक ताख पर कोई पुस्तक बस्ते में बँधी रखी हुई थी, जो शायद रामायण हो। दोनों बहुएँ सामने बैठी गोबर पाथ रही थीं और झुनिया चौखट पर खड़ी थी। उसकी आँखें लाल थीं और नाक के सिरे पर भी सुर्खी थी। मालूम होता था, अभी रो कर उठी है। उसके माँसल, स्वस्थ, सुगठित अंगों में मानो यौवन लहरें मार रहा था। मुँह बड़ा और गोल था, कपोल फूले हुए, आँखें छोटी और भीतर धँसी हुई, माथा पतला पर वक्ष का उभार और गात का वह गुदगुदापन आँखों को खींचता था। उस पर छपी हुई गुलाबी साड़ी उसे और भी शोभा प्रदान कर रही थी।
भोला को देखते ही उसने लपक कर उनके सिर से खाँचा उतरवाया। भोला ने गोबर और होरी के खाँचे उतरवाए और झुनिया से बोले - पहले एक चिलम भर ला, फिर थोड़ा-सा रस बना ले। पानी न हो तो गगरा ला, मैं खींच दूँ। होरी महतो को पहचानती है न?
फिर होरी से बोला - घरनी के बिना घर नहीं रहता भैया। पुरानी कहावत है - 'नाटन खेती बहुरियन घर'। नाटे बैल क्या खेती करेंगे और बहुएँ क्या घर सँभालेंगी। जब से इनकी माँ मरी है, जैसे घर की बरक्कत ही उठ गई। बहुएँ आटा पाथ लेती हैं; पर गृहस्थी चलाना क्या जानें। हाँ, मुँह चलाना खूब जानती हैं। लौंडे कहीं फड़ पर जमे होंगे। सब-के-सब आलसी हैं, कामचोर। जब तक जीता हूँ, इनके पीछे मरता हूँ। मर जाऊँगा, तो आप सिर पर हाथ धर कर रोएँगे। लड़की भी वैसी ही। छोटा-सा अढ़ौना भी करेगी, तो भुन-भुना कर। मैं तो सह लेता हूँ, खसम थोड़े ही सहेगा।
झुनिया एक हाथ में भरी हुई चिलम, दूसरे में रस का लोटा लिए बड़ी फुर्ती से आ पहुँची। फिर रस्सी और कलसा ले कर पानी भरने चली। गोबर ने उसके हाथ से कलसा लेने के लिए हाथ बढ़ा कर झेंपते हुए कहा - तुम रहने दो, मैं भरे लाता हूँ।
झुनिया ने कलसा न दिया। कुएँ के जगत पर जा कर मुस्कराती हुई बोली - तुम हमारे मेहमान हो। कहोगे, एक लोटा पानी भी किसी ने न दिया।
'मेहमान काहे से हो गया। तुम्हारा पड़ोसी ही तो हूँ।'
'पड़ोसी साल-भर में एक बार भी सूरत न दिखाए, तो मेहमान ही है।'
'रोज-रोज आने से मरजाद भी तो नहीं रहती।
झुनिया हँस कर तिरछी नजरों से देखती हुई बोली - वही मरजाद तो दे रही हूँ। महीने में एक बार आओगे, ठंडा पानी दूँगी। पंद्रहवें दिन आओगे, चिलम पाओगे। सातवें दिन आओगे, खाली बैठने को माची दूँगी। रोज-रोज आओगे, कुछ न पाओगे।
'दरसन तो दोगी?'
'दरसन के लिए पूजा करनी पड़ेगी।'
यह कहते-कहते जैसे उसे कोई भूली हुई बात याद आ गई। उसका मुँह उदास हो गया। वह विधवा है। उसके नारीत्व के द्वार पर पहले उसका पति रक्षक बना बैठा रहता था। वह निश्चिंत थी। अब उस द्वार पर कोई रक्षक न था, इसलिए वह उस द्वार को सदैव बंद रखती है। कभी-कभी घर के सूनेपन से उकता कर वह द्वार खोलती है; पर किसी को आते देख कर भयभीत हो कर दोनों पट भेड़ लेती है।
गोबर ने कलसा भर कर निकाला। सबों ने रस पिया और एक चिलम तमाखू और पी कर लौटे। भोला ने कहा - कल तुम आ कर गाय ले जाना गोबर, इस बखत तो सानी खा रही है।
गोबर की आँखें उसी गाय पर लगी हुई थीं और मन-ही-मन वह मुग्ध हुआ जाता था। गाय इतनी सुंदर और सुडौल है, इसकी उसने कल्पना भी न की थी।
होरी ने लोभ को रोक कर कहा - मँगवा लूँगा, जल्दी क्या है?
'तुम्हें जल्दी न हो, हमें तो जल्दी है। उसे द्वार पर देख कर तुम्हें वह बात याद रहेगी।'
'उसकी मुझे बड़ी फिकर है दादा!'
'तो कल गोबर को भेज देना।'
दोनों ने अपने-अपने खाँचे सिर पर रखे और आगे बढ़े। दोनों इतने प्रसन्न थे, मानो ब्याह करके लौटे हों। होरी को तो अपने चिरसंचित अभिलाषा के पूरे होने का हर्ष था, और बिना पैसे के। गोबर को इससे भी बहुमूल्य वस्तु मिल गई थी। उसके मन में अभिलाषा जाग उठी थी।
अवसर पा कर उसने पीछे की ओर देखा। झुनिया द्वार पर खड़ी थी, मत्त आशा की भाँति अधीर चंचल।
गोदान प्रेमचंद उपन्यास / Godan Premchand Novel / अध्याय-4
होरी को रात-भर नींद नहीं आई। नीम के पेड़-तले अपने बाँस की खाट पर पड़ा बार-बार तारों की ओर देखता था। गाय के लिए नाँद गाड़नी है। बैलों से अलग उसकी नाँद रहे तो अच्छा। अभी तो रात को बाहर ही रहेगी, लेकिन चौमासे में उसके लिए कोई दूसरी जगह ठीक करनी होगी। बाहर लोग नजर लगा देते हैं। कभी-कभी तो ऐसा टोना-टोटका कर देते हैं कि गाय का दूध ही सूख जाता है। थन में हाथ ही नहीं लगाने देती - लात मारती है। नहीं, बाहर बाँधना ठीक नहीं। और बाहर नाँद भी कौन गाड़ने देगा? कारिंदा साहब नजर के लिए मुँह फैलाएँगे। छोटी-छोटी बात के लिए रायसाहब के पास फरियाद ले जाना भी उचित नहीं। और कारिंदे के सामने मेरी सुनता कौन है? उनसे कुछ कहूँ, तो कारिंदा दुसमन हो जाए। जल में रह कर मगर से बैर करना बुड़बकपन है। भीतर ही बाँधूंगा। आँगन है तो छोटा-सा; लेकिन एक मड़ैया डाल देने से काम चल जायगा। अभी पहला ही ब्यान है। पाँच सेर से कम क्या दूध देगी। सेर-भर तो गोबर ही को चाहिए। रुपिया दूध देख कर कैसी ललचाती रहती है। अब पिए जितना चाहे। कभी-कभी दो-चार सेर मालिकों को दे आया करूँगा। कारिंदा साहब की पूजा भी करनी ही होगी। और भोला के रुपए भी दे देना चाहिए। सगाई के ढकोसले में उसे क्यों डालूँ। जो आदमी अपने ऊपर इतना विश्वास करे, उससे दगा करना नीचता है। अस्सी रुपए की गाय मेरे विश्वास पर दे दी, नहीं यहाँ तो कोई एक पैसे को नहीं पतियाता। सन में क्या कुछ न मिलेगा? अगर पच्चीस रुपए भी दे दूँ, तो भोला को ढाढ़स हो जाए। धनिया से नाहक बता दिया। चुपके से गाय ला कर बाँध देता तो चकरा जाती। लगती पूछने, किसकी गाय है? कहाँ से लाए हो? खूब दिक करके तब बताता, लेकिन जब पेट में बात पचे भी। कभी दो-चार पैसे ऊपर से आ जाते है, उनको भी तो नहीं छिपा सकता। और यह अच्छा भी है। उसे घर की चिंता रहती है; अगर उसे मालूम हो जाय कि इनके पास भी पैसे रहते हैं, तो फिर नखड़े बघारने लगे। गोबर जरा आलसी है, नहीं मैं गऊ की ऐसी सेवा करता कि जैसी चाहिए। आलसी-वालसी कुछ नहीं है। इस उमिर में कौन आलसी नहीं होता? मैं भी दादा के सामने मटरगस्ती ही किया करता था। बेचारे पहर रात से कुट्टी काटने लगते। कभी द्वार पर झाड़ू लगाते, कभी खेत में खाद फेंकते। मैं पड़ा सोता रहता। कभी जगा देते, तो मैं बिगड़ जाता और घर छोड़ कर भाग जाने की धमकी देता था। लड़के जब अपने माँ-बाप के सामने भी जिंदगी का थोड़ा-सा सुख न भोगेंगे, तो फिर जब अपने सिर पड़ गई तो क्या भोगेंगे? दादा के मरते ही क्या मैंने घर नहीं सँभाल लिया? सारा गाँव यही कहता था कि होरी घर बर्बाद कर देगा, लेकिन सिर पर बोझ पड़ते ही मैंने ऐसा चोला बदला कि लोग देखते रह गए। सोभा और हीरा अलग ही हो गए, नहीं आज इस घर की और ही बात होती। तीन हल एक साथ चलते। अब तीनों अलग-अलग चलते हैं। सब, समय का फेर है। धनिया का क्या दोष था? बेचारी जब से घर में आई, कभी तो आराम से न बैठी। डोली से उतरते ही सारा काम सिर पर उठा लिया। अम्माँ को पान की तरह फेरती रहती थी। जिसने घर के पीछे अपने को मिटा दिया, देवरानियों से काम करने को कहती थी, तो क्या बुरा करती थी? आखिर उसे भी तो कुछ आराम मिलना चाहिए। लेकिन भाग्य में आराम लिखा होता तब तो मिलता। तब देवरों के लिए मरती थी, अब अपने बच्चों के लिए मरती है। वह इतनी सीधी, गमखोर, निर्छल न होती, तो आज सोभा और हीरा जो मूँछों पर ताव देते फिरते हैं, कहीं भीख माँगते होते। आदमी कितना स्वार्थी हो जाता है। जिसके लिए मरो, वही जान का दुसमन हो जाता है।
होरी ने फिर पूर्व की ओर देखा। साइत भिनसार हो रहा है। गोबर काहे को जागने लगा। नहीं, कहके तो यही सोया था कि मैं अँधरे ही चला जाऊँगा। जा कर नाँद तो गाड़ दूँ, लेकिन नहीं, जब तक गाय द्वार पर न आ जाय, नाँद गाड़ना ठीक नहीं। कहीं भोला बदल गए या और किसी कारण से गाय न दी, तो सारा गाँव तालियाँ पीटने लगेगा, चले थे गाय लेने! पट्ठे ने इतनी फुर्ती से नाँद गाड़ दी, मानो इसी की कसर थी। भोला है तो अपने घर का मालिक, लेकिन जब लड़के सयाने हो गए, तो बाप की कौन चलती है? कामता और जंगी अकड़ जायँ तो क्या भोला अपने मन से गाय मुझे दे देंगे? कभी नहीं।
सहसा गोबर चौंक कर उठ बैठा और आँखें मलता हुआ बोला - अरे! यह तो भोर हो गया। तुमने नाँद गाड़ दी दादा?
होरी गोबर के सुगठित शरीर और चौड़ी छाती की ओर गर्व से देख कर और मन में यह सोचते हुए कि कहीं इसे गोरस मिलता, तो कैसा पट्ठा हो जाता, बोला - नहीं, अभी नहीं गाड़ी। सोचा, कहीं न मिले, तो नाहक भद्द हो।
गोबर ने त्योरी चढ़ा कर कहा - मिलेगी क्यों नहीं?
'उनके मन में कोई चोर पैठ जाय?'
'चोर पैठे या डाय, गाय तो उन्हें देनी ही पड़ेगी।'
गोबर ने और कुछ न कहा - लाठी कंधों पर रखी और चल दिया। होरी उसे जाते देखता हुआ अपना कलेजा ठंडा करता रहा। अब लड़के की सगाई में देर न करनी चाहिए। सत्रहवाँ लग गया; मगर करे कैसे? कहीं पैसे के भी दरसन हों। जब से तीनों भाइयों में अलगौझा हो गया, घर की साख जाती रही। महतो लड़का देखने आते हैं, पर घर की दसा देख कर मुँह फीका करके चले जाते हैं। दो-एक राजी भी हुए, तो रुपए माँगते हैं। दो-तीन सौ लड़की का दाम चुकाए और इतना ही ऊपर से खरच करे, तब जा कर ब्याह हो। कहाँ से आवें इतने रुपए? रास खलिहान में तुल जाती है। खाने-भर को भी नहीं बचता। ब्याह कहाँ से हो? और अब तो सोना ब्याहने योग्य हो गई। लड़के का ब्याह न हुआ न सही। लड़की का ब्याह न हुआ, तो सारी बिरादरी में हँसी होगी। पहले तो उसी की सगाई करनी है, पीछे देखी जायगी ।
एक आदमी ने आ कर राम-राम किया और पूछा - तुम्हारी कोठी में कुछ बाँस होंगे महतो?
होरी ने देखा, दमड़ी बँसोर सामने खड़ा है, नाटा, काला, खूब मोटा, चौड़ा मुँह, बड़ी-बड़ी मूँछें, लाल आँखें, कमर में बाँस काटने की कटार खोंसे हुए। साल में एक-दो बार आ कर चिकें, कुर्सियाँ, मोढे, टोकरियाँ आदि बनाने के लिए कुछ बाँस काट ले जाता था।
होरी प्रसन्न हो गया। मुट्ठी गर्म होने की कुछ आशा बँधी। चौधरी को ले जा कर अपने तीनों कोठियाँ दिखाई, मोल-भाव किया और पच्चीस रुपए सैकड़े में पचास बाँसों का बयाना ले लिया। फिर दोनों लौटे। होरी ने उसे चिलम पिलाई, जलपान कराया और तब रहस्यमय भाव से बोला - मेरे बाँस कभी तीस रुपए से कम में नहीं जाते, लेकिन तुम घर के आदमी हो, तुमसे क्या मोल-भाव करता। तुम्हारा वह लड़का, जिसकी सगाई हुई थी, अभी परदेस से लौटा कि नहीं?
चौधरी ने चिलम का दम लगा कर खाँसते हुए कहा - उस लौंडे के पीछे तो मर मिटा महतो! जवान बहू घर में बैठी थी और वह बिरादरी की एक दूसरी औरत के साथ परदेस में मौज करने चल दिया। बहू भी दूसरे के साथ निकल गई। बड़ी नाकिस जात है महतो, किसी की नहीं होती। कितना समझाया कि तू जो चाहे खा, जो चाहे पहन, मेरी नाक न कटवा, मुदा कौन सुनता है? औरत को भगवान सब कुछ दे, रूप न दे, नहीं तो वह काबू में नहीं रहती। कोठियाँ तो बँट गई होंगी?
होरी ने आकाश की ओर देखा और मानो उसकी महानता में उड़ता हुआ बोला - सब कुछ बँट गया चौधरी ! जिनको लड़कों की तरह पाला-पोसा, वह अब बराबर के हिस्सेदार हैं, लेकिन भाई का हिस्सा खाने की अपने नीयत नहीं है। इधर तुमसे रुपए मिलेंगे, उधर दोनों भाइयों को बाँट दूँगा। चार दिन की जिंदगी में क्यों किसी से छल-कपट करूँ? नहीं कह दूँ कि बीस रुपए सैकड़े में बेचे हैं तो उन्हें क्या पता लगेगा। तुम उनसे कहने थोड़े ही जाओगे। तुम्हें तो मैंने बराबर अपना भाई समझा है।
व्यवहार में हम 'भाई' के अर्थ का कितना ही दुरुपयोग करें, लेकिन उसकी भावना में जो पवित्रता है, वह हमारी कालिमा से कभी मलिन नहीं होती।
होरी ने अप्रत्यक्ष रूप से यह प्रस्ताव करके चौधरी के मुँह की ओर देखा कि वह स्वीकार करता है या नहीं। उसके मुख पर कुछ ऐसा मिथ्या विनीत भाव प्रकट हुआ, जो भिक्षा माँगते समय मोटे भिक्षुकों पर आ जाता है।
चौधरी ने होरी का आसन पा कर चाबुक जमाया - हमारा तुम्हारा पुराना भाई-चारा है, महतो, ऐसी बात है भला, लेकिन बात यह है कि ईमान आदमी बेचता है, तो किसी लालच से। बीस रुपए नहीं, मैं पंद्रह रुपए कहूँगा, लेकिन जो बीस रुपए के दाम लो।
होरी ने खिसिया कर कहा - तुम तो चौधरी अंधेर करते हो, बीस रुपए में कहीं ऐसे बाँस जाते हैं?
'ऐसे क्या, इससे अच्छे बाँस जाते हैं दस रुपए पर, हाँ, दस कोस और पच्छिम चले जाओ। मोल बाँस का नहीं है, सहर के नगीच होने का है। आदमी सोचता है, जितनी देर वहाँ जाने में लगेगी, उतनी देर में तो दो-चार रुपए का काम हो जायगा।'
सौदा पट गया। चौधरी ने मिर्जई उतार कर छान पर रख दी और बाँस काटने लगा।
ऊख की सिंचाई हो रही थी। हीरा-बहू कलेवा ले कर कुएँ पर जा रही थी। चौधरी को बाँस काटते देख कर घूँघट के अंदर से बोली - कौन बाँस काटता है? यहाँ बाँस न कटेंगे।
चौधरी ने हाथ रोक कर कहा - बाँस मोल लिए हैं, पंद्रह रुपए सैकड़े का बयाना हुआ है। सेंत में नहीं काट रहे हैं।
हीरा-बहू अपने घर की मालकिन थी। उसी के विद्रोह से भाइयों में अलगौझा हुआ था। धनिया को परास्त करके शेर हो गई थी। हीरा कभी-कभी उसे पीटता था। अभी हाल में इतना मारा था कि वह कई दिन तक खाट से न उठ सकी, लेकिन अपना पदाधिकार वह किसी तरह न छोड़ती थी। हीरा क्रोध में उसे मारता था, लेकिन चलता था उसी के इशारों पर, उस घोड़े की भाँति, जो कभी-कभी स्वामी को लात मार कर भी उसी के आसन के नीचे चलता है।
कलेवे की टोकरी सिर से उतार कर बोली - पंद्रह रुपए में हमारे बाँस न जाएँगे।
चौधरी औरत जात से इस विषय में बातचीत करना नीति-विरुद्ध समझते थे। बोले - जा कर अपने आदमी को भेज दो। जो कुछ कहना हो, आ कर कहें।
हीरा-बहू का नाम था पुन्नी। बच्चे दो ही हुए थे। लेकिन ढल गई थी। बनाव-सिंगार से समय के आघात का शमन करना चाहती थी, लेकिन गृहस्थी में भोजन ही का ठिकाना न था, सिंगार के लिए पैसे कहाँ से आते? इस अभाव और विवशता ने उसकी प्रकृति का जल सुखा कर कठोर और शुष्क बना दिया था, जिस पर एक बार गावड़ा भी उचट जाता था।
समीप आ कर चौधरी का हाथ पकड़ने की चेष्टा करती हुई बोली - आदमी को क्यों भेज दूँ? जो कुछ कहना हो, मुझसे कहो न? मैंने कह दिया, मेरे बाँस न कटेंगे।
चौधरी हाथ छुड़ाता था और पुन्नी बार-बार पकड़ लेती थी। एक मिनट तक यही हाथा-पाई होती रही। अंत में चौधरी ने उसे जोर से पीछे ढकेल दिया। पुन्नी धक्का खा कर गिर पड़ी, मगर फिर संभली और पाँव से तल्ली निकाल कर चौधरी के सिर, मुँह, पीठ पर अंधाधुंध जमाने लगी। बँसोर हो कर उसे ढकेल दे? उसका यह अपमान! मारती जाती थी और रोती भी जाती थी। चौधरी उसे धक्का दे कर नारी जाति पर बल का प्रयोग करके गच्चा खा चुका था। खड़े-खड़े मार खाने के सिवा इस संकट से बचने की उसके पास और कोई दवा न थी।
पुन्नी का रोना सुन कर होरी भी दौड़ा हुआ आया। पुन्नी ने उसे देख कर और जोर से चिल्लाना शुरू किया। होरी ने समझा, चौधरी ने पुनिया को मारा है। खून ने जोश मारा और अलगौझे की ऊँची बाधा को तोड़ता हुआ, सब कुछ अपने अंदर समेटने के लिए बाहर निकल पड़ा। चौधरी को जोर से एक लात जमा कर बोला - अब अपना भला चाहते हो चौधरी, तो यहाँ से चले जाओ, नहीं तुम्हारी लहास उठेगी। तुमने अपने को समझा क्या है? तुम्हारी इतनी मजाल कि मेरी बहू पर हाथ उठाओ।
चौधरी कसमें खा-खा कर अपने सफाई देने लगा। तल्लियों की चोट में उसकी अपराधी आत्मा मौन थी। यह लात उसे निरपराध मिली और उसके फुले हुए गाल आँसुओं से भीग गए। उसने तो बहू को छुआ भी नहीं। क्या वह इतना गँवार है कि महतो के घर की औरतों पर हाथ उठाएगा?
होरी ने अविश्वास करके कहा - आँखों में धूल मत झोंको चौधरी, तुमने कुछ कहा नहीं, तो बहू झूठ-मूठ रोती है? रुपए की गरमी है, तो वह निकाल दी जायगी, अलग हैं तो क्या हुआ, है तो एक खून। कोई तिरछी आँख से देखे तो आँख निकाल लें।
पुन्नी चंडी बनी हुई थी। गला गाड़ कर बोली - तूने मुझे धक्का दे कर गिरा नहीं दिया? खा जा अपने बेटे की कसम।
हीरा को खबर मिली कि चौधरी और पुनिया में लड़ाई हो रही है। चौधरी ने पुनिया को धक्का दिया। पुनिया ने तल्लियों से पीटा। उसने पुर वहीं छोड़ा और औंगी लिए घटनास्थल की ओर चला। गाँव में अपने क्रोध के लिए प्रसिद्ध था। छोटा डील, गठा हुआ शरीर, आँखें कौड़ी की तरह निकल आई थीं और गर्दन की नसें तन गई थीं, मगर उसे चौधरी पर क्रोध न था, क्रोध था पुनिया पर। वह क्यों चौधरी से लड़ी? क्यों उसकी इज्जत मिट्टी में मिला दी। बँसोर से लड़ने-झगड़ने का उसे क्या प्रयोजन था? उसे जा कर हीरा से समाचार कह देना चाहिए था। हीरा जैसा उचित समझता, करता। वह उससे लड़ने क्यों गई? उसका बस होता, तो वह पुनिया को पर्दे में रखता। पुनिया किसी बड़े से मुँह खोल कर बातें करे, यह उसे असह्य था। वह खुद जितना उद्दंड था, पुनिया को उतना ही शांत रखना चाहता था। जब भैया ने पंद्रह रुपए में सौदा कर लिया, तो यह बीच में कूदने वाली कौन।
आते ही उसने पुन्नी का हाथ पकड़ लिया और घसीटता हुआ अलग ले जाकर लगा लातें जमाने-हरामजादी, तू हमारी नाक कटाने पर लगी हुई है! तू छोटे-छोटे आदमियों से लड़ती फिरती है, किसकी पगड़ी नीची होती है बता! (एक लात और जमा कर) हम तो वहाँ कलेऊ की बाट देख रहे हैं, तू यहाँ लड़ाई ठाने बैठी है। इतनी बेसर्मी! आँख का पानी ऐसा गिर गया। खोद कर गाड़ दूँगा।
पुन्नी हाय-हाय करती जाती थी और कोसती जाती थी। 'तेरी मिट्टी उठे, तुझे हैजा हो जाय, तुझे मरी आवें, देवी मैया तुझे लील जायँ, तुझे इन्फ्लूएँजा हो जाए। भगवान करे, तू कोढ़ी हो जाए। हाथ-पाँव कट-कट गिरें।'
और गालियाँ तो हीरा खड़ा-खड़ा सुनता रहा, लेकिन यह पिछली गाली उसे लग गई। हैजा, मरी आदि में कोई विशेष कष्ट न था। इधर बीमार पड़े, उधर विदा हो गए, लेकिन कोढ़! यह घिनौनी मौत, और उससे भी घिनौना जीवन। वह तिलमिला उठा, दाँत पीसता हुआ पुनिया पर झपटा और झोटे पकड़ कर फिर उसका सिर जमीन पर रगड़ता हुआ बोला - हाथ-पाँव कट कर गिर जाएँगे तो मैं तुझे ले कर चाटूँगा। तू ही मेरे बाल-बच्चों को पालेगी? ऐं! तू ही इतनी बड़ी गिरस्ती चलाएगी? तू तो दूसरा भतार करके किनारे खड़ी हो जायगी।
चौधरी को पुनिया की इस दुर्गति पर दया आ गई। हीरा को उदारतापूर्वक समझाने लगा - हीरा महतो, अब जाने दो, बहुत हुआ। क्या हुआ, बहू ने मुझे मारा। मैं तो छोटा नहीं हो गया। धन्य भाग कि भगवान ने यह दिन तो दिखाया।
हीरा ने चौधरी को डाँटा - तुम चुप रहो चौधरी, नहीं मेरे क्रोध में पड़ जाओगे तो बुरा होगा। औरतजात इसी तरह बहकती है। आज को तुमसे लड़ गई, कल को दूसरों से लड़ जायगी। तुम भले मानुस हो, हँस कर टाल गए, दूसरा तो बरदास न करेगा। कहीं उसने भी हाथ छोड़ दिया, तो कितनी आबरू रह जायगी, बताओ।
इस खयाल ने उसके क्रोध को फिर भड़काया। लपका था कि होरी ने दौड़ कर पकड़ लिया और उसे पीछे हटाते हुए बोला - अरे, हो तो गया। देख तो लिया दुनिया ने कि बड़े बहादुर हो। अब क्या उसे पीस कर पी जाओगे?
हीरा अब भी बड़े भाई का अदब करता था। सीधे-सीधे न लड़ता था। चाहता तो एक झटके में अपना हाथ छुड़ा लेता, लेकिन इतनी बेअदबी न कर सका। चौधरी की ओर देख कर बोला - अब खड़े क्या ताकते हो? जा कर अपने बाँस काटो। मैंने सही कर दिया। पंद्रह रुपए सैकड़े में तय है।
कहाँ तो पुन्नी रो रही थी। कहाँ झमक कर उठी और अपना सिर पीट कर बोली - लगा दे घर में आग, मुझे क्या करना है! भाग फूट गया कि तुझ जैसे कसाई के पाले पड़ी। लगा दे घर में आग।
उसने कलेऊ की टोकरी वहीं छोड़ दी और घर की ओर चली। हीरा गरजा - वहाँ कहाँ जाती है, चल कुएँ पर, नहीं खून पी जाऊँगा।
पुनिया के पाँव रूक गए। इस नाटक का दूसरा अंक न खेलना चाहती थी। चुपके से टोकरी उठा कर रोती हुई कुएँ की ओर चली। हीरा भी पीछे-पीछे चला।
होरी ने कहा - अब फिर मार-धाड़ न करना। इससे औरत बेसरम हो जाती है।
धनिया ने द्वार पर आ कर हाँक लगाई - तुम वहाँ खड़े-खड़े क्या तमासा देख रहे हो? कोई तुम्हारी सुनता भी है कि यों ही सिच्छा दे रहे हो। उस दिन इसी बहू ने तुम्हें घूँघट की आड़ में डाढ़ीजार कहा था, भूल गए। बहुरिया हो कर पराए मरदों से लड़ेगी, तो डाँटी न जायगी।
होरी द्वार पर आ कर नटखटपन के साथ बोला - और जो मैं इसी तरह तुझे मारूँ?
'क्या कभी मारा नहीं है, जो मारने की साध बनी हुई है।'
'इतनी बेदरदी से मारता, तो तू घर छोड़ कर भाग जाती! पुनिया बड़ी गमखोर है।'
'ओहो! ऐसे ही तो बड़े दरदवाले हो। अभी तक मार का दाग बना हुआ है। हीरा मारता है तो दुलारता भी है। तुमने खाली मारना सीखा, दुलार करना सीखा ही नहीं। मैं ही ऐसी हूँ कि तुम्हारे साथ निबाह हुआ।
'अच्छा रहने दे, बहुत अपना बखान न कर! तू ही रूठ-रूठ नैहर भागती थी। जब महीनों खुसामद करता था, तब जा कर आती थी।'
'जब अपने गरज सताती थी, तब मनाने जाते थे लाला! मेरे दुलार से नहीं जाते थे।'
'इसी से तो मैं सबसे तेरा बखान करता हूँ।'
वैवाहिक जीवन के प्रभात में लालसा अपने गुलाबी मादकता के साथ उदय होती है और हृदय के सारे आकाश को अपने माधुर्य की सुनहरी किरणों से रंजित कर देती है। फिर मध्याह्न का प्रखर ताप आता है, क्षण-क्षण पर बगुले उठते हैं और पृथ्वी काँपने लगती है। लालसा का सुनहरा आवरण हट जाता है और वास्तविकता अपने नग्न रूप में सामने आ खड़ी होती है। उसके बाद विश्राममय संध्या आती है, शीतल और शांत, जब हम थके हुए पथिकों की भाँति दिन-भर की यात्रा का वृत्तांत करते और सुनते हैं तटस्थ भाव से, मानो हम किसी ऊँचे शिखर पर जा बैठे हैं, जहाँ नीचे का जन-रव हम तक नहीं पहुँचता।
धनिया ने आँखों में रस भर कर कहा - चलो-चलो, बड़े बखान करने वाले! जरा-सा कोई काम बिगड़ जाय, तो गरदन पर सवार हो जाते हो।
होरी ने मीठे उलाहने के साथ कहा - ले, अब यही तेरी बेइंसाफी मुझे अच्छी नहीं लगती धनिया! भोला से पूछ, मैंने उनसे तेरे बारे में क्या कहा था?
धनिया ने बात बदल कर कहा - देखो, गोबर गाय ले कर आता है कि खाली हाथ।
चौधरी ने पसीने में लथपथ आ कर कहा - महतो, चल कर बाँस गिन लो। कल ठेला ला कर उठा ले जाऊँगा।
होरी ने बाँस गिनने की जरूरत न समझी। चौधरी ऐसा आदमी नहीं है। फिर एकाध बाँस बेसी काट ही लेगा, तो क्या। रोज ही तो मँगनी बाँस कटते रहते हैं। सहालगों में तो मंडप बनाने के लिए लोग दर्जनों बाँस काट ले जाते हैं।
चौधरी ने साढ़े सात रुपए निकाल कर उसके हाथ में रख दिए। होरी ने गिनकर कहा - और निकालो। हिसाब से ढाई और होते हैं।
चौधरी ने बेमुरौवती से कहा - पंद्रह रुपए में तय हुए हैं कि नहीं?
'पंद्रह रुपए में नहीं, बीस रुपए में।'
'हीरा महतो ने तुम्हारे सामने पंद्रह रुपए कहे थे। कहो तो बुला लाऊँ?'
'तय तो बीस रुपए में ही हुए थे चौधरी ! अब तुम्हारी जीत है, जो चाहो कहो। ढाई रुपए निकलते हैं, तुम दो ही दे दो।'
मगर चौधरी कच्ची गोलियाँ न खेला था। अब उसे किसका डर? होरी के मुँह में तो ताला पड़ा हुआ था। क्या कहे, माथा ठोंक कर रह गया। बस इतना बोला - यह अच्छी बात नहीं है, चौधरी, दो रुपए दबा कर राजा न हो जाओगे।
चौधरी तीक्ष्ण स्वर में बोला - और तुम क्या भाइयों के थोड़े-से पैसे दबा कर राजा हो जाओगे? ढाई रुपए पर अपना ईमान बिगाड़ रहे थे, उस पर मुझे उपदेस देते हो। अभी परदा खोल दूँ, तो सिर नीचा हो जाए।
होरी पर जैसे सैकड़ों जूते पड़ गए। चौधरी तो रुपए सामने जमीन पर रख कर चला गया, पर वह नीम के नीचे बैठा बड़ी देर तक पछताता रहा। वह कितना लोभी और स्वार्थी है, इसका उसे आज पता चला। चौधरी ने ढाई रुपए दे दिए होते, तो वह खुशी से कितना फूल उठता। अपने चालाकी को सराहता कि बैठे-बैठाए ढाई रुपए मिल गए। ठोकर खा कर ही तो हम सावधानी के साथ पग उठाते हैं।
धनिया अंदर चली गई थी। बाहर आई तो रुपए जमीन पर पड़े देखे, गिन कर बोली - और रुपए क्या हुए, दस न चाहिए?
होरी ने लंबा मुँह बना कर कहा - हीरा ने पंद्रह रुपए में दे दिए, तो मैं क्या करता।
'हीरा पाँच रुपए में दे दे। हम नहीं देते इन दामों।'
'वहाँ मार-पीट हो रही थी। मैं बीच में क्या बोलता?'
होरी ने अपने पराजय अपने मन में ही डाल ली, जैसे कोई चोरी से आम तोड़ने के लिए पेड़ पर चढ़े और गिर पड़ने पर धूल झाड़ता हुआ उठ खड़ा हो कि कोई देख न ले। जीत कर आप अपने धोखेबाजियों की डींग मार सकते हैं, जीत में सब-कुछ माफ है। हार की लज्जा तो पी जाने की ही वस्तु है।
धनिया पति को फटकारने लगी। ऐसे अवसर उसे बहुत कम मिलते थे। होरी उससे चतुर था, पर आज बाजी उसके हाथ थी। हाथ मटका कर बोली - क्यों न हो, भाई ने पंद्रह रुपए कह दिए, तो तुम कैसे टोकते? अरे, राम-राम! लाड़ले भाई का दिल छोटा हो जाता कि नहीं! फिर जब इतना बड़ा अनर्थ हो रहा था कि लाड़ली बहू के गले पर छुरी चल रही थी, तो भला तुम कैसे बोलते! उस बखत कोई तुम्हारा सरबस लूट लेता, तो भी तुम्हें सुधा न होती।
होरी चुपचाप सुनता रहा। मिनका तक नहीं। झुँझलाहट हुई, क्रोध आया, खून खौला, आँख जली, दाँत पिसे, लेकिन बोला नहीं। चुपके-से कुदाल उठाई और ऊख गोड़ने चला।
धनिया ने कुदाल छीन कर कहा - क्या अभी सबेरा है जो ऊख गोड़ने चले? सूरज देवता माथे पर आ गए। नहाने-धोने जाव। रोटी तैयार है।
होरी ने घुन्ना कर कहा - मुझे भूख नहीं है।
धनिया ने जले पर नोन छिड़का - हाँ, काहे को भूख लगेगी! भाई ने बडे-बड़े लड्डू खिला दिए हैं न। भगवान ऐसे सपूत भाई सबको दें।
होरी बिगड़ा। और क्रोध अब रस्सियाँ तुड़ा रहा था? तू आज मार खाने पर लगी हुई है!
धनिया ने नकली विनय का नाटक करके कहा - क्या करूँ, तुम दुलार ही इतना करते हो कि मेरा सिर फिर गया है।
'तू घर में रहने देगी कि नहीं?'
'घर तुम्हारा, मालिक तुम, मैं भला कौन होती हूँ तुम्हें घर से निकालने वाली?'
होरी आज धनिया से किसी तरह पेश नहीं पा सकता। उसकी अक्ल जैसे कुंद हो गई है। इन व्यंग्य-बाणों के रोकने के लिए उसके पास कोई ढाल नहीं है। धीरे से कुदाल रख दी और गमछा ले कर नहाने चला गया। लौटा कोई आधा घंटे में, मगर गोबर अभी तक न आया था। अकेले कैसे भोजन करे। लौंडा वहाँ जा कर सो रहा। भोला की वह मदमाती छोकरी है न झुनिया। उसके साथ हँसी-दिल्लगी कर रहा होगा। कल भी तो उसके पीछे लगा हुआ था। नहीं गाय दी, तो लौट क्यों नहीं आया। क्या वहाँ ढई देगा।
धनिया ने कहा - अब खड़े क्या हो? गोबर साँझ को आएगा।
होरी ने और कुछ न कहा - कहीं धनिया फिर न कुछ कह बैठे।
भोजन करके नीम की छाँह में लेट रहा।
रूपा रोती हुई आई। नंगे बदन एक लँगोटी लगाए, झबरे बाल इधर-उधर बिखरे हुए। होरी की छाती पर लोट गई। उसकी बड़ी बहिन सोना कहती है - गाय आएगी, तो उसका गोबर मैं पाथूँगी। रूपा यह नहीं बर्दाश्त कर सकती है। सोना ऐसी कहाँ की बड़ी रानी है कि सारा गोबर आप पाथ डाले। रूपा उससे किस बात में कम है? सोना रोटी पकाती है, तो क्या रूपा बर्तन नहीं माँजती? सोना पानी लाती है, तो क्या रूपा कुएँ पर रस्सी नहीं ले जाती? सोना तो कलसा भर कर इठलाती चली आती है। रस्सी समेट कर रूपा ही लाती है। गोबर दोनों साथ पाथती हैं। सोना खेत गोड़ने जाती है, तो क्या रूपा बकरी चराने नहीं जाती? फिर सोना क्यों अकेली गोबर पाथेगी? यह अन्याय रूपा कैसे सहे? होरी ने उसके भोलेपन पर मुग्ध हो कर कहा - नहीं, गाय का गोबर तू पार्थना! सोना गाय के पास आय तो भगा देना।
रूपा ने पिता के गले में हाथ डाल कर कहा - दूध भी मैं ही दुहूँगी।
'हाँ-हाँ, तू न दुहेगी तो और कौन दुहेगा?'
'वह मेरी गाय होगी।'
'हाँ, सोलहों आने तेरी।'
रूपा प्रसन्न हो कर अपने विजय का शुभ समाचार पराजित सोना को सुनाने चली गई। गाय मेरी होगी, उसका दूध मैं दुहूँगी, उसका गोबर मैं पाथूँगी, तुझे कुछ न मिलेगा।
सोना उम्र से किशोरी, देह के गठन में युवती और बुद्धि से बालिका थी, जैसे उसका यौवन उसे आगे खींचता था, बालपन पीछे। कुछ बातों में इतनी चतुर कि ग्रेजुएट युवतियों को पढ़ाए, कुछ बातों में इतनी अल्हड़ कि शिशुओं से भी पीछे। लंबा, रूखा, किंतु प्रसन्न मुख, ठोड़ी नीचे को खिंची हुई, आँखों में एक प्रकार की तृप्ति, न केशों में तेल, न आँखों में काजल, न देह पर कोई आभूषण, जैसे गृहस्थी के भार ने यौवन को दबा कर बौना कर दिया हो।
सिर को एक झटका दे कर बोली - जा, तू गोबर पाथ। जब तू दूध दुह कर रखेगी तो मैं पी जाऊँगी।
'मैं दूध की हाँड़ी ताले में बंद करके रखूँगी।'
'मैं ताला तोड़ कर दूध निकाल लाऊँगी।'
यह कहती हुई वह बाग की तरफ चल दी। आम गदरा गए थे। हवा के झोंकों से एकाध जमीन पर गिर पड़ते थे, लू के मारे चुचके, पीले, लेकिन बाल-वृंद उन्हें टपके समझ कर बाग को घेरे रहते थे। रूपा भी बहन के पीछे हो ली। जो काम सोना करे, वह रूपा जरूर करेगी। सोना के विवाह की बातचीत हो रही थी, रूपा के विवाह की कोई चर्चा नहीं करता, इसलिए वह स्वयं अपने विवाह के लिए आग्रह करती है। उसका दूल्हा कैसा होगा, क्या-क्या लाएगा, उसे कैसे रखेगा, उसे क्या खिलाएगा, क्या पहनाएगा, इसका वह बड़ा विशद वर्णन करती, जिसे सुन कर कदाचित कोई बालक उससे विवाह करने पर राजी न होता।
साँझ हो रही थी। होरी ऐसा अलसाया कि ऊख गोड़ने न जा सका। बैलों को नाँद में लगाया, सानी-खली दी और एक चिलम भर कर पीने लगा। इस फसल में सब कुछ खलिहान में तौल देने पर भी कोई तीन सौ कर्ज था, जिस पर कोई सौ रुपए सूद के बढ़ते जाते थे। मँगरू साह से आज पाँच साल हुए, बैल के लिए साठ रुपए लिए थे, उसमें साठ दे चुका था, पर वह साठ रुपए ज्यों-के-त्यों बने हुए थे। दातादीन पंडित से तीस रुपए ले कर आलू बोए थे। आलू तो चोर खोद ले गए, और उस तीस के इन तीन बरसों में सौ हो गए थे। दुलारी विधवा सहुआइन थी, जो गाँव में नोन, तेल, तंबाकू की दुकान रखे हुए थी। बँटवारे के समय उससे चालीस रुपए ले कर भाइयों को देना पड़ा था। उसके भी लगभग सौ रुपए हो गए थे, क्योंकि आने रुपए का ब्याज था। लगान के भी अभी पच्चीस रुपए बाकी पड़े हुए थे और दशहरे के दिन शगुन के रूपयों का भी कोई प्रबंध करना था। बाँसों के रुपए बड़े अच्छे समय पर मिल गए। शगुन की समस्या हल हो जायगी, लेकिन कौन जाने। यहाँ तो एक धोला भी हाथ में आ जाय, तो गाँव में शोर मच जाता है, और लेनदार चारों तरफ से नोचने लगते हैं। ये पाँच रुपए तो वह शगुन में देगा, चाहे कुछ हो जाय, मगर अभी जिंदगी के दो बड़े-बड़े काम सिर पर सवार थे। गोबर और सोना का विवाह। बहुत हाथ बाँधने पर भी तीन सौ से कम खर्च न होंगे। ये तीन सौ किसके घर से आएँगे? कितना चाहता है कि किसी से एक पैसा कर्ज न ले, जिसका आता हो, उसका पाई-पाई चुका दे, लेकिन हर तरह का कष्ट उठाने पर भी गला नहीं छूटता। इसी तरह सूद बढ़ता जायगा और एक दिन उसका घर-द्वार सब नीलाम हो जायगा उसके बाल-बच्चे निराश्रय हो कर भीख माँगते फिरेंगे। होरी जब काम-धंधों से छुट्टी पा कर चिलम पीने लगता था, तो यह चिंता एक काली दीवार की भाँति चारों ओर से घेर लेती थी, जिसमें से निकलने की उसे कोई गली न सूझती थी। अगर संतोष था तो यही कि यह विपत्ति अकेले उसी के सिर न थी। प्राय: सभी किसानों का यही हाल था। अधिकांश की दशा तो इससे भी बदतर थी। सोभा और हीरा को उससे अलग हुए अभी कुल तीन साल हुए थे, मगर दोनों पर चार-चार सौ का बोझ लद गया था। झींगुर दो हल की खेती करता है। उस पर एक हजार से कुछ बेसी ही देना है। जियावन महतो के घर, भिखारी भीख भी नहीं पाता, लेकिन करजे का कोई ठिकाना नहीं। यहाँ कौन बचा है?
सहसा सोना और रूपा दोनों दौड़ी हुई आईं और एक साथ बोलीं - भैया गाय ला रहे हैं। आगे-आगे गाय, पीछे-पीछे भैया हैं।
रूपा ने पहले गोबर को आते देखा था। यह खबर सुनाने की सुर्खरूई उसे मिलनी चाहिए थी। सोना बराबर की हिस्सेदार हुई जाती है, यह उससे कैसे सहा जाता?
उसने आगे बढ़ कर कहा - पहले मैंने देखा था। तभी दौड़ी। बहन ने तो पीछे से देखा।
सोना इस दावे को स्वीकार न कर सकी। बोली - तूने भैया को कहाँ पहचाना? तू तो कहती थी, कोई गाय भागी आ रही है। मैंने ही कहा - भैया हैं।
दोनों फिर बाग की तरफ दौड़ीं, गाय का स्वागत करने के लिए।
धनिया और होरी दोनों गाय बाँधने का प्रबंध करने लगे। होरी बोला - चलो, जल्दी से नाँद गाड़ दें।
धनिया के मुख पर जवानी चमक उठी थी। नहीं, पहले थाली में थोड़ा-सा आटा और गुड़ घोल कर रख दें। बेचारी धूप में चली होगी। प्यासी होगी। तुम जा कर नाँद गाड़ो, मैं घोलती हूँ।
'कहीं एक घंटी पड़ी थी। उसे ढूँढ़ ले। उसके गले में बाँधेंगे।'
'सोना कहाँ गई? सहुआइन की दुकान से थोड़ा-सा काला डोरा मँगवा लो, गाय को नजर बहुत लगती है।'
'आज मेरे मन की बड़ी भारी लालसा पूरी हो गई।'
धनिया अपने हार्दिक उल्लास को दबाए रखना चाहती थी। इतनी बड़ी संपदा अपने साथ कोई नई बाधा न लाए, यह शंका उसके निराश हृदय में कंपन डाल रही थी। आकाश की ओर देख कर बोली - गाय के आने का आनंद तो तब है कि उसका पौरा भी अच्छा हो। भगवान के मन की बात है।
मानो वह भगवान को भी धोखा देना चाहती थी। भगवान को भी दिखाना चाहती थी कि इस गाय के आने से उसे इतना आनंद नहीं हुआ किर ईर्ष्यालु भगवान सुख का पलड़ा ऊँचा करने के लिए कोई नई विपत्ति भेज दें।
वह अभी आटा घोल ही रही थी कि गोबर गाय को लिए बालकों के एक जुलूस के साथ द्वार पर आ पहुँचा। होरी दौड़ कर गाय के गले से लिपट गया। धनिया ने आटा छोड़ दिया और जल्दी से एक पुरानी साड़ी का काला किनारा फाड़ कर गाय के गले में बाँध दिया।
होरी श्रद्धा-विह्वल नेत्रों से गाय को देख रहा था, मानो साक्षात देवी जी ने घर में पदार्पण किया हो। आज भगवान ने यह दिन दिखाया कि उसका घर गऊ के चरणों से पवित्र हो गया। यह सौभाग्य! न जाने किसके पुण्य-प्रताप से।
धनिया ने भयातुर हो कर कहा - खड़े क्या हो, आँगन में नाँद गाड़ दो।
'आँगन में जगह कहाँ है?'
'बहुत जगह है।'
'मैं तो बाहर ही गाड़ता हूँ'।
'पागल न बनो। गाँव का हाल जान कर भी अनजान बनते हो?'
'अरे, बित्ते-भर के आँगन में गाय कहाँ बाँधोगी भाई?'
'जो बात नहीं जानते, उसमें टाँग मत अड़ाया करो। संसार-भर की विद्दा तुम्हीं नहीं पढ़े हो।'
होरी सचमुच आपे में न था। गऊ उसके लिए केवल भक्ति और श्रद्धा की वस्तु नहीं, सजीव संपत्ति थी। वह उससे अपने द्वार की शोभा और अपने घर का गौरव बढ़ाना चाहता था। वह चाहता था, लोग गाय को द्वार पर बँधी देख कर पूछें - यह किसका घर है? लोग कहें - होरी महतो का। तभी लड़की वाले भी उसकी विभूति से प्रभावित होंगे। आँगन में बँधी, तो कौन देखेगा? धनिया इसके विपरीत सशंक थी। वह गाय को सात परदों के अंदर छिपा कर रखना चाहती थी। अगर गाय आठों पहर कोठरी में रह सकती, तो शायद वह उसे बाहर न निकलने देती। यों हर बात में होरी की जीत होती थी। वह अपने पक्ष पर अड़ जाता था और धनिया को दबना पड़ता था, लेकिन आज धनिया के सामने होरी की एक न चली। धनिया लड़ने को तैयार हो गई। गोबर, सोना और रूपा, सारा घर होरी के पक्ष में था, पर धनिया ने अकेले सबको परास्त कर दिया। आज उसमें एक विचित्र आत्मविश्वास और होरी में एक विचित्र विनय का उदय हो गया था।
मगर तमाशा कैसे रूक सकता था? गाय डोली में बैठ कर तो आई न थी। कैसे संभव था कि गाँव में इतनी बड़ी बात हो जाय और तमाशा न लगे। जिसने सुना, सब काम छोड़ कर देखने दौड़ा। यह मामूली देशी गऊ नहीं है। भोला के घर से अस्सी रुपए में आई है। होरी अस्सी रुपए क्या देंगे, पचास-साठ रुपए में लाए होंगे। गाँव के इतिहास में पचास-साठ रुपए की गाय का आना भी अभूतपूर्व बात थी। बैल तो पचास रुपए के भी आए, सौ के भी आए, लेकिन गाय के लिए इतनी बड़ी रकम किसान क्या खा के खर्च करेगा? यह तो ग्वालों ही का कलेजा है कि अंजुलियों रुपए गिन आते हैं। गाय क्या है, साक्षात देवी का रूप है। दर्शकों और आलोचकों का ताँता लगा हुआ था, और होरी दौड़-दौड़ कर सबका सत्कार कर रहा था। इतना विनम्र, इतना प्रसन्न-चित्त वह कभी न था।
सत्तर साल के बूढ़े पंडित दातादीन लठिया टेकते हुए आए और पोपले मुँह से बोले - कहाँ हो होरी, तनिक हम भी तुम्हारी गाय देख लें! सुना, बड़ी सुंदर है।
होरी ने दौड़ कर पालागन किया और मन में अभिमानमय उल्लास का आनंद उठाता हुआ, बड़े सम्मान से पंडितजी को आँगन में ले गया। महाराज ने गऊ को अपने पुरानी अनुभवी आँखों से देखा, सींगें देखीं, थन देखा, पुट्टा देखा और घनी सफेद भौंहों के नीचे छिपी हुई आँखों में जवानी की उमंग भर कर बोले - कोई दोष नहीं है बेटा, बाल-भौंरी, सब ठीक। भगवान चाहेंगे, तो तुम्हारे भाग खुल जाएँगे, ऐसे अच्छे लच्छन हैं कि वाह! बस रातिब न कम होने पाए। एक-एक बाछा सौ-सौ का होगा।
होरी ने आनंद के सागर में डुबकियाँ खाते हुए कहा - सब आपका असीरबाद है, दादा!
दातादीन ने सुरती की पीक थूकते हुए कहा - मेरा असीरबाद नहीं है बेटा, भगवान की दया है। यह सब प्रभु की दया है। रुपए नगद दिए?
होरी ने बे-पर की उड़ाई। अपने महाजन के सामने भी अपने समृद्धि-प्रदर्शन का ऐसा अवसर पा कर वह कैसे छोड़े। टके की नई टोपी सिर पर रख कर जब हम अकड़ने लगते हैं, जरा देर के लिए किसी सवारी पर बैठ कर जब हम आकाश में उड़ने लगते हैं, तो इतनी बड़ी विभूति पा कर क्यों न उसका दिमाग आसमान पर चढ़े? बोला - भोला ऐसा भलामानस नहीं है महाराज! नगद गिनाए, पूरे चौकस।
अपने महाजन के सामने यह डींग मार कर होरी ने नादानी तो की थी, पर दातादीन के मुख पर असंतोष का कोई चिह्न न दिखाई दिया। इस कथन में कितना सत्य है, यह उनकी उन बुझी आँखों से छिपा न रह सका, जिनमें ज्योति की जगह अनुभव छिपा बैठा था।
प्रसन्न हो कर बोले - कोई हरज नहीं बेटा, कोई हरज नहीं। भगवान सब कल्याण करेंगे। पाँच सेर दूध है इसमें, बच्चे के लिए छोड़ कर।
धनिया ने तुरंत टोका - अरे नहीं महाराज, इतना दूध कहाँ। बुढ़िया तो हो गई है। फिर यहाँ रातिब कहाँ धरा है।
दातादीन ने मर्म-भरी आँखों से देख कर उसकी सतर्कता को स्वीकार किया, मानो कह रहे हों, गृहिणी का यही धर्म है, सीटना मरदों का काम है, उन्हें सीटने दो।' फिर रहस्य-भरे स्वर में बोले - बाहर न बाँधना, इतना कहे देते हैं।
धनिया ने पति की ओर विजयी आँखों से देखा, मानो कह रही हो। लो, अब तो मानोगे।
दातादीन से बोली - नहीं महाराज, बाहर क्या बाँधेगे, भगवान दें तो इसी आँगन में तीन गाएँ और बँधा सकती हैं।
सारा गाँव गाय देखने आया। नहीं आए तो सोभा और हीरा, जो अपने सगे भाई थे। होरी के हृदय में भाइयों के लिए अब भी कोमल स्थान था। वह दोनों आ कर देख लेते और प्रसन्न हो जाते तो उसकी मनोकामना पूरी हो जाती। साँझ हो गई। दोनों पुर ले कर लौट आए। इसी द्वार से निकले, पर पूछा कुछ नहीं।
होरी ने डरते-डरते धनिया से कहा - न सोभा आया, न हीरा। सुना न होगा?
धनिया बोली - तो यहाँ कौन उन्हें बुलाने जाता है।
'तू बात तो समझती नहीं। लड़ने के लिए तैयार रहती है। भगवान ने जब यह दिन दिखाया है, तो हमें सिर झुका कर चलना चाहिए। आदमी को अपने सगों के मुँह से अपने भलाई-बुराई सुनने की जितनी लालसा होती है, बाहर वालों के मुँह से नहीं। फिर अपने भाई लाख बुरे हों, हैं तो अपने भाई ही। अपने हिस्से-बखरे के लिए सभी लड़ते हैं, पर इससे खून थोड़े ही बँट जाता है। दोनों को बुला कर दिखा देना चाहिए, नहीं कहेंगे गाय लाए, हमसे कहा, तक नहीं।'
धनिया ने नाक सिकोड़ कर कहा - मैंने तुमसे सौ बार, हजार बार कह दिया, मेरे मुँह पर भाइयों का बखान न किया करो, उनका नाम सुन कर मेरी देह में आग लग जाती है। सारे गाँव ने सुना, क्या उन्होंने न सुना होगा? कुछ इतनी दूर भी तो नहीं रहते। सारा गाँव देखने आया, उन्हीं के पाँवों में मेंहदी लगी हुई थी, मगर आएँ कैसे ? जलन हो रही होगी कि इसके घर गाय आ गई। छाती फटी जाती होगी।
दिया-बत्ती का समय आ गया था। धनिया ने जा कर देखा, तो बोतल में मिट्टी का तेल न था। बोतल उठा कर तेल लाने चली गई। पैसे होते तो रूपा को भेजती, उधार लाना था, कुछ मुँह देखी कहेगी, कुछ लल्लो-चप्पो करेगी, तभी तो तेल उधार मिलेगा।
होरी ने रूपा को बुला कर प्यार से गोद में बैठाया और कहा - जरा जा कर देख, हीरा काका आ गए कि नहीं। सोभा काका को भी देखती आना। कहना, दादा ने तुम्हें बुलाया है। न आएँ, हाथ पकड़ कर खींच लाना।
रूपा ठुनक कर बोली - छोटी काकी मुझे डाँटती है।
'काकी के पास क्या करने जायगी! फिर सोभा-बहू तो तुझे प्यार करती है?'
'सोभा काका मुझे चिढ़ाते हैं? मैं न कहूँगी।'
'क्या कहते हैं, बता?'
'चिढ़ाते हैं।'
'क्या कह कर चिढ़ाते हैं?'
'कहते हैं, तेरे लिए मूस पकड़ रखा है। ले जा, भून कर खा ले।'
होरी के अंतस्तल में गुदगुदी हुई।
'तू कहती नहीं, पहले तुम खा लो, तो मैं खाऊँगी।'
'अम्माँ मने करती हैं। कहती हैं, उन लोगों के घर न जाया करो।'
'तू अम्माँ की बेटी है कि दादा की?'
रूपा ने उसके गले में हाथ डाल कर कहा - अम्माँ की और हँसने लगी।
'तो फिर मेरी गोद से उतर जा। आज मैं तुझे अपने थाली में न खिलाऊँगा।'
घर में एक ही फूल की थाली थी। होरी उसी थाली में खाता था। थाली में खाने का गौरव पाने के लिए रूपा होरी के साथ खाती थी। इस गौरव का परित्याग कैसे करे? हुमक कर बोली - अच्छा, तुम्हारी।
'तो फिर मेरा कहना मानेगी कि अम्माँ का?
'तुम्हारा।'
'तो जा कर हीरा और सोभा को खींच ला।'
'और जो अम्माँ बिगड़ें?'
'अम्माँ से कहने कौन जायगा।'
रूपा कूदती हुई हीरा के घर चली। द्वेष का मायाजाल बड़ी-बड़ी मछलियों को ही फँसाता है। छोटी मछलियाँ या तो उसमें फँसती ही नहीं या तुरंत निकल जाती हैं। उनके लिए वह घातक जाल क्रीड़ा की वस्तु है, भय की नहीं। भाइयों से होरी की बोलचाल बंद थी, पर रूपा दोनों घरों में आती-जाती थी। बच्चों से क्या बैर।
लेकिन रूपा घर से निकली ही थी कि धनिया तेल लिए मिल गई। उसने पूछा - साँझ की बेला कहाँ जाती है, चल घर।
रूपा माँ को प्रसन्न करने के प्रलोभन को न रोक सकी।
धनिया ने डाँटा - चल घर, किसी को बुलाने नहीं जाना है।
रूपा का हाथ पकड़े हुए वह घर आई और होरी से बोली - मैंने तुमसे हजार बार कह दिया, मेरे लड़कों को किसी के घर न भेजा करो। किसी ने कुछ कर-करा दिया, तो मैं तुम्हें ले कर चाटूँगी? ऐसा ही बड़ा परेम है, तो आप क्यों नहीं जाते? अभी पेट नहीं भरा जान पड़ता है।
होरी नाँद जमा रहा था। हाथों में मिट्टी लपेटे हुए अज्ञान का अभिनय करके बोला - किस बात पर बिगड़ती है भाई? यह तो अच्छा नहीं लगता कि अंधे कूकुर की तरह हवा को भूँका करे।
धनिया को कुप्पी में तेल डालना था। इस समय झगड़ा न बढ़ाना चाहती थी। रूपा भी लड़कों में जा मिली।
पहर रात से ज्यादा जा चुकी थी। नाँद गड़ चुकी थी। सानी और खली डाल दी गई थी। गाय मन मारे उदास बैठी थी, जैसे कोई वधू ससुराल आई हो। नाँद में मुँह तक न डालती थी। होरी और गोबर खा कर आधी-आधी रोटियाँ उसके लिए लाए, पर उसने सूँघा तक नहीं। मगर यह कोई नई बात न थी। जानवरों को भी बहुधा घर छूट जाने का दु:ख होता है।
होरी बाहर खाट पर बैठ कर चिलम पीने लगा, तो फिर भाइयों की याद आई। नहीं, आज इस शुभ अवसर पर वह भाइयों की उपेक्षा नहीं कर सकता। उसका हृदय यह विभूति पा कर विशाल हो गया था। भाइयों से अलग हो गया है, तो क्या हुआ। उनका दुश्मन तो नहीं है। यही गाय तीन साल पहले आई होती, तो सभी का उस पर बराबर अधिकार होता। और कल को यही गाय दूध देने लगेगी, तो क्या वह भाइयों के घर दूध न भेजेगा या दही न भेजेगा? ऐसा तो उसका धरम नहीं है। भाई उसका बुरा चेतें, वह क्यों उनका बुरा चेते? अपनी-अपनी करनी तो अपने-अपने साथ है।
उसने नारियल खाट के पाए से लगा कर रख दिया और हीरा के घर की ओर चला। सोभा का घर भी उधर ही था। दोनों अपने-अपने द्वार पर लेटे हुए थे। काफी अँधेरा था। होरी पर उनमें से किसी की निगाह नहीं पड़ी। दोनों में कुछ बातें हो रही थीं। होरी ठिठक गया और उनकी बातें सुनने लगा। ऐसा आदमी कहाँ है, जो अपने चर्चा सुन कर टाल जाय?
हीरा ने कहा - जब तक एक में थे, एक बकरी भी नहीं ली। अब पछाईं गाय ली जाती है। भाई का हक मार कर किसी को फलते-फूलते नहीं देखा।
सोभा बोला - यह तुम अन्याय कर रहे हो हीरा! भैया ने एक-एक पैसे का हिसाब दे दिया था। यह मैं कभी न मानूँगा कि उन्होंने पहले की कमाई छिपा रखी थी।
'तुम मानो चाहे न मानो, है यह पहले की कमाई।'
'अच्छा, तो यह रुपए कहाँ से आ गए? कहाँ से हुन बरस पड़ा? उतने ही खेत तो हमारे पास भी हैं। उतनी ही उपज हमारी भी है। फिर क्यों हमारे पास कफन को कौड़ी नहीं और उनके घर नई गाय आती है?'
'उधार लाए होंगे।'
'भोला उधार देने वाला आदमी नहीं है।'
'कुछ भी हो, गाय है बड़ी सुंदर। गोबर लिए जाता था, तो मैंने रास्ते में देखा।'
'बेईमानी का धन जैसे आता है, वैसे ही जाता है। भगवान चाहेंगे, तो बहुत दिन गाय घर में न रहेगी।'
होरी से और न सुना गया। वह बीती बातों को बिसार कर अपने हृदय में स्नेह और सौहार्द-भरे, भाइयों के पास आया था। इस आघात ने जैसे उसके हृदय में छेद कर दिया और वह रस-भाव उसमें किसी तरह नहीं टिक रहा था। लत्ते और चिथड़े ठूँस कर अब उस प्रवाह को नहीं रोक सकता। जी में एक उबाल आया कि उसी क्षण इस आक्षेप का जवाब दे, लेकिन बात बढ़ जाने के भय से चुप रह गया। अगर उसकी नीयत साफ है, तो कोई कुछ नहीं कर सकता। भगवान के सामने वह निर्दोष है। दूसरों की उसे परवाह नहीं। उलटे पाँव लौट आया। और वह जला हुआ तंबाकू पीने लगा। लेकिन जैसे वह विष प्रतिक्षण उसकी धमनियों में फैलता जाता था। उसने सो जाने का प्रयास किया, पर नींद न आई। बैलों के पास जा कर उन्हें सहलाने लगा, विष शांत न हुआ। दूसरी चिलम भरी, लेकिन उसमें भी कुछ रस न था। विष ने जैसे चेतना को आक्रांत कर दिया हो। जैसे नशे में चेतना एकांगी हो जाती है, जैसे फैला हुआ पानी एक दिशा में बह कर वेगवान हो जाता है, वही मनोवृत्ति उसकी हो रही थी। उसी उन्माद की दशा में वह अंदर गया। अभी द्वार खुला हुआ था। आँगन में एक किनारे चटाई पर लेटी हुई धनिया सोना से देह दबवा रही थी और रूपा जो रोज साँझ होते ही सो जाती थी, आज खड़ी गाय का मुँह सहला रही थी। होरी ने जा कर गाय को खूँटे से खोल लिया और द्वार की ओर ले चला। वह इसी वक्त गाय को भोला के घर पहुँचाने का दृढ़ निश्चय कर चुका था। इतना बड़ा कलंक सिर पर ले कर वह अब गाय को घर में नहीं रख सकता। किसी तरह नहीं।
धनिया ने पूछा - कहाँ लिए जाते हो रात को?
होरी ने एक पग बढ़ा कर कहा - ले जाता हूँ भोला के घर। लौटा दूँगा।
धनिया को विस्मय हुआ, उठ कर सामने आ गई और बोली - लौटा क्यों दोगे? लौटाने के लिए ही लाए थे?
'हाँ, इसके लौटा देने में ही कुसल है।'
'क्यों बात क्या है - इतने अरमान से लाए और अब लौटाने जा रहे हो? क्या भोला रुपए माँगते हैं?
'नहीं, भोला यहाँ कब आया।'
'तो फिर क्या बात हुई।'
'क्या करोगी पूछ कर?'
धनिया ने लपक कर पगहिया उसके हाथ से छीन ली। उसकी चपल बुद्धि ने जैसे उड़ती हुई चिड़िया पकड़ ली। बोली - तुम्हें भाइयों का डर हो, तो जा कर उनके पैरों पर गिरो। मैं किसी से नहीं डरती। अगर हमारी बढ़ती देख कर किसी की छाती फटती है, तो फट जाय, मुझे परवाह नहीं है।
होरी ने विनीत स्वर में कहा - धीरे-धीरे बोल महरानी! कोई सुने, तो कहे, ये सब इतनी रात गए लड़ रहे हैं! मैं अपने कानों से क्या सुन आया हूँ, तू क्या जाने! यहाँ चरचा हो रही है कि मैंने अलग होते समय रुपए दबा लिए थे और भाइयों को धोखा दिया था, यही रुपए अब निकल रहे हैं।'
'हीरा कहता होगा?'
'सारा गाँव कह रहा है। हीरा को क्यों बदनाम करूँ।'
'सारा गाँव नहीं कह रहा है, अकेला हीरा कह रहा है। मैं अभी जा कर पूछती हूँ न कि तुम्हारे बाप कितने रुपए छोड़ कर मरे थे? डाढ़ीजारों के पीछे हम बरबाद हो गए। सारी जिंदगी मिट्टी में मिला दी, पाल-पोस कर संडा किया, और अब हम बेईमान हैं। मैं कह देती हूँ, अगर गाय घर के बाहर निकली, तो अनर्थ हो जायगा। रख लिए हमने रुपए, दबा लिए, बीच खेत दबा लिए। डंके की चोट कहती हूँ, मैंने हंडे भर असर्फियाँ छिपा लीं। हीरा और सोभा और संसार को जो करना हो, कर ले। क्यों न रुपए रख लें? दो-दो संडों का ब्याह नहीं किया, गौना नहीं किया?'
होरी सिटपिटा गया। धनिया ने उसके हाथ से पगहिया छीन ली, और गाय को खूँटे से बाँध कर द्वार की ओर चली। होरी ने उसे पकड़ना चाहा, पर वह बाहर जा चुकी थी। वहीं सिर थाम कर बैठ गया। बाहर उसे पकड़ने की चेष्टा करके वह कोई नाटक नहीं दिखाना चाहता था। धनिया के क्रोध को खूब जानता था। बिगड़ती है, तो चंडी बन जाती है। मारो, काटो, सुनेगी नहीं, लेकिन हीरा भी तो एक ही गुस्सेवर है, कहीं हाथ चला दे तो परलै ही हो जाए। नहीं, हीरा इतना मूरख नहीं है। मैंने कहाँ-से-कहाँ यह आग लगा दी! उसे अपने आप पर क्रोध आने लगा। बात मन में रख लेता, तो क्यों यह टंटा खड़ा होता। सहसा धनिया का कर्कश स्वर कान में आया। हीरा की गरज भी सुन पड़ी। फिर पुन्नी की पैनी पीक भी कानों में चुभी। सहसा उसे गोबर की याद आई। बाहर लपक कर उसकी खाट देखी। गोबर वहाँ न था। गजब हो गया। गोबर भी वहाँ पहुँच गया। अब कुशल नहीं। उसका नया खून है, न जाने क्या कर बैठे, लेकिन होरी वहाँ कैसे जाय? हीरा कहेगा, आप तो बोलते नहीं, जा कर इस डाइन को लड़ने के लिए भेज दिया। कोलाहल प्रतिक्षण प्रचंड होता जाता था। सारे गाँव में जाग पड़ गई। मालूम होता था, कहीं आग लग गई है, और लोग खाट से उठ-उठ बुझाने दौड़े जा रहे हैं।
इतनी देर तक तो वह जब्त किए बैठा रहा। फिर न रहा गया। धनिया पर क्रोध आया। वह क्यों चढ़ कर लड़ने गई? अपने घर में आदमी न जाने किसको क्या कहता है। जब तक कोई मुँह पर बात न कहे, यही समझना चाहिए कि उसने कुछ नहीं कहा। होरी की कृषक प्रकृति झगड़े से भागती थी। चार बातें सुन कर गम खा जाना इससे कहीं अच्छा है कि आपस में तनाजा हो। कहीं मार-पीट हो जाय तो थाना-पुलिस हो, बँधे-बँधे फिरो, सबकी चिरौरी करो, अदालत की धूल फाँको, खेती-बारी जहन्नुम में मिल जाए। उसका हीरा पर तो कोई बस न था, मगर धनिया को तो वह जबरदस्ती खींच ला सकता है। बहुत होगा, गालियाँ दे लेगी, एक-दो दिन रुठी रहेगी, थाना-पुलिस की नौबत तो न आएगी। जा कर हीरा के द्वार पर सबसे दूर दीवार की आड़ में खड़ा हो गया। एक सेनापति की भाँति मैदान में आने के पहले परिस्थिति को अच्छी तरह समझ लेना चाहता था। अगर अपने जीत हो रही है, तो बोलने की कोई जरूरत नहीं, हार हो रही है, तो तुरंत कूद पड़ेगा। देखा तो वहाँ पचासों आदमी जमा हो गए हैं। पंडित दातादीन, लाला पटेश्वरी, दोनों ठाकुर, जो गाँव के करता-धरता थे, सभी पहुँचे हुए हैं। धनिया का पल्ला हल्का हो रहा था। उसकी उग्रता जनमत को उसके विरुद्ध किए देती थी। वह रणनीति में कुशल न थी। क्रोध में ऐसी जली-कटी सुना रही थी कि लोगों की सहानुभूति उससे दूर होती जाती थी।
वह गरज रही थी - तू हमें देख कर क्यों जलता है? हमें देख कर क्यों तेरी छाती फटती है? पाल-पोस कर जवान कर दिया, यह उसका इनाम है? हमने न पाला होता तो आज कहीं भीख माँगते होते। ईख की छाँह भी न मिलती।
होरी को ये शब्द जरूरत से ज्यादा कठोर जान पड़े। भाइयों का पालना-पोसना तो उसका धर्म था। उनके हिस्से की जायदाद तो उसके हाथ में थी। कैसे न पालता-पोसता? दुनिया में कहीं मुँह देखाने लायक रहता?
हीरा ने जवाब दिया - हम किसी का कुछ नहीं जानते। तेरे घर में कुत्तों की तरह एक टुकड़ा खाते थे और दिन-दिन भर काम करते थे। जाना ही नहीं कि लड़कपन और जवानी कैसी होती है। दिन-दिन भर सूखा गोबर बीना करते थे। उस पर भी तू बिना दस गाली दिए रोटी न देती थी। तेरी-जैसी राच्छसिन के हाथ में पड़ कर जिंदगी तलख हो गई।
धनिया और भी तेज हुई - जबान सँभाल, नहीं जीभ खींच लूँगी। राच्छसिन तेरी औरत होगी। तू है किस फेर में मूँड़ी-काटे, टुकड़े-खोर, नमक-हराम।
दातादीन ने टोका - इतना कटु वचन क्यों कहती है धनिया? नारी का धरम है कि गम खाय। वह तो उजड्ड है, क्यों उसके मुँह लगती है?
लाला पटेश्वरी पटवारी ने उसका समर्थन किया - बात का जवाब बात है, गाली नहीं। तूने लड़कपन में उसे पाला-पोसा, लेकिन यह क्यों भूल जाती है कि उसकी जायदाद तेरे हाथ में थी?
धनिया ने समझा, सब-के-सब मिल कर मुझे नीचा दिखाना चाहते हैं। चौमुख लड़ाई लड़ने के लिए तैयार हो गई - अच्छा, रहने दो लाला! मैं सबको पहचानती हूँ। इस गाँव में रहते बीस साल हो गए। एक-एक की नस-नस पहचानती हूँ। मैं गाली दे रही हूँ, वह फूल बरसा रहा है, क्यों?
दुलारी सहुआइन ने आग पर घी डाला - बाकी बड़ी गाल-दराज औरत है भाई! मरद के मुँह लगती है। होरी ही जैसा मरद है कि इसका निबाह होता है। दूसरा मरद होता तो एक दिन न पटती।
अगर हीरा इस समय जरा नर्म हो जाता तो उसकी जीत हो जाती, लेकिन ये गालियाँ सुन कर आपे से बाहर हो गया। औरों को अपने पक्ष में देख कर वह कुछ शेर हो रहा था। गला फाड़ कर बोला - चली जा मेरे द्वार से, नहीं जूतों से बात करूँगा। झोंटा पकड़ कर उखाड़ लूँगा। गाली देती है डाइन! बेटे का घमंड हो गया है। खून...
पाँसा पलट गया। होरी का खून खौल उठा। बारूद में जैसे चिनगारी पड़ गई हो। आगे आ कर बोला - अच्छा बस, अब चुप हो जाओ हीरा, अब नहीं सुना जाता। मैं इस औरत को क्या कहूँ! जब मेरी पीठ में धूल लगती है, तो इसी के कारन। न जाने क्यों इससे चुप नहीं रहा जाता।
चारों ओर से हीरा पर बौछार पड़ने लगी। दातादीन ने निर्लज्ज कह - पटेश्वरी ने गुंडा बनाया, झिंगुरीसिंह ने शैतान की उपाधि दी। दुलारी सहुआइन ने कपूत कहा - एक उद्धंड शब्द ने धनिया का पल्ला हल्का कर दिया था। दूसरे उग्र शब्द ने हीरा को गच्चे में डाल दिया। उस पर होरी के संयत वाक्य ने रही-सही कसर भी पूरी कर दी।
हीरा सँभल गया। सारा गाँव उसके विरुद्ध हो गया। अब चुप रहने में ही उसकी कुशल है। क्रोध के नशे में भी इतना होश उसे बाकी था।
धनिया का कलेजा दूना हो गया। होरी से बोली - सुन लो कान खोल के। भाइयों के लिए मरते हो। यह भाई हैं, ऐसे भाई को मुँह न देखे। यह मुझे जूतों से मारेगा। खिला-पिला..........
होरी ने डाँटा - फिर क्यों बक-बक करने लगी तू! घर क्यों नहीं जाती?
धनिया जमीन पर बैठ गई और आर्त स्वर में बोली - अब तो इसके जूते खा के जाऊँगी। जरा इसकी मरदुमी देख लूँ, कहाँ है गोबर? अब किस दिन काम आएगा? तू देख रहा है बेटा, तेरी माँ को जूते मारे जा रहे हैं!
यों विलाप करके उसने अपने क्रोध के साथ होरी के क्रोध को भी क्रियाशील बना डाला। आग को फूँक-फूँक कर उसमें ज्वाला पैदा कर दी। हीरा पराजित-सा पीछे हट गया। पुन्नी उसका हाथ पकड़ कर घर की ओर खींच रही थी। सहसा धनिया ने सिंहनी की भाँति झपट कर हीरा को इतने जोर से धक्का दिया कि वह धम से गिर पड़ा और बोली - कहाँ जाता है, जूते मार, मार जूते, देखूँ तेरी मरदुमी!
होरी ने दौड़ कर उसका हाथ पकड़ लिया और घसीटता हुआ घर ले चला।
गोदान प्रेमचंद उपन्यास / Godan Premchand Novel / अध्याय-5
उधर गोबर खाना खा कर अहिराने में जा पहुँचा। आज झुनिया से उसकी बहुत-सी बातें हुई थीं। जब वह गाय ले कर चला था, तो झुनिया आधे रास्ते तक उसके साथ आई थी। गोबर अकेला गाय को कैसे ले जाता! अपरिचित व्यक्ति के साथ जाने में उसे आपत्ति होना स्वाभाविक था। कुछ दूर चलने के बाद झुनिया ने गोबर को मर्म-भरी आँखों से देख कर कहा - अब तुम काहे को यहाँ कभी आओगे?
एक दिन पहले तक गोबर कुमार था। गाँव में जितनी युवतियाँ थीं, वह या तो उसकी बहनें थीं या भाभियाँ। बहनों से तो कोई छेड़छाड़ हो ही क्या सकती थी, भाभियाँ अलबत्ता कभी-कभी उससे ठिठोली किया करती थीं, लेकिन वह केवल सरल विनोद होता था। उनकी दृष्टि में अभी उसके यौवन में केवल फूल लगे थे। जब तक फल न लग जायँ, उस पर ढेले फेंकना व्यर्थ की बात थी। और किसी ओर से प्रोत्साहन न पा कर उसका कौमार्य उसके गले से चिपटा हुआ था। झुनिया का वंचित मन, जिसे भाभियों के व्यंग और हास-विलास ने और भी लोलुप बना दिया था, उसके कौमार्य ही पर ललचा उठा। और उस कुमार में भी पत्ता खड़कते ही किसी सोए हुए शिकारी जानवर की तरह यौवन जाग उठा।
गोबर ने आवरणहीन रसिकता के साथ कहा - अगर भिक्षुक को भीख मिलने की आसा हो, तो वह दिन-भर और रात-भर दाता के द्वार पर खड़ा रहे।
झुनिया ने कटाक्ष करके कहा - तो यह कहो, तुम भी मतलब के यार हो।
गोबर की धमनियों का रक्त प्रबल हो उठा। बोला - भूखा आदमी अगर हाथ फैलाए तो उसे क्षमा कर देना चाहिए।
झुनिया और गहरे पानी में उतरी - भिक्षुक जब तक दस द्वारे न जाय, उसका पेट कैसे भरेगा? मैं ऐसे भिक्षुकों को मुँह नहीं लगाती। ऐसे तो गली-गली मिलते हैं। फिर भिक्षुक देता क्या है, असीस! असीसों से तो किसी का पेट नहीं भरता।
मंद-बुद्धि गोबर झुनिया का आशय न समझ सका। झुनिया छोटी-सी थी, तभी से ग्राहकों के घर दूध ले कर जाया करती थी। ससुराल में उसे ग्राहकों के घर दूध पहुँचाना पड़ता था। आजकल भी दही बेचने का भार उसी पर था। उसे तरह-तरह के मनुष्यों से साबिका पड़ चुका था। दो-चार रुपए उसके हाथ लग जाते थे, घड़ी-भर के लिए मनोरंजन भी हो जाता था, मगर यह आनंद जैसे मँगनी की चीज हो। उसमें टिकाव न था, समर्पण न था, अधिकार न था। वह ऐसा प्रेम चाहती थी, जिसके लिए वह जिए और मरे, जिस पर वह अपने को समर्पित कर दे। वह केवल जुगनू की चमक नहीं, दीपक का स्थायी प्रकाश चाहती थी। वह एक गृहस्थ की बालिका थी, जिसके गृहिणीत्व को रसिकों की लगावटबाजियों ने कुचल नहीं पाया था।
गोबर ने कामना से उदीप्त मुख से कहा - भिक्षुक को एक ही द्वार पर भरपेट मिल जाय, तो क्यों द्वार-द्वार घूमे?
झुनिया ने सदय भाव से उसकी ओर ताका। कितना भोला है, कुछ समझता ही नहीं।
'भिक्षुक को एक द्वार पर भरपेट कहाँ मिलता है। उसे तो चुटकी ही मिलेगी। सर्बस तो तभी पाओगे, जब अपना सर्बस दोगे।'
'मेरे पास क्या है झुनिया?'
'तुम्हारे पास कुछ नहीं है? मैं तो समझती हूँ, मेरे लिए तुम्हारे पास जो कुछ है, वह बड़े-बड़े लखपतियों के पास नहीं है। तुम मुझसे भीख न माँग कर मुझे मोल ले सकते हो।'
गोबर उसे चकित नेत्रों से देखने लगा।
झुनिया ने फिर कहा - और जानते हो, दाम क्या देना होगा? मेरा हो कर रहना पड़ेगा। फिर किसी के सामने हाथ फैलाए देखूँगी, तो घर से निकाल दूँगी।
गोबर को जैसे अँधेरे में टटोलते हुए इच्छित वस्तु मिल गई। एक विचित्र भयमिश्रित आनंद से उसका रोम-रोम पुलकित हो उठा। लेकिन यह कैसे होगा? झुनिया को रख ले, तो रखेली को ले कर घर में रहेगा कैसे। बिरादरी का झंझट जो है। सारा गाँव काँव-काँव करने लगेगा। सभी दुसमन हो जाएँगे। अम्माँ तो इसे घर में घुसने भी न देगी। लेकिन जब स्त्री हो कर यह नहीं डरती, तो पुरुष हो कर वह क्यों डरे? बहुत होगा, लोग उसे अलग कर देंगे। वह अलग ही रहेगा। झुनिया जैसी औरत गाँव में दूसरी कौन है? कितनी समझदारी की बातें करती है। क्या जानती नहीं कि मैं उसके जोग नहीं हूँ, फिर भी मुझसे प्रेम करती है। मेरी होने को राजी है। गाँव वाले निकाल देंगे, तो क्या संसार में दूसरा गाँव ही नहीं है? और गाँव क्यों छोड़े? मातादीन ने चमारिन बैठी ली, तो किसी ने क्या कर लिया? दातादीन दाँत कटकटा कर रह गए। मातादीन ने इतना जरूर किया कि अपना धरम बचा लिया। अब भी बिना असनान-पूजा किए मुँह में पानी नहीं डालते। दोनों जून अपना भोजन आप पकाते हैं और अब तो अलग भोजन भी नहीं पकाते। दातादीन और वह साथ बैठ कर खाते हैं। झिंगुरीसिंह ने बाम्हनी रख ली, उनका किसी ने क्या कर लिया? उनका जितना आदर-मान तब था, उतना ही आज भी है, बल्कि और बढ़ गया। पहले नौकरी खोजते फिरते थे। अब उसके रुपए से महाजन बन बैठे। ठकुराई का रोब तो था ही, महाजनी का रोब भी जम गया। मगर फिर खयाल आया, कहीं झुनिया दिल्लगी न कर रही हो। पहले इसकी ओर से निश्चिंत हो जाना आवश्यक था।
उसने पूछा - मन से कहती हो झूना कि खाली लालच दे रही हो? मैं तो तुम्हारा हो चुका, लेकिन तुम भी मेरी हो जाओगी?
'तुम मेरे हो चुके, कैसे जानूँ?'
'तुम जान भी चाहो, तो दे दूँ'।
'जान देने का अरथ भी समझते हो'
'तुम समझा दो न।'
'जान देने का अरथ है, साथ रह कर निबाह करना। एक बार हाथ पकड़ कर उमिर भर निबाह करते रहना, चाहे दुनिया कुछ कहे, चाहे माँ-बाप, भाई-बंद, घर-द्वार सब कुछ छोड़ना पड़े। मुँह से जान देने वाले बहुतों को देख चुकी। भौरों की भाँति फूल का रस ले कर उड़ जाते हैं। तुम भी वैसे ही न उड़ जाओगे?'
गोबर के एक हाथ में गाय की पगहिया थी। दूसरे हाथ से उसने झुनिया का हाथ पकड़ लिया। जैसे बिजली के तार पर हाथ पड़ गया हो। सारी देह यौवन के पहले स्पर्श से काँप उठी। कितनी मुलायम, गुदगुदी, कोमल कलाई।
झुनिया ने उसका हाथ हटाया नहीं, मानो इस स्पर्श का उसके लिए कोई महत्व ही न हो। फिर एक क्षण के बाद गंभीर भाव से बोली - आज तुमने मेरा हाथ पकड़ा है, याद रखना।
'खूब याद रखूँगा झूना और मरते दम तक निबाहूँगा।'
झुनिया अविश्वास-भरी मुस्कान से बोली - इसी तरह तो सब कहते हैं गोबर! बल्कि इससे भी मीठे, चिकने शब्दों में। अगर मन में कपट हो, मुझे बता दो। सचेत हो जाऊँ। ऐसों को मन नहीं देती। उनसे तो खाली हँस-बोल लेने का नाता रखती हूँ। बरसों से दूध ले कर बाजार जाती हूँ। एक-से-एक बाबू, महाजन, ठाकुर, वकील, अमले, अफसर अपना रसियापन दिखा कर मुझे फँसा लेना चाहते हैं। कोई छाती पर हाथ रख कर कहता है, झुनिया, तरसा मत, कोई मुझे रसीली, नसीली चितवन से घूरता है, मानो मारे प्रेम के बेहोस हो गया है, कोई रूपया दिखाता है, कोई गहने। सब मेरी गुलामी करने को तैयार रहते हैं, उमिर-भर, बल्कि उस जनम में भी, लेकिन मैं उन सबों की नस पहचानती हूँ। सब-के-सब भौंरे रस ले कर उड़ जाने वाले। मैं भी उन्हें ललचाती हूँ, तिरछी नजरों से देखती हूँ, मुस्कराती हूँ। वह मुझे गधी बनाते हैं, मैं उन्हें उल्लू बनाती हूँ। मैं मर जाऊँ, तो उनकी आँखों में आँसू न आएगा। वह मर जायँ, तो मैं कहूँगी, अच्छा हुआ, निगोड़ा मर गया। मैं तो जिसकी हो जाऊँगी, उसकी जनम-भर के लिए हो जाऊँगी, सुख में, दु:ख में, संपत में, विपत में, उसके साथ रहूँगी। हरजाई नहीं हूँ कि सबसे हँसती-बोलती फिरूँ। न रुपए की भूखी हूँ, न गहने-कपड़े की। बस भले आदमी का संग चाहती हूँ, जो मुझे अपना समझे और जिसे मैं भी अपना समझूँ। एक पंडित जी बहुत तिलक-मुद्रा लगाते हैं। आधा सेर दूध लेते हैं। एक दिन उनकी घरवाली कहीं नेवते में गई थी। मुझे क्या मालूम और दिनों की तरह दूध लिए भीतर चली गई। वहाँ पुकारती हूँ, बहूजी, बहूजी! कोई बोलता ही नहीं। इतने में देखती हूँ तो पंडित जी बाहर के किवाड़ बंद किए चले आ रहे हैं। मैं समझ गई इसकी नीयत खराब है। मैंने डाँट कर पूछा - तुमने किवाड़ क्यों बंद कर लिए? क्या बहूजी कहीं गई हैं? घर में सन्नाटा क्यों है?
उसने कहा - वह एक नेवते में गई हैं, और मेरी ओर दो पग और बढ़ आया।
मैंने कहा - तुम्हें दूध लेना हो तो लो, नहीं मैं जाती हूँ। बोला - आज तो तुम यहाँ से न जाने पाओगी झूनी रानी! रोज-रोज कलेजे पर छुरी चला कर भाग जाती हो, आज मेरे हाथ से न बचोगी। तुमसे सच कहती हूँ, गोबर, मेरे रोएँ खड़े हो गए।
गोबर आवेश में आ कर बोला - मैं बचा को देख पाऊँ, तो खोद कर जमीन में गाड़ दूँ। खून चूस लूँ। तुम मुझे दिखा तो देना।
सुनो तो, ऐसों का मुँह तोड़ने के लिए मैं ही काफी हूँ। मेरी छाती धक-धक करने लगी। यह कुछ बदमासी कर बैठे, तो क्या करूँगी? कोई चिल्लाना भी तो न सुनेगा, लेकिन मन में यह निश्चय कर लिया था कि मेरी देह छुई, तो दूध की भरी हाँड़ी उसके मुँह पर पटक दूँगी। बला से चार-पाँच सेर दूध जायगा बचा को याद तो हो जायगा। कलेजा मजबूत करके बोली - इस फेर में न रहना पंडित जी! मैं अहीर के लड़की हूँ। मूँछ का एक-एक बाल नुचवा लूँगी। यही लिखा है तुम्हारे पोथी-पत्रों में कि दूसरों की बहू-बेटी को अपने घर में बंद करके बेइज्जत करो। इसीलिए तिलक-मुद्रा का जाल बिछाए बैठे हो? लगा हाथ जोड़ने, पैरों पड़ने, एक प्रेमी का मन रख दोगी, तो तुम्हारा क्या बिगड़ जायगा झूना रानी! कभी-कभी गरीबों पर दया किया करो, नहीं भगवान पूछेंगे, मैंने तुम्हें इतना रूप-धन दिया था, तुमने उससे एक ब्राह्मण का उपकार भी नहीं किया, तो क्या जवाब दोगी? बोले, मैं विप्र हूँ, रूपय-पैसे का दान तो रोज ही पाता हूँ, आज रूप का दान दे दो।
मैंने यों ही उसका मन परखने को कह दिया, मैं पचास रुपए लूँगी। सच कहती हूँ गोबर, तुरंत कोठरी में गया और दस-दस के पाँच नोट निकाल कर मेरे हाथों में देने लगा और जब मैंने नोट जमीन पर गिरा दिए और द्वार की ओर चली, तो उसने मेरा हाथ पकड़ लिया। मैं तो पहले ही से तैयार थी। हाँड़ी उसके मुँह पर दे मारी। सिर से पाँव तक सराबोर हो गया। चोट भी खूब लगी। सिर पकड़ कर बैठ गया और लगा हाय-हाय करने। मैंने देखा, अब यह कुछ नहीं कर सकता, तो पीठ में दो लातें जमा दीं और किवाड़ खोल कर भागी।
गोबर ठट्ठा मार कर बोला - बहुत अच्छा किया तुमने। दूध से नहा गया होगा। तिलक-मुद्रा भी धुल गई होगी। मूँछें भी क्यों न उखाड़ लीं?
दूसरे दिन मैं फिर उसके घर गई। उसकी घरवाली आ गई थी। अपने बैठक में सिर में पट्टी बाँधे पड़ा था। मैंने कहा - कहो तो कल की तुम्हारी करतूत खोल दूँ पंडित! लगा हाथ जोड़ने। मैंने कहा - अच्छा थूक कर चाटो, तो छोड़ दूँ। सिर जमीन पर रगड़ कर कहने लगा - अब मेरी इज्जत तुम्हारे हाथ है झूना, यही समझ लो कि पंडिताइन मुझे जीता न छोड़ेंगी। मुझे भी उस पर दया आ गई। गोबर को उसकी दया बुरी लगी - यह तुमने क्या किया? उसकी औरत से जा कर कह क्यों नहीं दिया? जूती से पीटती। ऐसे पाखंडियों पर दया न करनी चाहिए। तुम मुझे कल उसकी सूरत दिखा दो, फिर देखना, कैसी मरम्मत करता हूँ।
झुनिया ने उसके अर्द्ध-विकसित यौवन को देख कर कहा - तुम उसे न पाओगे। खास देव है। मुफ्त का माल उड़ाता है कि नहीं।
गोबर अपने यौवन का यह तिरस्कार कैसे सहता? डींग मार कर बोला - मोटे होने से क्या होता है। यहाँ फौलाद की हड्डियाँ हैं। तीन सौ डंड रोज मारता हूँ। दूध-घी नहीं मिलता, नहीं अब तक सीना यों निकल आया होता।
यह कह कर उसने छाती फैला कर दिखाई।
झुनिया ने आश्वस्त आँखों से देखा - अच्छा, कभी दिखा दूँगी लेकिन वहाँ तो सभी एक-से हैं, तुम किस-किसकी मरम्मत करोगे? न जाने मरदों की क्या आदत है कि जहाँ कोई जवान, सुंदर औरत देखी और बस लगे घूरने, छाती पीटने। और यह जो बड़े आदमी कहलाते हैं, ये तो निरे लंपट होते हैं। फिर मैं तो कोई सुंदरी नहीं हूँ...
गोबर ने आपत्ति की, तुम! तुम्हें देख कर तो यही जी चाहता है कि कलेजे में बिठा लें।
झुनिया ने उसकी पीठ में हलका-सा घूँसा जमाया - लगे औरों की तरह तुम भी चापलूसी करने । मैं जैसी कुछ हूँ, वह मैं जानती हूँ। मगर लोगों को तो जवान मिल जाए। घड़ी-भर मन बहलाने को और क्या चाहिए। गुन तो आदमी उसमें देखता है, जिसके साथ जनम-भर निबाह करना हो। सुनती भी हूँ और देखती भी हूँ, आजकल बड़े घरों की विचित्र लीला है। जिस मुहल्ले में मेरी ससुराल है, उसी में गपडू-गपडू नाम के कासमीरी रहते थे। बड़े भारी आदमी थे। उनके यहाँ पाँच-सेर दूध लगता था। उनकी तीन लड़कियाँ थीं। कोई बीस-बीस, पच्चीस-पच्चीस की होगी। एक-से-एक सुंदर। तीनों बड़े कॉलिज में पढ़ने जाती थी। एक साइत कॉलिज में पढ़ाती भी थी। तीन सौ का महीना पाती थी। सितार वह सब बजावें, हरमुनियाँ वह सब बजावें, नाचें वह, गावें वह, लेकिन ब्याह कोई न करती थी। राम जाने, वह किसी मरद को पसंद नहीं करती थीं कि मरद उन्हीं को पसंद नहीं करता था। एक बार मैंने बड़ी बीबी से पूछा, तो हँस कर बोली - हम लोग यह रोग नहीं पालते, मगर भीतर-ही-भीतर खूब गुलछर्रे उड़ाती थीं। जब देखूँ, दो-चार लौंडे उनको घेरे हुए हैं। जो सबसे बड़ी थी, वह तो कोट-पतलून पहन कर घोड़े पर सवार हो कर मरदों के साथ सैर करने जाती थी। सारे सहर में उनकी लीला मशहूर थी। गपड़ू बाबू सिर नीचा किए, जैसे मुँह में कालिख-सी लगाए रहते थे। लड़कियों को डाँटते थे, समझाते थे, पर सब-की-सब खुल्लमखुल्ला कहती थीं - तुमको हमारे बीच में बोलने का कुछ मजाल नहीं है। हम अपने मन की रानी हैं, जो हमारी इच्छा होगी,वह हम करेंगे। बेचारा बाप जवान-जवान लड़कियों से क्या बोले? मारने-बाँधने से रहा, डाँटने-डपटने से रहा, लेकिन भाई, बड़े आदमियों की बातें कौन चलावे। वह जो कुछ करें, सब ठीक है। उन्हें तो बिरादरी और पंचायत का भी डर नहीं। मेरी समझ में तो यही नहीं आता कि किसी का रोज-रोज मन कैसे बदल जाता है। क्या आदमी गाय-बकरी से भी गया-बीता हो गया? लेकिन किसी को बुरा नहीं कहती भाई! मन को जैसा बनाओ, वैसा बनता है। ऐसों को भी देखती हूँ, जिन्हें रोज-रोज की दाल-रोटी के बाद कभी-कभी मुँह का सवाद बदलने के लिए हलवा-पूरी भी चाहिए। और ऐसों को भी देखती हूँ, जिन्हें घर की रोटी-दाल देख कर ज्वर आता है। कुछ बेचारियाँ ऐसी भी हैं, जो अपने रोटी-दाल में ही मगन रहती हैं। हलवा-पूरी से उन्हें कोई मतलब नहीं। मेरी दोनों भावजों ही को देखो। हमारे भाई काने-कुबड़े नहीं हैं, दस जवानों में एक जवान हैं; लेकिन भावजों को नहीं भाते। उन्हें तो वह चाहिए, जो सोने की बालियाँ बनवाए, महीन साड़ियाँ लाए, रोज चाट खिलाए। बालियाँ और साड़ियाँ और मिठाइयाँ मुझे भी कम अच्छी नहीं लगतीं, लेकिन जो कहो कि इसके लिए अपने लाज बेचती फिरूँ तो भगवान इससे बचाएँ। एक के साथ मोटा-झोटा खा-पहन कर उमिर काट देना, बस अपना तो यही राग है। बहुत करके तो मरद ही औरतों को बिगाड़ते हैं। जब मरद इधर-उधर ताक-झाँक करेगा तो औरत भी आँख लड़ाएगी। मरद दूसरी औरतों के पीछे दौड़ेगा, तो औरत भी जरूर मरदों के पीछे दौड़ेगी। मरद का हरजाईपन औरत को भी उतना ही बुरा लगता है, जितना औरत का मरद को। यही समझ लो। मैंने तो अपने आदमी से साफ-साफ कह दिया था, अगर तुम इधर-उधर लपके, तो मेरी जो भी इच्छा होगी, वह करूँगी। यह चाहो कि तुम तो अपने मन की करो और औरत को मार के डर से अपने काबू में रखो, तो यह न होगा, तुम खुले-खजाने करते हो, वह छिप कर करेगी, तुम उसे जला कर सुखी नहीं रह सकते।
गोबर के लिए यह एक नई दुनिया की बातें थीं। तन्मय हो कर सुन रहा था। कभी-कभी तो आप-ही-आप उसके पाँव रूक जाते, फिर सचेत हो कर चलने लगता। झुनिया ने पहले अपने रूप से मोहित किया था। आज उसने अपने ज्ञान और अनुभव से भरी बातें और अपने सतीत्व के बखान से मुग्ध कर लिया। ऐसी रूप, गुण, ज्ञान की आगरी उसे मिल जाय, तो धन्य भाग। फिर वह क्यों पंचायत और बिरादरी से डरे?
झुनिया ने जब देख लिया कि उसका गहरा रंग जम गया, तो छाती पर हाथ रख कर जीभ दाँत से काटती हुई बोली - अरे, यह तो तुम्हारा गाँव आ गया! तुम भी बड़े मुरहे हो, मुझसे कहा भी नहीं कि लौट जाओ।
यह कह कर वह लौट पड़ी।
गोबर ने आग्रह करके कहा - एक छन के लिए मेरे घर क्यों नहीं चली चलती? अम्माँ भी तो देख लें।
झुनिया ने लज्जा से आँखें चुरा कर कहा - तुम्हारे घर यों न जाऊँगी। मुझे तो यही अचरज होता है कि मैं इतनी दूर कैसे आ गई। अच्छा बताओ, अब कब आओगे? रात को मेरे द्वार पर अच्छी संगत होगी। चले आना, मैं अपने पिछवाड़े मिलूँगी।
'और जो न मिली?'
'तो लौट जाना।'
'तो फिर मैं न आऊँगा।'
'आना पड़ेगा, नहीं कहे देती हूँ।'
'तुम भी बचन दो कि मिलोगी?'
'मैं बचन नहीं देती।'
'तो मैं भी नहीं आता।'
'मेरी बला से!'
झुनिया अँगूठा दिखा कर चल दी। प्रथम-मिलन में ही दोनों एक-दूसरे पर अपना-अपना अधिकार जमा चुके थे। झुनिया जानती थी, वह आएगा, कैसे न आएगा? गोबर जानता था, वह मिलेगी, कैसे न मिलेगी?
जब वह अकेला गाय को हाँकता हुआ चला, तो ऐसा लगता था, मानो स्वर्ग से गिर पड़ा है।
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