मिस पद्मा / प्रेमचंद / Premchand
कानून में अच्छी सफलता प्राप्त कर लेने के बाद मिस पद्मा को एक नया अनुभव हुआ, वह था जीवन का सूनापन। विवाह को उन्होंने एक अप्राकृतिक बंधन समझा था और निश्चय कर लिया था कि स्वतंत्र रहकर जीवन का उपभोग करूँगी। एम. ए. की डिग्री ली, फिर कानून पास किया और प्रैक्टिस शुरू कर दी। रूपवती थी, युवती थी, मृदुभाषिणी थी और प्रतिभाशालिनी भी थी। मार्ग में कोई बाधा न थी। देखते-देखते वह अपने साथी नौजवान मर्द वकीलों को पीछे छोड़कर आगे निकल गयी और अब उसकी आमदनी कभी-कभी एक हजार से भी ऊपर बढ़ जाती । अब उतने परिश्रम और सिर-मगजन की आवश्यकता न रही। मुकदमें अधिकतर वही होते थे, जिनका उसे पूरा अनुभव हो चुका था, उसके विषय में किसी तरह की तैयारी की उसे जरूरत न मालूम होती। अपनी शक्तियों पर कुछ विश्वास भी हो गया था। कानून में कैसे विजय मिला करती हैं, इसके कुछ लटके भी उसे मालूम हो गये थे। इसलिये उसे अब उसे बहुत अवकाश मिलता था और इसे वह किस्से-कहानियाँ पढ़ने, सैर करने, सिनेमा देखने , मिलने-मिलाने में खर्च करती थी। जीवन को सुखी बनाने के लिए किसी व्यसन की जरूरत को वह खूब समझती थी। उसने फूल और पौदे लगाने का व्यसन पाल लिया था। तरह-तरह के बीज और पौदे मँगाती औऱ उन्हें उगते-बढ़ते, फूलते-फलते देखकर खुश होती; मगर जीवन में सूनपने का अनुभव होता रहता था। यह बात न थी कि उसे पुरुषों से विरक्ति हो। नहीं, उसके प्रेमियों की कमी न थी। अगर उसके पास केवल रूप और यौवन होता, तो भी उपासकों का अभाव न रहता; मगर यहाँ तो रूप और यौवन के साथ धन भी थी। फिर रसिक-वृन्द क्यों चूक जाते? पद्मा को विलास से घृणा थी नहीं, घृणा थी पराधीनता से, विवाह को जीवन का व्यवसाय बनाने से। जब स्वतंत्र रहकर भोग-विलास का आनन्द उठाया जा सकता हैं, तो फिर क्यों न उड़ाया जाय? भोग में उसे कोई नैतिक बाधा न थी, इसे केवल देह की एक भूख समझती थी। इस भूख को किसी साफ-सुथरी दुकान से भी शान्त किया जा सकता हैं। और पद्मा को साफ-सुथरी दुकाम की हमेशा तलाश रहती थी। ग्राहक दुकान में वहीं चीज लेता हैं, जो उसे पसन्द आती हैं। पद्मा भी वहीं चीज चाहती थी। यों उसके दर्जनों आशिक थे- कई वकील, कई प्रोफेसर, कई डॉक्टर, कई रईस। मगर ये सब-के-सब ऐय्यास थे- बेफिक्र , केवल भौरे की तरह रस लेकर उड़ जाने वाले। ऐसा एक भी न था, जिस पर वह विश्वास कर सकती। अब उसे मालूम हुआ कि उसका मन केवल भोग नहीं चाहता, कुछ और भी चाहता हैं। वह चीज क्या थी? पूरा आत्म-समर्पण और यह उसे न मिलता था।
उसके प्रेमियों में एक मि. प्रसाद था- बड़ा ही रूपवान और धुरन्धर विद्वान। एक कॉलेज में प्रोफेसर था। वह भी मुक्त-भोग का आदर्श का उपासक था और पद्मा उस पर फिदा थी। चाहती थी उसे बाँधकर रखे, सम्पूर्णतः अपना बना ले; लेकिन प्रसाद चंगुल में न आता था।
सन्ध्या हो गयी थी। पद्मा सैर करने जा रही थी कि प्रसाद आ गये। सैर करना मुल्तवी हो गया। बातचीत में सैर से कहीं ज्यादा आनन्द था और पद्मा आज प्रसाद से कुछ दिल की बात कहने वाली थी। कई दिन के सोच-विचार के बाद उसने कह डालने का निश्चय किया।
उसने प्रसाद की नशीली आँखों से आँखें मिलाकर कहा- तुम यहीं मेरे बँगले में आकर क्यों नहीं रहते?
प्रसाद ने कुटिल-विनोद के साथ कहा- नतीजा यह होगा कि दो-चार महीने में यह मुलाकात बन्द हो जायेगी।
'मेरी समझ में नही आया, तुम्हारा आशय क्या हैं।'
'आशय वहीं हैं, जो मैं कह रहा हूँ।'
'आखिर क्यों?'
'मैं अपनी स्वाधीनता न खोना चाहूँगा, तुम अपनी स्वतन्त्रता न खोना चाहोगी। तुम्हारे पास तुम्हारे आशिक आयेंगे, मुझे जलन होगी। मेरे पास मेरी प्रेमिकाएँ आयेंगी, तुम्हें जलन होगी। मनमुटाव होगा, फिर वैमनस्य होगा और तुम मुझे घर से निकाल दोगी। घर तुम्हारा है ही! मुझे बुरा लगेगा ही, फिर यह मैत्री कैसे निभेगी?'
दोनो कई मिनट तक मौन रहे। प्रसाद ने परिस्थिति को इतने स्पष्ट, बेलाग, लट्ठमार शब्दों में खोलकर रख दिया था कि कुछ कहने की जगह न मिलती थी।
आखिर प्रसाद ही को नुकता सूझा। बोला- जब तब हम दोनों यह प्रतिज्ञा न कर लें कि आज से मैं तुम्हारा हूँ और तुम मेरी हो, तब तक एक साथ निर्वाह नहीं हो सकता!
'तुम यह प्रतिज्ञा करोंगे?'
'पहले तुम बतलाओ।'
'मैं करूँगी।'
'तो मैं भी करूँगा।'
'मगर इस एक बात के सिवा मैं और सभी बातों में स्वतंत्र रहूँगी!'
'और मैं भी इस एक बात के सिवा हर बात में स्वतंत्र रहूँगा।'
'मंजूर।'
'मंजूर!'
'तो कब से?'
'जब से तुम कहो।'
'मैं तो कहती हूँ, कल ही से।'
'तय। लेकिन अगर तुमने इसके विरुद्ध आचारण किया तो?'
'और तुमने किया तो?'
'तुम मुझे घर से निकाल सकती हो; लेकिन मैं तुम्हें क्या सजा दूँगा?'
'तुम मुझे त्याग देना, और क्या करोगे?'
'जी नहीं, तब इतने से चित्त को शान्ति न मिलेगी। तब मैं चाहूँगा तुम्हे जलील करना; बल्कि तुम्हारी हत्या करना।'
'तुम बहुत निर्दयी हो, प्रसाद?'
'जब तक हम दोनों स्वाधीन हैं, हम किसी को कुछ कहने का हक नहीं, लेकिन एक बार प्रतिज्ञा में बँध जाने के बाद फिर ने मैं इसकी अवज्ञा सह सकूँगा, न तुम सह सकोगी। तुम्हारे पास दंड का साधन हैं, मेरे पास नहीं। कानून मुझे कोई भी अधिकार नहीं देगा। मैं तो केवल अपनी पशुबल से प्रतिज्ञा का पालन कराऊँगा और तुम्हारे इतने नौकरों के सामने मैं अकेला क्या कर सकूँगा?'
'तुम तो चित्र का श्याम पक्ष ही देखते हो! जब मैं तुम्हारी हो रही हूँ, तो यह मकान, नौकर-चाकर और जायदाद सब कुछ तुम्हारा हैं। हम-तुम दोनों जानते हैं कि ईर्ष्या से ज्यादा घृणित कोई सामाजिक पाप नहीं हैं। तुम्हें मुझसें प्रेम हैं या नहीं, मैं नहीं कह सकती; लेकिन तुम्हारे लिए मैं सब कुछ सहने, सब कुछ करने के लिए तैयार हूँ।'
'दिल से कहती हो पद्मा?'
'सच्चे दिल से।'
'मगर न-जाने क्यों तुम्हारे ऊपर विश्वास नहीं आ रहा हैं?'
'मैं तो तुम्हारे ऊपर विश्वास कर रही हूँ।'
'यह समझ लो, मै मेहमान बनकर तुम्हारे घर में न रहूँगा, स्वामी बनकर रहूँगा।'
'तुम घर के स्वामी ही नही, मेरे स्वामी बनकर रहोगे। मैं तुम्हारी स्वामिनी बन कर रहूँगी।'
2
प्रो. प्रसाद और मिस पद्मा दोनों साथ रहते हैं और प्रसन्न हैं। दोनों ही ने जीवन का जो आदर्श मन में स्थिर कर लिया था, वह सत्य बन गया हैं। प्रसात को केवल दो-सौ रुपये वेतन मिलता हैं; मगर अप वह अपनी आमदनी का दुगुना भी खर्च कर दे तो परवाह नहीं। पहले वह कभी-कभी शराब पीता था, अब रात-दिन शराब में मस्त रहता हैं। अब उसके लिए अलग अपनी कार हैं, अलग नौकर हैं, तरह-तरह की बहुमूल्य चीजें मँगवाता रहता हैं और पद्मा बड़े हर्ष से उसकी सारी फिजूल-खर्जियाँ बर्दाश्त करती हैं। नहीं, बर्दाश्त करने का प्रश्न नहीं। वह खुद उसे अच्छे-से-अच्छे सूट पहनाकर अच्छे-से-अच्छे ठाठ में रखकर, प्रसन्न होती हैं। जैसी घड़ी इस वक़्त प्रसाद के पास हैं, शहर के बड़े-बड़े रईस के पास न होगी और पद्मा जितना ही उससे दबती हैं, प्रसाद उतना ही उसे दबाता हैं। कभी-कभी उसे नागवार भी लगता हैं, पर किसी अज्ञात कारण से अपने को उसके वश में पाती हैं। प्रसाद को जरा भी उदास या चिन्तित देखकर उसका मन चंचल हो जाता हैं। उस पर आवाजें कसी जाती हैं; फबतियाँ चुस्त की जाती हैं। जो उसके पुराने प्रेमी हैं, वे उसे जलाने और कुढ़ाने का प्रयास भी करते हैं; पर वह प्रसाद के पास आते ही सब कुछ भूल जाती हैं। प्रसाद ने उस पर पूरा आधिपत्य पा लिया हैं और उसे इसका ज्ञान पद्मा को उसने बारीक आँखों से पढ़ा हैं और उसका शासन अच्छी तरह पा गया हैं।
मगर जैसे राजनीति के क्षेत्र में अधिकार दुरुपयोग की ओर जाता हैं, उसी तरह प्रेम के क्षेत्र में भी वह दुरुपयोग की ओर ही जाता हैं और जो कमजोर है, उसे तावान देना पड़ता हैं। आत्माभिमानी पद्मा अब प्रसाद की लौड़ी थी और प्रसाद उसकी दुर्बलता का फायदा उठाने से क्यों चूकता? उसने कील की पतली नोक चुभा ली थी और बड़ी कुशलता से उत्तरोत्तर उसे अन्दर ठोंकता जाता था। यहाँ तक कि उसने रात को देर से आना शुरू किया। पद्मा को अपने साथ न ले जाता, उससे बहाना करता कि मेरे सिर में दर्द हैं औऱ जब पद्मा घुमने जाती तो अपनी कार निकाल लेता और उड़ जाता। दो साल गुजर गये और पद्मा को गर्भ था। वह स्थूल भी हो चली थी। उसके रूप में पहले की-सी नवीनता और मादकता न रह गई थी। वह घर की मुर्गी थी, साग बराबर।
एक दिन इसी तरह पद्मा लौटकर आयी, तो प्रसाद गायब थे। वह झुँझला उठी। इधर कई दिन से वह प्रसाद का रंग बदला हुआ देख रही थी। आज उसने कुछ स्पष्ट बाते कहने का साहस बटोरा। दस बज गये, ग्यारह बज गये, बारह बज गये, पद्मा उसके इन्तजार में बैठी थी। भोजन ठंड़ा हो गया, नौकर-चाकर सो गये। वह बार-बार उठती, फाटक पर जाकर नजर दौड़ाती। बाहर-एक बजे के करीब प्रसाद घर आये।
पद्मा ने साहस बटोरा था; पर प्रसाद के सामने जाते ही उसे इतनी कमजोरी मालूम हुई। फिर भी उसने जरा कड़े स्वर में पूछा- आज इतनी रात तक कहाँ थे? कुछ खबर हैं, कितनी रात हैं?
प्रसाद को वह इस वक़्त असुन्दरता की मूर्ति-सी लगी। वह एक विद्यालय की छात्रा के साथ सिनेमा देखने गया था। बोला- तुमको आराम से सो जाना चाहिए था। तुम जिस दशा में हो, उसमें तुम्हें, जहाँ तक हो सके, आराम से रहना चाहिए।
पद्मा का साहस कुछ प्रबल हुआ- तुमसे पूछती हूँ, उसका जवाब दो। मुझे जहन्नुम में भेजो!
'तो तुम भी मुझे जहन्नुम में जाने दो।'
'तुम मेरे साथ दगा कर रहे हो, यह मैं साफ देख रही हूँ।'
'तुम्हारी आँखों की ज्योति कुछ बढ़ गयी होगी!'
'मैं इधर कई दिनो से तुम्हारा मिजाज कुछ बदला हुआ देख रही हूँ।'
'मैं तुम्हारे साथ अपने को बेचा नही हैं। अगर तुम्हारा जी मुझसे भर गया हो, तो मैं आज जाने को तैयार हूँ।'
'तुम जाने की धमकी क्या देते हो! यहाँ तुमने आकर कोई बड़ा त्याग नहीं किया हैं।'
'मैने त्याग नहीं किया हैं? तुम यह कहने का साहस कर रही हो। मैं देखता हूँ, तुम्हारा मिजाज़ बिगड़ रहा हैं। तुम समझती हो, मैने इसे अपंग कर दिया । मगर मैं इसी वक़्त तुम्हें ठोकर मारने को तैयार हूँ, इसी वक़्त, इसी वक़्त!'
पद्मा का साहस जैसे बुझ गया था। प्रसाद अपना ट्रँक सँभाल रहा था। पद्मा ने दीन-भाव से कहा- मैने तो ऐसी कोई बात नहीं कहीं, जो तुम इतना बिगड़ उठे। मैं तो केवल तुमसे पूछ रहीं थी, कहाँ थे। क्या मुझे इतना भी अधिकार नहीं देना चाहते? मैं कभी तुम्हारी इच्छा के विरुद्ध कोई काम नहीं करती और तुम मुझे बात-बात पर डाँटते रहते हो। तुम्हें मुझ पर जरा भी दया नहीं आती। मुझे तुमसे कुछ भी तो सहानुभूति मिलनी चाहिए। मैं तुम्हारे लिए क्या कुछ करने को तैयार नहीं हूँ? और आज जो मेरी दशा हो गयी हैं, तो तुम मुझसे आँखे फेर लेते हो...
उसका कंठ रुँध गया और मेज पर सिर रखकर फूट-फूटकर रोने लगी। प्रसाद ने पूरी विजय पायी।
3
पद्मा के लिए मातृत्व अब बड़ा ही अप्रिय प्रसंग था। उस पर चिंता मँडराती रहती। कभी-कभी वह भय से काँप उठती और पछताती। प्रसाद की निरंकुशता दिन-दिन बढती जाती थी। क्या करे, क्या न करें। गर्भ पूरा हो गया था, वह कोर्ट न जाती थी। दिन-भर अकेली बैठी रहती थी। प्रसाद सन्ध्या समय आते, चाय-वाय पीकर फिर उड़ जाते, तो ग्यारह-बारह बजे से पहले न लौटते। वह कहाँ जाते हैं, यह भी उससे छिपा न था। प्रसाद को तो जैसे उसकी सूरत से नफरत थी। पूर्ण गर्भ, पीला मुख, चिन्तित, सशंक, उदास। फिर भी वह प्रसाद को श्रृंगार और आभूषण से बाँधने की चेष्टा से बाज न आती थी। मगर वह जितना ही प्रयास करती, उतना ही प्रसाद का मन उसकी ओर से फिरता था। इस अवस्था में श्रृंगार उसे और भी भद्दा लगता।
प्रसव-वेदना हो रही थी। प्रसाद का पता नहीं। नर्स मौजूद थी, लेडी डॉक्टर मौजूद थी; मगर प्रसाद का न रहना पद्मा की प्रसव वेदना को और भी दारूण बना रहा था।
बालक को गोद में देखकर उसका कलेजा फूल उठा, मगर फिर प्रसाद को सामने न पाकर उसने बालक की ओर से मुँह फेर लिया। मीठे फल में जैसे कीड़े पड़ गये हों।
पाँच दिन सौर-गृह में काटने के बाद जैसे पद्मा जेलखाने से निकली- नंगी तलवार बनी हुई। माता बनकर वह अपने में एक अद्भूत शक्ति का अनुभव कर रही थी।
उसने चपरासी को चेक देकर बैंक भेजा। प्रसव-सम्बन्धी कई बिल अदा करने थे। चपरासी खाली हाथ लौट आया।
पद्मा ने पूछा- रुपये?
'बैंक बाबू ने कहा, रुपये प्रसाद बाबू निकाल ले गये।'
पद्मा को गोली लग गयी। बीस हजार रुपये प्राणों की तरह संचित कर रखे थे, इसी शिशु के लिए। हाय! सौर से निकलने पर मालूम हुआ, प्रसाद विद्यालय की एक बालिका को लेकर इंगलैंड की सैर करने चले गये । झल्लायी हुआ घर में आयी, प्रसाद की तसवीर उठाकर जमीन पर पटक दी और उसे पैरों से कुचला। उसका जितना सामान था, उसे जमा करके दियासलाई लगा दी और उसके नाम पर थूक दिया।
एक महीना बीत गया था। पद्मा अपने बँगले के फाटक पर शिशु को गोद में लिए खड़ी थी। उसका क्रोध अब शोकमय निराशा बन चुका था। बालक पर कभी दया आती, कभी प्यार आता, कभी घृणा होती। उसने सड़क पर देखा, एक यूरोपियन लेडी अपने पति के साथ अपने बालक को गाड़ी में बिठाये लिये चली जा रही थी। उसने हसरत-भरी आँखों से उस खुशनसीब जोड़े को देखा और उसकी आँखे सजल हो गयीं।