Godan / गोदान भाग 16 / प्रेमचंद / Premchand
राय साहब को ख़बर मिली कि इलाक़े में एक वारदात हो गयी है और होरी से गाँव के पंचों ने जुरमाना वसूल कर लिया है, तो फ़ौरन नोखेराम को बुलाकर जवाब-तलब किया -- क्यों उन्हें, इसकी इत्तला नहीं दी गयी। ऐसे नमकहराम दग़ाबाज़ आदमी के लिए उनके दरबार में जगह नहीं है। नोखेराम ने इतनी गालियाँ खायीं, तो ज़रा गर्म होकर बोले -- मैं अकेला थोड़ा ही था। गाँव के और पंच भी तो थे। मैं अकेला क्या कर लेता। राय साहब ने उनकी तोंद की तरफ़ भाले-जैसी नुकीली दृष्टि से देखा -- मत बको जी! तुम्हें उसी वक़्त कहना चाहिए था, जब तक सरकार को इत्तला न हो जाय, मैं पंचों को जुरमाना न वसूल करने दूँगा। पंचों को मेरे और मेरी रिआया के बीच में दख़ल देने का हक़ क्या है? इस डाँड़-बाँध के सिवा इलाक़े में और कौन-सी आमदनी है? वसूली सरकार के घर गयी। बक़ाया असामियों ने दबा लिया। तब मैं कहाँ जाऊँ? क्या खाऊँ, तुम्हारा सिर! यह लाखों रुपए साल का ख़र्च कहाँ से आये? खेद है कि दो पुश्तों से कारिन्दगीरी करने पर मुझे आज तुम्हें यह बात बतलानी पड़ती है। कितने रुपए वसूल हुए थे होरी से? नोखेराम ने सिटपिटा कर कहा -- अस्सी रुपए! ' नक़द? ' ' नक़द उसके पास कहाँ थे हुज़ूर! कुछ अनाज दिया, बाक़ी में अपना घर लिख दिया। ' राय साहब ने स्वार्थ का पक्ष छोड़कर होरी का पक्ष लिया -- अच्छा तो आपने और बगुलाभगत पंचों ने मिलकर मेरे एक मातबर असामी को तबाह कर दिया। मैं पूछता हूँ, तुम लोगों को क्या हक़ था कि मेरे इलाक़े में मुझे इत्तला दिये बग़ैर मेरे असामी से जुरमाना वसूल करते। इसी बात पर अगर मैं चाहूँ, तो आपको और उस जालिये पटवारी और उस धूर्त पण्डित को सात-सात साल के लिए जेल भिजवा सकता हूँ। आपने समझ लिया कि आप ही इलाक़े के बादशाह हैं। मैं कहे देता हूँ, आज शाम तक जुरमाने की पूरी रक़म मेरे पास पहुँच जाय; वरना बुरा होगा। मैं एक-एक से चक्की पिसवाकर छोड़ूँगा। जाइए, हाँ, होरी को और उसके लड़के को मेरे पास भेज दीजिएगा। नोखेराम ने दबी ज़बान से कहा -- उसका लड़का तो गाँव छोड़कर भाग गया। जिस रात को यह वारदात हुई, उसी रात को भागा। राय साहब ने रोष से कहा -- झूठ मत बोलो। तुम्हें मालूम है, झूठ से मेरे बदन में आग लग जाती है। मैंने आज तक कभी नहीं सुना कि कोई युवक अपनी प्रेमिका को उसके घर से लाकर फिर ख़ुद भाग जाय। अगर उसे भागना ही होता, तो वह उस लड़की को लाता क्यों? तुम लोगों की इसमें भी ज़रूर कोई शरारत है। तुम गंगा में डूबकर भी अपनी सफ़ाई दो, तो मानने का नहीं। तुम लोगों ने अपने समाज की प्यारी मर्यादा की रक्षा के लिए उसे धमकाया होगा। बेचारा भाग न जाता, तो क्या करता! नोखेराम इसका प्रतिवाद न कर सके। मालिक जो कुछ कहें वह ठीक है। वह यह भी न कह सके कि आप ख़ुद चलकर झूठ-सच की जाँच कर लें। बड़े आदमियों का क्रोध पूरा समर्पण चाहता है। अपने ख़िलाफ़ एक शब्द भी नहीं सुन सकता। पंचों ने राय साहब का यह फ़ैसला सुना, तो नशा हिरन हो गया। अनाज तो अभी तक ज्यों का त्यों पड़ा था; पर रुपए तो कब के ग़ायब हो गये। होरी का मकान रेहन लिखा गया था; पर उस मकान को देहात में कौन पूछता था। जैसे हिन्दू स्त्री पति के साथ घर की स्वामिनी है, और पति त्याग दे, तो कहीं की नहीं रहती, उसी तरह यह घर होरी के लिए लाख रुपए का है; पर उसकी असली क़ीमत कुछ भी नहीं। और इधर राय साहब बिना रुपए लिए मानने के नहीं। यही होरी जाकर रो आया होगा। पटेश्वरीलाल सबसे ज़्यादा भयभीत थे। उनकी तो नौकरी ही चली जायगी। चारों सज्जन इस गहन समस्या पर विचार कर रहे थे, पर किसी की अक्ल काम न करती थी। एक दूसरे पर दोष रखता था। फिर ख़ूब झगड़ा हुआ। पटेश्वरी ने अपनी लम्बी शंकाशील गर्दन हिलाकर कहा -- मैं मना करता था कि होरी के विषय में हमें चुप्पी साधकर रह जाना चाहिए। गाय के मामले में सबको तावान देना पड़ा। इस मामले में तावान ही से गला न छूटेगा, नौकरी से हाथ धोना पड़ेगा; मगर तुम लोगों को रुपए की पड़ी थी। निकालो बीस-बीस रुपए। अब भी कुशल है। कहीं राय साहब ने रपट कर दी, तो सब जने बँध जाओगे। दातादीन ने ब्रह्मतेज दिखाकर कहा -- मेरे पास बीस रुपए की जगह बीस पैसे भी नहीं हैं। ब्राहमणों को भोज दिया गया, होम हुआ। क्या इसमें कुछ ख़रच ही नहीं हुआ? राय साहब की हिम्मत है कि मुझे जेल ले जायँ? ब्रह्म बनकर घर का घर मिटा दूँगा। अभी उन्हें किसी ब्राह्मण से पाला नहीं पड़ा। झिंगुरीसिंह ने भी कुछ इसी आशय के शब्द कहे। वह राय साहब के नौकर नहीं हैं। उन्होंने होरी को मारा नहीं, पीटा नहीं, कोई दबाव नहीं डाला। होरी अगर प्रायिश्चत करना चाहता था, तो उन्होंने इसका अवसर दिया। इसके लिए कोई उन पर अपराध नहीं लगा सकता; मगर नोखेराम की गर्दन इतनी आसानी से न छूट सकती थी। यहाँ मज़े से बैठे राज करते थे। वेतन तो दस रुपए से ज़्यादा न था; पर एक हज़ार साल की ऊपर की आमदनी थी, सैकड़ों आदमियों पर हुकूमत, चार-चार प्यादे हाज़िर, बेगार में सारा काम हो जाता था, थानेदार तक कुरसी देते थे, यह चैन उन्हें और कहाँ था! और पटेश्वरी तो नौकरी के बदौलत महाजन बने हुए थे। कहाँ जा सकते थे? दो-तीन दिन इसी चिन्ता में पड़े रहे कि कैसे इस विपित्त से निकलें। आख़िर उन्हें एक मार्ग सूझ ही गया। कभी-कभी कचहरी में उन्हें दैनिक ' बिजली ' देखने को मिल जाती थी। यदि एक गुमनाम पत्र उसके सम्पादक की सेवा में भेज दिया जाय कि राय साहब किस तरह असामियों से जुरमाना वसूल करते हैं तो बचा को लेने के देने पड़ जायँ। नोखेराम भी सहमत हो गये। दोनों ने मिलकर किसी तरह एक पत्र लिखा और रजिस्टरी भेज दिया। सम्पादक ओंकारनाथ तो ऐसे पत्रों की ताक में रहते थे। पत्र पाते ही तुरन्त राय साहब को सूचना दी। उन्हें एक ऐसा समाचार मिला है, जिस पर विश्वास करने की उनकी इच्छा नहीं होती; पर संवाददाता ने ऐसे प्रमाण दिये कि सहसा अविश्वास भी नहीं किया जा सकता। क्या यह सच है कि राय साहब ने अपने इलाक़े के एक असामी से अस्सी रुपए तावान इसलिए वसूल किये कि उसके पुत्र ने एक विधवा को घर में डाल लिया था? सम्पादक का कर्तव्य उन्हें मज़बूर करता है कि वह मुआमले की जाँच करें और जनता के हितार्थ उसे प्रकाशित कर दें। राय साहब इस विषय में जो कुछ कहना चाहें, सम्पादक जी उसे भी प्रकाशित कर देंगे। सम्पादकजी दिल से चाहते हैं कि यह ख़बर गलत हो; लेकिन उसमें कुछ भी सत्य हुआ, तो वह उसे प्रकाश में लाने के लिए विवश हो जायँगे। मैत्री उन्हें कर्तव्य-पथ से नहीं हटा सकती। राय साहब ने यह सूचना पायी, तो सिर पीट लिया। पहले तो उनकी ऐसी उत्तेजना हुई कि जाकर ओंकारनाथ को गिनकर पचास हंटर जमायें और कह दें, जहाँ वह पत्र छापना वहाँ यह समाचार भी छाप देना; लेकिन इसका परिणाम सोचकर मन को शान्त किया और तुरन्त उनसे मिलने चले। अगर देर की, और ओंकारनाथ ने वह संवाद छाप दिया, तो उनके सारे यश में कालिमा पुत जायगी। ओंकारनाथ सैर करके लौटे थे और आज के पत्र के लिए सम्पादकीय लेख लिखने की चिन्ता में बैठे हुए थे; पर मन पक्षी की भाँति अभी उड़ा-उड़ा फिरता था। उनकी धर्मपत्नी ने रात में उन्हें कुछ ऐसी बातें कह डाली थीं जो अभी तक काँटों की तरह चुभ रही थीं। उन्हें कोई दरिद्र कह ले, अभागा कह ले, बुद्धू कह ले, वह ज़रा भी बुरा न मानते थे; लेकिन यह कहना कि उनमें पुरुषत्व नहीं है, यह उनके लिए असह्य था। और फिर अपनी पत्नी को यह कहने का क्या हक़ है? उससे तो यह आशा की जाती है कि कोई इस तरह का आक्षेप करे, तो उसका मुँह बन्द कर दे। बेशक वह ऐसी ख़बरें नहीं छापते, ऐसी टिप्पणियाँ नहीं करते कि सिर पर कोई आफ़त आ जाय। फूँक-फूँककर क़दम रखते हैं। इन काले कानूनों के युग में वह और कर ही क्या सकते हैं; मगर वह क्यों साँप के बिल में हाथ नहीं डालते? इसीलिए तो कि उनके घरवालों को कष्ट न उठाने पड़े। और उनकी सहिष्णुता का उन्हें यह पुरस्कार मिल रहा है? क्या अँधेर है! उनके पास रुपए नहीं हैं, तो बनारसी साड़ी कैसे मँगा दें? डाक्टर सेठ और प्रोफ़ेसर भाटिया और न जाने किस-किस की स्त्रियाँ बनारसी साड़ी पहनती हैं, तो वह क्या करें? क्यों उनकी पत्नी इन साड़ीवालियों को अपनी खद्दर की साड़ी से लज्जित नहीं करती? उनकी ख़ुद तो यह आदत है कि किसी बड़े आदमी से मिलने जाते हैं, तो मोटे से मोटे कपड़े पहन लेते हैं और कुछ कोई आलोचना करे तो उसका मुँहतोड़ जवाब देने को तैयार रहते हैं। उनकी पत्नी में क्यों वही आत्माभिमान नहीं है? वह क्यों दूसरों का ठाट-बाट देखकर विचलित हो जाती है? उसे समझना चाहिए कि वह एक देश-भक्त पुरुष की पत्नी है। देश-भक्त के पास अपनी भक्ति के सिवा और क्या सम्पत्ति है। इसी विषय को आज के अग्रलेख का विषय बनाने की कल्पना करते-करते उनका ध्यान राय साहब के मुआमले की ओर जा पहुँचा। राय साहब सूचना का क्या उत्तर देते हैं, यह देखना है। अगर वह अपनी सफ़ाई देने में सफल हो जाते हैं, तब तो कोई बात नहीं, लेकिन अगर वह यह समझें कि ओंकारनाथ दबाव, भय, या मुलाहजे में आकर अपने कर्तव्य से मुँह फेर लेंगे तो यह उनका भ्रम है। इस सारे तप और साधन का पुरस्कार उन्हें इसके सिवा और क्या मिलता है कि अवसर पड़ने पर वह इन क़ानूनी डकैतों का भंडा-फोड़ करें। उन्हें ख़ूब मालूम है कि राय साहब बड़े प्रभावशाली जीव हैं। कौंसिल के मेम्बर तो हैं ही। अधिकारियों में भी उनका काफ़ी रुसूख है। वह चाहें, तो उन पर झूठे मुक़दमे चलवा सकते हैं, अपने गुंडों से राह चलते पिटवा सकते हैं; लेकिन ओंकार इन बातों से नहीं डरता। जब तक उसकी देह में प्राण है, वह आततायियों की ख़बर लेता रहेगा। सहसा मोटरकार की आवाज़ सुन कर वह चौंके। तुरन्त काग़ज़ लेकर अपना लेख आरम्भ कर दिया। और एक ही क्षण में राय साहब ने उनके कमरे में क़दम रक्खा। ओंकारनाथ ने न उनका स्वागत किया, न कुशल-क्षेम पूछा, न कुरसी दी। उन्हें इस तरह देखा मानो कोई मुलाज़िम उनकी अदालत में आया हो और रोब से मिले हुए स्वर में पूछा -- आपको मेरा पुरज़ा मिल गया था? मैं वह पत्र लिखने के लिए बाध्य नहीं था, मेरा कर्तव्य यह था कि स्वयम् उसकी तहक़ीक़ात करता; लेकिन मुरौवत में सिद्धान्तों की कुछ न कुछ हत्या करनी ही पड़ती है। क्या उस संवाद में कुछ सत्य है? राय साहब उसका सत्य होना अस्वीकार न कर सके। हालाँ कि अभी तक उन्हें जुरमाने के रुपए नहीं मिले थे और वह उनके पाने से साफ़ इनकार कर सकते थे; लेकिन वह देखना चाहते थे कि यह महाशय किस पहलू पर चलते हैं। ओंकारनाथ ने खेद प्रकट करते हुए कहा -- तब तो मेरे लिए उस संवाद को प्रकाशित करने के सिवा और कोई मार्ग नहीं है। मुझे इसका दुःख है कि मुझे अपने एक परम हितैषी मित्र की आलोचना करनी पड़ रही है; लेकिन कर्तव्य के आगे व्यक्ति कोई चीज़ नहीं। सम्पादक अगर अपना कर्तव्य न पूरा कर सके, तो उसे इस आसन पर बैठने का कोई हक़ नहीं है। राय साहब कुरसी पर डट गये और पान की गिलौरियाँ मुँह में भरकर बोले -- लेकिन यह आपके हक़ में अच्छा न होगा। मुझे जो कुछ होना है, पीछे होगा, आपको तत्काल दंड मिल जायगा; अगर आप मित्रों की परवाह नहीं करते, तो मैं भी उसी कैंड़े का आदमी हूँ। ओंकारनाथ ने शहीद का गौरव धारण करके कहा -- इसका तो मुझे कभी भय नहीं हुआ। जिस दिन मैंने पत्र-सम्पादन का भार लिया, उसी दिन प्राणों का मोह छोड़ दिया, और मेरे समीप एक सम्पादक की सबसे शानदार मौत यही है कि वह न्याय और सत्य की रक्षा करता हुआ अपना बलिदान कर दे। ' अच्छी बात है। मैं आपकी चुनौती स्वीकार करता हूँ। मैं अब तक आपको मित्र समझता आया था; मगर अब आप लड़ने ही पर तैयार हैं, तो लड़ाई ही सही। आख़िर मैं आपके पत्र का पँचगुना चन्दा क्यों देता हूँ। केवल इसीलिए कि वह मेरा ग़ुलाम बना रहे। मुझे परमात्मा ने रईस बनाया है। पचहत्तर रुपया देता हूँ; इसीलिए कि आपका मुँह बन्द रहे। जब आप घाटे का रोना रोते हैं और सहायता की अपील करते हैं, और ऐसी शायद ही कोई तिमाही जाती हो, जब आपकी अपील न निकलती हो, तो मैं ऐसे मौक़े पर आपकी कुछ न कुछ मदद कर देता हूँ। किसलिए! दीपावली, दसहरा, होली में आपके यहाँ बैना भेजता हूँ, और साल में पच्चीस बार आपकी दावत करता हूँ, किसलिए! आप रिश्वत और कर्तव्य दोनों साथ-साथ नहीं निभा सकते। ' ओंकारनाथ उत्तेजित होकर बोले, -- मैंने कभी रिश्वत नहीं ली। राय साहब ने फटकारा -- अगर यह व्यवहार रिश्वत नहीं है तो रिश्वत क्या है? ज़रा मुझे समझा दीजिए। क्या आप समझते हैं, आपको छोड़कर और सभी गधे हैं जो निःस्वार्थ-भाव से आपका घाटा पूरा करते हैं। निकालिए अपनी बही और बतलाइए अब तक आपको मेरी रियासत से कितना मिल चुका है। मुझे विश्वास है, हज़ारों की रक़म निकलेगी; अगर आपको स्वदेशी-स्वदेशी चिल्लाकर विदेशी दवाओं और वस्तुओं का विज्ञापन छापने में शरम नहीं आती, तो मैं अपने असामियों से डाँड़, तावान और जुमार्ना लेते शरमाऊँ? यह न समझिए कि आप ही किसानों के हित का बीड़ा उठाये हुए हैं। मुझे किसानों के साथ जलना-मरना है, मुझसे बढ़कर दूसरा उनका हितेच्छु नहीं हो सकता; लेकिन मेरी गुज़र कैसे हो! अफ़सरों को दावतें कहाँ से दूँ, सरकारी चन्दे कहाँ से दूँ, ख़ानदान के सैकड़ों आदमियों की ज़रूरतें कैसे पूरी करूँ। मेरे घर का क्या ख़र्च है, यह शायद आप जानते हैं। तो क्या मेरे घर में रुपये फलते है? आयेगा तो आसामियों ही के घर से। आप समझते होंगे, ज़मींदार और ताल्लुक़ेदार सारे संसार का सुख भोग रहे हैं। उनकी असली हालत का आपको ज्ञान नहीं; अगर वह धमार्त्मा बन कर रहें, तो उनका ज़िन्दा रहना मुश्किल हो जाय। अफ़सरों को डालियाँ न दें, तो जेलख़ाना घर हो जाय। हम बिच्छू नहीं हैं कि अनायास ही सबको डंक मारते फिरें। न ग़रीबों का गला दबाना कोई बड़े आनन्द का काम है; लेकिन मर्यादाओं का पालन तो करना ही पड़ता है। जिस तरह आप मेरी रईसी का फ़ायदा उठाना चाहते हैं, उसी तरह और सभी हमें सोने की मुरग़ी समझते हैं। आइए मेरे बँगले पर तो दिखाऊँ कि सुबह से शाम तक कितने निशाने मुझ पर पड़ते हैं। कोई काश्मीर से शाल-दुशाला लिये चला आ रहा है, कोई इत्र और तम्बाकू का एजेंट है, कोई पुस्तकों और पत्रिकाओं का, कोई जीवन-बीमे का, कोई ग्रामोफ़ोन लिये सिर पर सवार है, कोई कुछ। चन्देवाले तो अनगिनती। क्या सबके सामने अपना दुखड़ा लेकर बैठ जाऊँ? ये लोग मेरे द्वार पर दुखड़ा सुनाने आते हैं? आते हैं मुझे उल्लू बनाकर मुझसे कुछ ऐंठने के लिए। आज मर्यादा का विचार छोड़ दूँ, तो तालियाँ पिटने लगें। हुक्काम को डालियाँ न दूँ, तो बागी समझा जाऊँ। तब आप अपने लेखों से मेरी रक्षा न करेंगे। काँग्रेस में शरीक हुआ, उसका तावान अभी तक देता जाता हूँ। काली किताब में नाम दरज़ हो गया। मेरे सिर पर कितना क़रज़ है, यह भी कभी आपने पूछा है? अगर सभी महाजन डिग्रियाँ करा लें, तो मेरे हाथ की यह अँगूठी तक बिक जायगी। आप कहेंगे क्यों यह आडम्बर पालते हो। कहिए, सात पुश्तों से जिस वातावरण में पला हूँ उससे अब निकल नहीं सकता। घास छीलना मेरे लिए असम्भव है। आपके पास ज़मीन नहीं, जायदाद नहीं, मर्यादा का झमेला नहीं, आप निर्भीक हो सकते हैं; लेकिन आप भी दुम दबाये बैठे रहते हैं। आपको कुछ ख़बर है, अदालतों में कितनी रिश्वतें चल रही हैं, कितने ग़रीबों का ख़ून हो रहा है, कितनी देवियाँ भ्रष्ट हो रही हैं! है बूता लिखने का? सामग्री मैं देता हूँ, प्रमाणसहित। ओंकारनाथ कुछ नर्म होकर बोले -- जब कभी अवसर आया है, मैंने क़दम पीछे नहीं हटाया। राय साहब भी कुछ नर्म हुए -- हाँ, मैं स्वीकार करता हूँ कि दो-एक मौक़ों पर आपने जवाँमरदी दिखायी है; लेकिन आप की निगाह हमेशा अपने लाभ की ओर रही है, प्रजा-हित की ओर नहीं। आँखें न निकालिए और न मुँह लाल कीजिए। जब कभी आप मैदान में आये हैं, उसका शुभ परिणाम यही हुआ कि आपके सम्मान और प्रभाव और आमदनी में इज़ाफ़ा हुआ है; अगर मेरे साथ भी आप वही चाल चल रहे हों, तो मैं आपकी ख़ातिर करने को तैयार हूँ। रुपए न दूँगा; क्योंकि वह रिश्वत है। आपकी पत्नीजी के लिए कोई आभूषण बनवा दूँगा। है मंज़ूर? अब मैं आपसे सत्य कहता हूँ कि आपको जो संवाद मिला वह गलत है; मगर यह भी कह देना चाहता हूँ कि अपने और सभी भाइयों की तरह मैं असामियों से जुर्माना लेता हूँ और साल में दस-पाँच हज़ार रुपए मेरे हाथ लग जाते हैं, और अगर आप मेरे मुँह से यह कौर छीनना चाहेंगे, तो आप घाटे में रहेंगे। आप भी संसार में सुख से रहना चाहते हैं, मैं भी चाहता हूँ। इससे क्या फ़ायदा कि आप न्याय और कर्तव्य का ढोंग रचकर मुझे भी ज़ेरबार करें, ख़ुद भी ज़ेरबार हों। दिल की बात कहिए। मैं आपका बैरी नहीं हूँ। आपके साथ कितनी ही बार एक चौके में, एक मेज़ पर खा चुका हूँ। मैं यह भी जानता हूँ कि आप तकलीफ़ में हैं। आपकी हालत शायद मेरी हालत से भी ख़राब है। हाँ, अगर आप ने हरिशचन्द्र बनने की क़सम खा ली है, तो आप की ख़ुशी। मैं चलता हूँ। राय साहब कुरसी से उठ खड़े हुए। ओंकारनाथ ने उनका हाथ पकड़कर सिन्धभाव से कहा -- नहीं-नहीं, अभी आपको बैठना पड़ेगा। मैं अपनी पोज़ीशन साफ़ कर देना चाहता हूँ। आपने मेरे साथ जो सलूक किये हैं, उनके लिए मैं आपका आभारी हूँ; लेकिन यहाँ सिद्धान्त की बात आ गयी है और आप जानते हैं, सिद्धान्त प्राणों से भी प्यारे होते हैं। राय साहब कुर्सी पर बैठकर ज़रा मीठे स्वर में बोले -- अच्छा भाई, जो चाहे लिखो। मैं तुम्हारे सिद्धान्त को तोड़ना नहीं चाहता। और तो क्या होगा, बदनामी होगी। हाँ, कहाँ तक नाम के पीछे पीछे मरूँ! कौन ऐसा ताल्लुक़ेदार है, जो असामियों को थोड़ा-बहुत नहीं सताता। कुत्ता हड्डी की रखवाली करे तो खाय क्या? मैं इतना ही कर सकता हूँ कि आगे आपको इस तरह की कोई शिकायत न मिलेगी; अगर आपको मुझ पर कुछ विश्वास है, तो इस बार क्षमा कीजिए। किसी दूसरे सम्पादक से मैं इस तरह की ख़ुशामद न करता। उसे सरे बाज़ार पिटवाता; लेकिन मुझसे आपकी दोस्ती है; इसलिए दबना ही पड़ेगा। यह समाचार-पत्रों का युग है। सरकार तक उनसे डरती है, मेरी हस्ती क्या! आप जिसे चाहें बना दें। ख़ैर यह झगड़ा ख़तम कीजिए। कहिए, आजकल पत्र की क्या दशा है? कुछ ग्राहक बढ़े? ओंकारनाथ ने अनिच्छा के भाव से कहा -- किसी न किसी तरह काम चल जाता है और वर्तमान परिस्थिति में मैं इससे अधिक आशा नहीं रखता। मैं इस तरफ़ धन और भोग की लालसा लेकर नहीं आया था; इसलिए मुझे शिकायत नहीं है। मैं जनता की सेवा करने आया था और वह यथाशक्ति किये जाता हूँ। राष्ट्र का कल्याण हो, यही मेरी कामना है। एक व्यक्ति के सुख-दुःख का कोई मूल्य नहीं। राय साहब ने ज़रा और सहृदय होकर कहा -- यह सब ठीक है भाई साहब; लेकिन सेवा करने के लिए भी जीना ज़रूरी है। आर्थिक चिन्ताओं में आप एकाग्रचित्त होकर सेवा भी तो नहीं कर सकते। क्या ग्राहक-संख्या बिलकुल नहीं बढ़ रही है? ' बात यह है कि मैं अपने पत्र का आदर्श गिराना नहीं चाहता; अगर मैं आज सिनेमास्टारों के चित्र और चरित्र छापने लगूँ तो मेरे ग्राहक बढ़ सकते हैं; लेकिन अपनी तो वह नीति नहीं। और भी कितने ही ऐसे हथकंडे हैं, जिनसे पत्रों द्वारा धन कमाया जा सकता है, लेकिन मैं उन्हें गहिर्त समझता हूँ। ' ' इसी का यह फल है कि आज आपका इतना सम्मान है। मैं एक प्रस्ताव करना चाहता हूँ। मालूम नहीं आप उसे स्वीकार करेंगे या नहीं। आप मेरी ओर से सौ आदमियों के नाम फ़्री जारी कर दीजिए। चन्दा मैं दे दूँगा। ' ओंकारनाथ ने कृतज्ञता से सिर झुकाकर कहा -- मैं धन्यवाद के साथ आपका दान स्वीकार करता हूँ। खेद यही है कि पत्रों की ओर से जनता कितनी उदासीन है। स्कूल और कालिजों और मन्दिरों के लिए धन की कमी नहीं है पर आज तक एक भी ऐसा दानी न निकला जो पत्रों के प्रचार के लिए दान देता, हालाँकि जन-शिक्षा का उद्देश्य जितने कम ख़र्च में पत्रों से पूरा हो सकता है, और किसी तरह नहीं हो सकता। जैसे शिक्षालयों को संस्थाओं द्वारा सहायता मिला करती है, ऐसे ही अगर पत्रकारों को मिलने लगे, तो इन बेचारों को अपना जितना समय और स्थान विज्ञापनों की भेंट करना पड़ता है, वह क्यों करना पड़े? मैं आपका बड़ा अनुगृहीत हूँ। राय साहब बिदा हो गये; ओंकारनाथ के मुख पर प्रसन्नता की झलक न थी। राय साहब ने किसी तरह की शर्त न की थी, कोई बन्धन न लगाया था; पर ओंकारनाथ आज इतनी करारी फटकार पा कर भी इस दान को अस्वीकार न कर सके। परििस्थति ऐसी आ पड़ी थी कि उन्हें उबरने का कोई उपाय ही न सूझ रहा था। प्रेस के कर्मचारियों का तीन महीने का वेतन बाक़ी पड़ा हुआ था। काग़ज़वाले के एक हज़ार से ऊपर आ रहे थे; यही क्या कम था कि उन्हें हाथ नहीं फैलाना पड़ा। उनकी स्त्री गोमती ने आकर विद्रोह के स्वर में कहा -- क्या अभी भोजन का समय नहीं आया, या यह भी कोई नियम है कि जब तक एक न बज जाय, जगह से न उठो। कब तक कोई चूल्हा अगोरता रहे। ओंकारनाथ ने दुखी आँखों से पत्नी की ओर देखा। गोमती का विद्रोह उड़ गया। वह उनकी कठिनाइयों को समझती थी। दूसरी महिलाओं के वस्त्राभूषण देखकर कभी-कभी उसके मन में विद्रोह के भाव जाग उठते थे और वह पति को दो-चार जली-कटी सुना जाती थी; पर वास्तव में यह क्रोध उनके प्रति नहीं, अपने दुर्भाग्य के प्रति था, और इसकी थोड़ी-सी आँच अनायास ही ओंकारनाथ तक पहुँच जाती थी। वह उनका तपस्वी जीवन देखकर मन में कुढ़ती थी और उनसे सहानुभूति भी रखती थी। बस, उन्हें थोड़ा-सा सनकी समझती थी। उनका उदास मुँह देखकर पूछा -- क्यों उदास हो, पेट में कुछ गड़बड़ है क्या? ओंकारनाथ को मुस्कराना पड़ा -- कौन उदास है, मैं? मुझे तो आज जितनी ख़ुशी है, उतनी अपने विवाह के दिन भी न हुई थी। आज सबेरे पन्द्रह सौ की बोहनी हुई। किसी भाग्यवान का मुँह देखा था। गोमती को विश्वास न आया, बोली -- झूठे हो। तुम्हें पन्द्रह सौ कहाँ मिल जाते हैं। हाँ, पन्द्रह रुपए कहो, मान लेती हूँ।
' नहीं-नहीं, तुम्हारे सिर की क़सम, पन्द्रह सौ मारे। अभी राय साहब आये थे। सौ ग्राहकों का चन्दा अपनी तरफ़ से देने का वचन दे गये हैं। '
गोमती का चेहरा उतर गया -- तो मिल चुके?
' नहीं, राय साहब वादे के पक्के हैं '
' मैंने किसी ताल्लुक़ेदार को वादे का पक्का देखा ही नहीं। दादा एक ताल्लुक़ेदार के नौकर थे। साल-साल भर तलब नहीं मिलती थी। उसे छोड़कर दूसरे की नौकरी की। उसने दो साल तक एक पाई न दी। एक बार दादा गरम पड़े, तो मारकर भगा दिया। इनके वादों का कोई क़रार नहीं। '
' मैं आज ही बिल भेजता हूँ। '
' भेजा करो। कह देंगे, कल आना। कल अपने इलाक़े पर चले जायँगे। तीन महीने में लौटेंगे। '
ओंकारनाथ संशय में पड़ गये। ठीक तो है, कहीं राय साहब पीछे से मुकर गये, तो वह क्या कर लेंगे। फिर भी दिल मज़बूत करके कहा -- ऐसा नहीं हो सकता। कम-से-कम राय साहब को मैं इतना धोखेबाज़ नहीं समझता। मेरा उनके यहाँ कुछ बाक़ी नहीं है।
गोमती ने उसी सन्देह के भाव से कहा -- इसी से तो मैं तुम्हें बुद्ध कहती हूँ। ज़रा किसी ने सहानुभूति दिखायी और तुम फूल उठे। ये मोटे रईस हैं। इनके पेट में ऐसे कितने वादे हज़म हो सकते हैं। जितने वादे करते हैं, अगर सब पूरा करने लगें, तो भीख माँगने की नौबत आ जाय। मेरे गाँव के ठाकुर साहब तो दो-दो, तीन-तीन साल-तक बनियों का हिसाब न करते थे। नौकरों का हिसाब तो नाम के लिए देते थे। साल-भर काम लिया, जब नौकर ने वेतन माँगा, मारकर निकाल दिया। कई बार इसी नादिहेन्दी में स्कूल से उनके लड़कों के नाम कट गये। आख़िर उन्होंने लड़कों को घर बुला लिया। एक बार रेल का टिकट उधार माँगा था। यह राय साहब भी तो उन्हीं के भाईबन्द हैं। चलो भोजन करो और चक्की पीसो, जो तुम्हारे भाग्य में लिखा है। यह समझ लो कि ये बड़े आदमी तुम्हें फटकारते रहें, वही अच्छा है। यह तुम्हें एक पैसा देंगे, तो उसका चौगुना अपने असामियों से वसूल कर लेंगे। अभी उनके विषय में जो कुछ चाहते हो, लिखते हो। तब तो ठकुरसोहाती ही कहनी पड़ेगी। पण्डित जी भोजन कर रहे थे; पर कौर मुँह में फँसा हुआ जान पड़ता था। आख़िर बिना दिल का बोझ हलका किये भोजन करना कठिन हो गया। बोले -- अगर रुपए न दिये, तो ऐसी ख़बर लूँगा कि याद करेंगे। उनकी चोटी मेरे हाथ में है। गाँव के लोग झूठी ख़बर नहीं दे सकते। सच्ची ख़बर देते तो उनकी जान निकलती है, झूठी ख़बर क्या देंगे! राय साहब के ख़िलाफ़ एक रिपोर्ट मेरे पास आयी है। छाप दूँ, बचा को घर से निकलना मुश्किल हो जाय। मुझे यह ख़ैरात नहीं दे रहे हैं, बड़े दबसट में पड़कर इस राह पर आये हैं। पहले धमकियाँ दिखा रहे थे, जब देखा इससे काम न चलेगा, तो यह चारा फेंका। मैंने भी सोचा, एक इनके ठीक हो जाने से तो देश से अन्याय मिटा जाता नहीं, फिर क्यों न इस दान को स्वीकार कर लूँ। मैं अपने आदर्श से गिर गया हूँ ज़रूर; लेकिन इतने पर भी राय साहब ने दग़ा की, तो मैं भी शठता पर उतर आऊँगा। जो ग़रीबों को लूटता है, उसको लूटने के लिए अपनी आत्मा को बहुत समझाना न पड़ेगा।
Godan / गोदान भाग 17 / प्रेमचंद / Premchand
गाँव में ख़बर फैल गयी कि राय साहब ने पंचों को बुलाकर ख़ूब डाँटा और इन लोगों ने जितने रुपए वसूल किये थे, वह सब इनके पेट से निकाल लिये। वह तो इन लोगों को जेहल भेजवा रहे थे; लेकिन इन लोगों ने हाथ-पाँव जोड़े, थूककर चाटा, तब जाके उन्होंने छोड़ा। धनिया का कलेजा शीतल हो गया, गाँव में घूम-घूमकर पंचों को लिज्जत करती फिरती थी -- आदमी न सुने ग़रीबों की पुकार, भगवान् तो सुनते हैं। लोगों ने सोचा था, इनसे डाँड़ लेकर मज़े से फुलौड़ियाँ खायेंगे। भगवान् ने ऐसा तमाचा लगाया कि फुलौड़ियाँ मुँह से निकल पड़ीं। एक-एक के दो-दो भरने पड़े। अब चाटो मेरा मकान लेकर। मगर बैलों के बिना खेती कैसे हो? गाँवों में बोआई शुरू हो गयी। कार्तिक के महीने में किसान के बैल मर जायँ, तो उसके दोनों हाथ कट जाते हैं। होरी के दोनों हाथ कट गये थे। और सब लोगों के खेतों में हल चल रहे थे। बीज डाले जा रहे थे। कहीं-कहीं गीत की तानें सुनायी देती थीं। होरी के खेत किसी अनाथ अबला के घर की भाँति सूने पड़े थे। पुनिया के पास भी गोई थी; शोभा के पास भी गोई थी; मगर उन्हें अपने खेतों की बुआई से कहाँ फ़ुरसत कि होरी की बुआई करें। होरी दिन-भर इधर-उधर मारा-मारा फिरता था। कहीं इसके खेत में जा बैठता, कहीं उसकी बोआई करा देता। इस तरह कुछ अनाज मिल जाता। धनिया, रूपा, सोना सभी दूसरों की बोआई में लगी रहती थीं। जब तक बोआई रही, पेट की रोटियाँ मिलती गयीं, विशेष कष्ट न हुआ। मानसिक वेदना तो अवश्य होती थी; पर खाने भर को मिल जाता था। रात को नित्य स्त्री-पुरुष में थोड़ी-सी लड़ाई हो जाती थी। यहाँ तक कि कार्तिक का महीना बीत गया और गाँव में मज़दूरी मिलनी भी कठिन हो गयी। अब सारा दारमदार ऊख पर था, जो खेतों में खड़ी थी। रात का समय था। सर्दी ख़ूब पड़ रही थी। होरी के घर में आज कुछ खाने को न था। दिन को तो थोड़ा-सा भुना हुआ मटर मिल गया था; पर इस वक़्त चूल्हा जलाने का कोई डौल न था और रूपा भूख के मारे व्याकुल भी और द्वार पर कौड़े के सामने बैठी रो रही थी। घर में जब अनाज का एक दाना भी नहीं है, तो क्या माँगे, क्या कहे! जब भूख न सही गयी तो वह आग माँगने के बहाने पुनिया के घर गयी। पुनिया बाजरे की रोटियाँ और बथुए का साग पका रही थी। सुगन्ध से रूपा के मुँह में पानी भर आया। पुनिया ने पूछा -- क्या अभी तेरे घर आग नहीं जली, क्या री?
रूपा ने दीनता से कहा -- आज तो घर में कुछ था ही नहीं, आग कहाँ से जलती?
' तो फिर आग काहे को माँगने आयी है? '
' दादा तमाखू पियेंगे। '
पुनिया ने उपले की आग उसकी ओर फेंक दी; मगर रूपा ने आग उठायी नहीं और समीप जाकर बोली -- तुम्हारी रोटियाँ महक रही हैं काकी! मुझे बाजरे की रोटियाँ बड़ी अच्छी लगती हैं।
पुनिया ने मुस्कराकर पूछा -- खायेगी?
' अम्मा डाटेंगी। '
' अम्मा से कौन कहने जायगा। '
रूपा ने पेट-भर रोटियाँ खायीं और जूठे मुँह भागी हुई घर चली गयी।
होरी मन-मारे बैठा था कि पण्डित दातादीन ने जाकर पुकारा। होरी की छाती धड़कने लगी। क्या कोई नयी विपित्त आनेवाली है। आकर उनके चरण छुये और कौड़े के सामने उनके लिए माँची रख दी। दातादीन ने बैठते हुए अनुग्रह भाव से कहा -- अबकी तो तुम्हारे खेत परती पड़ गये होरी! तुमने गाँव में किसी से कुछ कहा नहीं, नहीं भोला की मजाल थी कि तुम्हारे द्वार से बैल खोल ले जाता! यहीं लहास गिर जाती। मैं तुमसे जनेऊ हाथ में लेकर कहता हूँ, होरी, मैंने तुम्हारे ऊपर डाँड़ न लगाया था। धनिया मुझे नाहक़ बदनाम करती फिरती है। यह लाला पटेश्वरी और झिंगुरीसिंह की कारस्तानी है। मैं तो लोगों के कहने से पंचायत में बैठ भर गया था। वह लोग तो और कड़ा दंड लगा रहे थे। मैंने कह-सुनके कम कराया; मगर अब सब जने सिर पर हाथ धरे रो रहे हैं। समझे थे, यहाँ उन्हीं का राज है। यह न जानते थे, कि गाँव का राजा कोई और है। तो अब अपने खेतों की बोआई का क्या इन्तज़ाम कर रहे हो? होरी ने करुण-कंठ से कहा -- क्या बताऊँ महाराज, परती रहेंगे।
' परती रहेंगे? यह तो बड़ा अनर्थ होगा!
' भगवान् की यही इच्छा है, तो अपना क्या बस। '
' मेरे देखते तुम्हारे खेत कैसे परती रहेंगे। कल मैं तुम्हारी बोआई करा दूँगा। अभी खेत में कुछ तरी है। उपज दस दिन पीछे होगी, इसके सिवा और कोई बात नहीं। हमारा तुम्हारा आधा साझा रहेगा। इसमें न तुम्हें कोई टोटा है, न मुझे। मैंने आज बैठे-बैठे सोचा, तो चित्त बड़ा दुखी हुआ कि जुते-जुताये खेत परती रहे जाते हैं! '
होरी सोच में पड़ गया। चौमासे-भर इन खेतों में खाद डाली, जोता और आज केवल बोआई के लिए आधी फ़सल देनी पड़ रही है। उस पर एहसान कैसा जता रहे हैं; लेकिन इससे तो अच्छा यही है कि खेत परती पड़ जायँ। और कुछ न मिलेगा, लगान तो निकल ही आयेगा। नहीं, अबकी बेबाक़ी न हुई, तो बेदख़ली आयी धरी है। उसने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। दातादीन प्रसन्न होकर बोले -- तो चलो, मैं अभी बीज तौल दूँ, जिसमें सबेरे का झंझट न रहे। रोटी तो खा ली है न? होरी ने लजाते हुए आज घर में चूल्हा न जलने की कथा कही। दातादीन ने मीठे उलाहने के भाव से कहा -- अरे! तुम्हारे घर में चूल्हा नहीं जला और तुमने मुझसे कहा भी नहीं! हम तुम्हारे बैरी तो नहीं थे। इसी बात पर तुमसे मेरा जी कुढ़ता है। अरे भले आदमी, इसमें लाज-सरम की कौन बात है। हम सब एक ही तो हैं। तुम सूद्र हुए तो क्या, हम बाम्हन हुए तो क्या, हैं तो सब एक ही घर के। दिन सबके बराबर नहीं जाते। कौन जाने, कल मेरे ही ऊपर कोई संकट आ पड़े, तो मैं तुमसे अपना दुःख न कहूँगा तो किससे कहूँगा। अच्छा जो हुआ, चलो बेंग ही के साथ तुम्हें मन-दो-मन अनाज खाने को भी तौल दूँगा। आध घंटे में होरी मन-भर जौ का टोकरा सिर पर रखे आया और घर की चक्की चलने लगी। धनिया रोती थी और साहस के साथ जौ पीसती थी। भगवान् उसे किस कुकर्म का यह दंड दे रहे हैं! दूसरे दिन से बोआई शुरू हुई। होरी का सारा परिवार इस तरह काम में जुटा हुआ था, मानो सब कुछ अपना ही है। कई दिन के बाद सिंचाई भी इसी तरह हुई। दातादीन को सेत-मेत के मजूर मिल गये। अब कभी-कभी उनका लड़का मातादीन भी घर में आने लगा। जवान आदमी था, बड़ा रसिक और बातचीत का मीठा; दातादीन जो कुछ छीन-झपटकर लाते थे, वह उसे भाँग-बूटी में उड़ाता था। एक चमारिन से उसकी आशनाई हो गयी थी, इसलिए अभी तक ब्याह न हुआ था। वह रहती थी; पर सारा गाँव यह रहस्य जानते हुए भी कुछ न बोल सकता था। हमारा धर्म है हमारा भोजन। भोजन पवित्र रहे फिर हमारे धर्म पर कोई आँच नहीं आ सकती। रोिटयाँ ढाल बन कर अधर्म से हमारी रक्षा करती हैं। अब साझे की खेती होने से मातादीन को झुनिया से बातचीत करने का अवसर मिलने लगा। वह ऐसे दाँव से आता, जब घर में झुनिया के सिवा और कोई न होता; कभी किसी बहाने से, कभी किसी बहाने से। झुनिया रूपवती न थी; लेकिन जवान थी और उसकी चमारिन प्रेमिका से अच्छी थी। कुछ दिन शहर में रह चुकी थी, पहनना-ओढ़ना, बोलना-चालना जानती थी और लज्जाशील भी थी, जो स्त्री का सबसे बड़ा आकर्षण है। मातादीन कभी-कभी उसके बच्चे को गोद में उठा लेता और प्यार करता। झुनिया निहाल हो जाती थी। एक दिन उसने झुनिया से कहा -- तुम क्या देखकर गोबर के साथ आयीं झूना? झुनिया ने लजाते हुए कहा -- भाग खींच लाया महाराज, और क्या कहूँ। मातादीन दुःखी मन से बोला -- बड़ा बेवफ़ा आदमी है। तुम जैसी लच्छमी को छोड़कर न जाने कहाँ मारा-मारा फिर रहा है। चंचल सुभाव का आदमी है, इसीसे मुझे शंका होती है कि कहीं और न फँस गया हो। ऐसे आदमियों को तो गोली मार देना चाहिए। आदमी का धरम है, जिसकी बाँह पकड़े, उसे निभाये। यह क्या कि एक आदमी की ज़िन्दगी ख़राब कर दी और आप दूसरा घर ताकने लगे। युवती रोने लगी। मातादीन ने इधर-उधर ताककर उसका हाथ पकड़ लिया और समझाने लगा -- तुम उसकी क्यों परवा करती हो झूना, चला गया, चला जाने दो। तुम्हारे लिए किस बात की कमी है। रुपये-पैसे, गहना-कपड़ा, जो चाहो मुझसे लो। झुनिया ने धीरे से हाथ छुड़ा लिया और पीछे हटकर बोली -- सब तुम्हारी दया है महाराज? मैं तो कहीं की न रही। घर से भी गयी, यहाँ से भी गयी। न माया मिली, न राम ही हाथ आये। दुनिया का रंग-ढंग न जानती थी। इसकी मीठी-मीठी बातें सुनकर जाल में फँस गई। मातादीन ने गोबर की बुराई करनी शुरू की -- वह तो निरा लफ़ंगा है, घर का न घाट का। जब देखो, माँ-बाप से लड़ाई। कहीं पैसा पा जाय, चट जुआ खेल डालेगा, चरस और गाँजे में उसकी जान बसती थी, सोहदों के साथ घूमना, बहू-बेटियों को छेड़ना, यही उसका काम था। थानेदार साहब बदमाशी में उसका चालान करनेवाले थे, हम लोगों ने बहुत ख़ुशामद की तब जा कर छोड़ा। दूसरों के खेत-खलिहान से अनाज उड़ा लिया करता था। कई बार तो ख़ुद उसी ने पकड़ा था; पर गाँव-घर समझकर छोड़ दिया। सोना ने बाहर आ कर कहा -- भाभी, अम्माँ ने कहा है अनाज निकालकर धूप में डाल दो, नहीं तो चोकर बहुत निकलेगा। पिण्डत ने जैसे बखार में पानी डाल दिया हो। मातादीन ने अपनी सफ़ाई दी -- मालूम होता है, तेरे घर बरसात नहीं हुई। चौमासे में लकड़ी तक गीली हो जाती है, अनाज तो अनाज ही है। यह कहता हुआ वह बाहर चला गया। सोना ने आकर उसका खेल बिगाड़ दिया। सोना ने झुनिया से पूछा -- मातादीन क्या करने आये थे? झुनिया ने माथा सिकोड़ कर कहा -- पगहिया माँग रहे थे। मैंने कह दिया, यहाँ पगहिया नहीं है।
' यह सब बहाना है। बड़ा ख़राब आदमी है। '
' मुझे तो बड़ा भला आदमी लगता है। क्या ख़राबी है उसमें? '
' तुम नहीं जानती? सिलिया चमारिन को रखे हुए है। '
' तो इसी से ख़राब आदमी हो गया? '
' और काहे से आदमी ख़राब कहा जाता है? '
' तुम्हारे भैया भी तो मुझे लाये हैं। वह भी ख़राब आदमी हैं? '
सोना ने इसका जवाब न देकर कहा -- मेरे घर में फिर कभी आयेगा, तो दुत्कार दूँगी।
' और जो उससे तुम्हारा ब्याह हो जाय? '
सोना लजा गयी -- तुम तो भाभी, गाली देती हो। क्यों, इसमें गाली की क्या बात है? ' ' मुझसे बोले, तो मुँह झुलस दूँ। '
' तो क्या तुम्हारा ब्याह किसी देवता से होगा। गाँव में ऐसा सुन्दर, सजीला जवान दूसरा कौन है? '
' तो तुम चली जाओ उसके साथ, सिलिया से लाख दर्जे अच्छी हो। '
' मैं क्यों चली जाऊँ? मैं तो एक के साथ चली आयी। अच्छा है या बुरा। '
' तो मैं भी जिसके साथ ब्याह होगा, उसके साथ चली जाऊँगी, अच्छा हो या बुरा। '
' और जो किसी बूढ़े के साथ ब्याह हो गया? '
सोना हँसी -- मैं उसके लिए नरम-नरम रोटियाँ पकाऊँगी, उसकी दवाइयाँ कूटूँ-छानूँगी, उसे हाथ पकड़कर उठाऊँगी, जब मर जायगा, तो मुँह ढाँपकर रोऊँगी।
' और जो किसी जवान के साथ हुआ! '
' तब तुम्हारा सिर, हाँ नहीं तो! '
' अच्छा बताओ, तुम्हें बूढ़ा अच्छा लगता है, कि जवान? '
' जो अपने को चाहे वही जवान है, न चाहे वही बूढ़ा है। '
' दैव करे, तुम्हारा बयाह किसी बूढ़े से हो जाय, तो देखूँ, तुम उसे कैसे चाहती हो। तब मनाओगी, किसी तरह यह निगोड़ा मर जाय, तो किसी जवान को लेकर बैठ जाऊँ। '
' मुझे तो उस बूढ़े पर दया आये। '
इस साल इधर एक शक्कर का मिल खुल गया था। उसके कारिन्दे और दलाल गाँव-गाँव घूमकर किसानों की खड़ी ऊख मोल ले लेते थे। वही मिल था, जो मिस्टर खन्ना ने खोला था। एक दिन उसका कारिन्दा इस गाँव में भी आया। किसानों ने जो उससे भाव-ताव किया, तो मालूम हुआ, गुड़ बनाने में कोई बचत नहीं है; जब घर में ऊख पेरकर भी यही दाम मिलता है, तो पेरने की मेहनत क्यों उठायी जाय? सारा गाँव खड़ी ऊख बेचने को तैयार हो गया; अगर कुछ कम भी मिले, तो परवाह नहीं। तत्काल तो मिलेगा। किसी को बैल लेना था, किसी को बाक़ी चुकाना था, कोई महाजन से गला छुड़ाना चाहता था। होरी को बैलों की गोईं लेनी थी। अबकी ऊख की पैदावार अच्छी न थी; इसलिए यह डर था कि माल न पड़ेगा। और जब गुड़ के भाव मिल की चीनी मिलेगी, तो गुड़ लेगा ही कौन? सभी ने बयाने ले लिये। होरी को कम-से-कम सौ रुपये की आशा थी। इसमें एक मामूली गोई आ जायगी; लेकिन महाजनों को क्या करे! दातादीन, मँगरू, दुलारी, सिंगुरीसिंह सभी तो प्राण खा रहे थे। अगर महाजनों को देने लगेगा, तो सौ रुपए सूद-भर को भी न होंगे! कोई ऐसी जुगुत न सूझती थी कि ऊख के रुपए हाथ आ जायँ और किसी को ख़बर न हो। जब बैल घर आ जायँगे, तो कोई क्या कर लेगा? गाड़ी लदेगी, तो सारा गाँव देखेगा ही, तौल पर जो रुपए मिलेंगे, वह सबको मालूम हो जायँगे। सम्भव है मँगरू और दातादीन हमारे साथ-साथ रहें। इधर रुपए मिले, उधर उन्होंने गर्दन पकड़ी। शाम को गिरधर ने पूछा -- तुम्हारी ऊख कब तक जायेगी होरी काका?
होरी ने झाँसा दिया -- अभी तो कुछ ठीक नहीं है भाई, तुम कब तक ले जाओगे?
गिरधर ने भी झाँसा दिया -- अभी तो मेरा भी कुछ ठीक नहीं है काका! और लोग भी इसी तरह की उड़नघाइयाँ बताते थे, किसी को किसी पर विश्वास न था।
झिंगुरीसिंह के सभी रिनियाँ थे, और सबकी यही इच्छा थी कि झिंगुरीसिंह के हाथ रुपए न पड़ने पायें, नहीं वह सबका सब हज़म कर जायगा। और जब दूसरे दिन असामी फिर रुपये माँगने जायगा, तो नया काग़ज़, नया नज़राना, नई तहरीर। दूसरे दिन शोभा आकर बोला -- दादा कोई ऐसा उपाय करो कि झिंगुरी को हैज़ा हो जाय। ऐसा गिरे कि फिर न उठे।
होरी ने मुस्कराकर कहा -- क्यों, उसके बाल-बच्चे नहीं हैं?
' उसके बाल-बच्चों को देखें कि अपने बाल-बच्चों को देखें? वह तो दो-दो मेहरियों को आराम से रखता है, यहाँ तो एक को रूखी रोटी भी मयस्सर नहीं, सारी जमा ले लेगा। एक पैसा भी घर न लाने देगा। '
' मेरी तो हालत और भी ख़राब है भाई, अगर रुपए हाथ से निकल गये, तो तबाह हो जाऊँगा। गोईं के बिना तो काम न चलेगा। '
' अभी तो दो-तीन दिन ऊख ढोते लगेंगे। ज्यों ही सारी ऊख पहुँच जाय, जमादार से कहें कि भैया कुछ ले ले, मगर ऊख चटपट तौल दे, दाम पीछे देना। इधर झिंगुरी से कह देंगे, अभी रुपए नहीं मिले। '
होरी ने विचार करके कहा -- झिंगुरीसिंह हमसे-तुमसे कई गुना चतुर है सोभा! जाकर मुनीम से मिलेगा और उसीसे रुपए ले लेगा। हम-तुम ताकते रह जायँगे। जिस खन्ना बाबू का मिल है, उन्हीं खन्ना बाबू की महाजनी कोठी भी है। दोनों एक हैं।
शोभा निराश होकर बोला -- न जाने इन महाजनों से भी कभी गला छूटेगा कि नहीं।
होरी बोला -- इस जनम में तो कोई आशा नहीं है भाई! हम राज नहीं चाहते, भोग-विलास नहीं चाहते, ख़ाली मोटा-झोटा पहनना, और मोटा-झोटा खाना और मरजाद के साथ रहना चाहते हैं। वह भी नहीं सधता।
शोभा ने धूर्तता के साथ कहा -- मैं तो दादा, इन सबों को अबकी चकमा दूँगा। जमादार को कुछ दे-दिलाकर इस बात पर राज़ी कर लूँगा कि रुपए के लिए हमें ख़ूब दौड़ायें। झिंगुरी कहाँ तक दौड़ेंगे।
होरी ने हँसकर कहा -- यह सब कुछ न होगा भैया! कुशल इसी में है कि झिंगुरीसिंह के हाथ-पाँव जोड़ो। हम जाल में फँसे हुए हैं। जितना ही फड़फड़ाओगे, उतना ही और जकड़ते जाओगे। ' तुम तो दादा, बूढ़ों की-सी बातें कर रहे हो। कटघरे में फँसे बैठे रहना तो कायरता है। फन्दा और जकड़ जाय बला से; पर गला छुड़ाने के लिए ज़ोर तो लगाना ही पड़ेगा। यही तो होगा झिंगुरी घर-द्वार नीलाम करा लेंगे; करा लें नीलाम! मैं तो चाहता हूँ कि हमें कोई रुपए न दे, हमें भूखों मरने दे, लातें खाने दे, एक पैसा भी उधार न दे; लेकिन पैसावाले उधार न दें तो सूद कहाँ से पायें। एक हमारे ऊपर दावा करता है, तो दूसरा हमें कुछ कम सूद पर रुपए उधार देकर अपने जाल में फँसा लेता है। मैं तो उसी दिन रुपये लेने जाऊँगा, जिस दिन झिंगुरी कहीं चला गया होगा।
होरी का मन भी विचलित हुआ -- हाँ, यह ठीक है।
' ऊख तुलवा देंगे। रुपए दाँव-घात देखकर ले आयँगे। '
' बस-बस, यही चाल चलो। '
दूसरे दिन प्रातःकाल गाँव के कई आदमियों ने ऊख काटनी शुरू की। होरी भी अपने खेत में गँड़ासा लेकर पहुँचा। उधर से शोभा भी उसकी मदद को आ गया। पुनिया, झुनिया, धनिया, सोना सभी खेत में जा पहुँचीं। कोई ऊख काटता था, कोई छीलता था, कोई पूले बाँधता था। महाजनों ने जो ऊख कटते देखी, तो पेट में चूहे दौड़े। एक तरफ़ से दुलारी दौड़ी, दूसरी तरफ़ से मँगरू साह, तीसरी ओर से मातादीन और पटेश्वरी और झिंगुरी के पियादे। दुलारी हाथ-पाँव में मोटे-मोटे चाँदी के कड़े पहने, कानों में सोने का झूमक, आँखों में काजल लगाये, बूढ़े यौवन को रँगे-रँगाये आकर बोली -- पहले मेरे रुपये दे दो तब ऊख काटने दूँगी। मैं जितना ही ग़म खाती हूँ, उतना ही तुम शेर होते हो। दो साल से एक धेला सूद नहीं दिया, पचास तो मेरे सूद के होते हैं।
होरी ने घिघियाकर कहा -- भाभी, ऊख काट लेने दो, इनके रुपये मिलते हैं, तो जितना हो सकेगा, तुमको भी दूँगा। न गाँव छोड़कर भागा जाता हूँ, न इतनी जल्द मौत ही आयी जाती है। खेत में खड़ी ऊख तो रुपये न देगी?
दुलारी ने उसके हाथ से गँड़ासा छीनकर कहा -- नीयत इतनी ख़राब हो गयी है तुम लोगों की, तभी तो बरक्कत नहीं होती। आज पाँच साल हुए, होरी ने दुलारी से तीस रुपये लिये थे, तीन साल में उसके सौ रुपये हो गये, तब स्टाम्प लिखा गया। दो साल में उस पर पचास रुपया सूद चढ़ गया था।
होरी बोला -- सहुआइन, नीयत तो कभी ख़राब नहीं की, और भगवान् चाहेंगे, तो पाई-पाई चुका दूँगा। हाँ, आजकल तंग हो गया हूँ, जो चाहे कह लो।
सहुआइन को जाते देर नहीं हुई कि मँगरू साह पहुँचे। काला रंग, तोंद कमर के नीचे लटकती हुई, दो बड़े-बड़े दाँत सामने जैसे काट खाने को निकले हुए, सिर पर टोपी, गले में चादर, उम्र अभी पचास से ज़्यादा नहीं; पर लाठी के सहारे चलते थे। गठिया का मरज़ हो गया था। खाँसी भी आती थी। लाठी टेककर खड़े हो गये और होरी को डाँट बतायी -- पहले हमारे रुपये दे दो होरी, तब ऊख काटो। हमने रुपये उधार दिये थे, ख़ैरात नहीं थे। तीन-तीन साल हो गये, न सूद न ब्याज; मगर यह न समझना कि तुम मेरे रुपये हज़म कर जाओगे। मैं तुम्हारे मुदेर् से भी वसूल कर लूँगा।
शोभा मसख़रा था। बोला -- तब काहे को घबड़ाते हो साहजी, इनके मुर्दे ही से वसूल कर लेना। नहीं, एक दो साल के आगे पीछे दोनों ही सरग में पहुँचोगे। वहीं भगवान् के सामने अपना हिसाब चुका लेना।
मँगरू ने शोभा को बहुत बुरा-भला कहा -- जमामार, बेईमान इत्यादि। लेने की बेर तो दुम हिलाते हो, जब देने की बारी आती है, तो गुरार्ते हो। घर बिकवा लूँगा; बैल बधिये नीलाम करा लूँगा।
शोभा ने फिर छेड़ा -- अच्छा, ईमान से बताओ साह, कितने रुपए दिये थे, जिसके अब तीन सौ रुपये हो गये हैं?
' जब तुम साल के साल सूद न दोगे, तो आप ही बढ़ेंगे। '
' पहले-पहल कितने रुपये दिये थे तुमने? पचास ही तो। '
' कितने दिन हुए, यह भी तो देख। '
' पाँच-छः साल हुए होंगे? '
' दस साल हो गये पूरे, ग्यारहवाँ जा रहा है। '
' पचास रुपये के तीन सौ रुपए लेते तुम्हें ज़रा भी सरम नहीं आती! '
' सरम कैसी, रुपये दिये हैं कि ख़ैरात माँगते हैं। '
होरी ने इन्हें भी चिरौरी-बिनती करके बिदा किया। दातादीन ने होरी के साझे में खेती की थी। बीज देकर आधी फ़सल ले लेंगे। इस वक़्त कुछ छेड़-छाड़ करना नीति-विरुद्ध था। झिंगुरीसिंह ने मिल के मैनेजर से पहले ही सब कुछ कह-सुन रखा था। उनके प्यादे गाड़ियों पर ऊख लदवाकर नाव पर पहुँचा रहे थे। नदी गाँव से आध मील पर थी। एक गाड़ी दिन-भर में सात-आठ चक्कर कर लेती थी। और नाव एक खेवे में पचास गाड़ियों का बोझ लाद लेती थी। इस तरह किफ़ायत पड़ती थी। इस सुविधा का इन्तज़ाम करके झिंगुरीसिंह ने सारे इलाक़े को एहसान से दबा दिया था। तौल शुरू होते ही झिंगुरीसिंह ने मिल के फाटक पर आसन जमा लिया। हर-एक की ऊख तौलाते थे, दाम का पुरज़ा लेते थे, ख़ज़ांची से रुपए वसूल करते थे और अपना पावना काटकर असामी को दे देते थे। असामी कितना ही रोये, चीख़े, किसी की न सुनते थे। मालिक का यही हुक्म था। उनका क्या बस! होरी को एक सौ बीस रुपए मिले। उसमें से झिंगुरीसिंह ने अपने पूरे रुपये सूद समेत काटकर कोई पचीस रुपये होरी के हवाले किये। होरी ने रुपये की ओर उदासीन भाव से देखकर कहा -- यह लेकर मैं क्या करूँगा ठाकुर, यह भी तुम्हीं ले लो। मेरे लिए मजूरी बहुत मिलेगी।
झिंगुरी ने पचीसों रुपये ज़मीन पर फेंककर कहा -- लो या फेंक दो, तुम्हारी ख़ुशी। तुम्हारे कारन मालिक की घुड़कियाँ खायीं और अभी राय साहब सिर पर सवार हैं कि डाँड़ के रुपये अदा करो। तुम्हारी ग़रीबी पर दया करके इतने रुपये दिये देता हूँ, नहीं एक धेला भी न देता। अगर राय साहब ने सख़्ती की तो उल्टे और घर से देने पड़ेंगे।
होरी ने धीरे से रुपये उठा लिये और बाहर निकला कि नोखेराम ने ललकारा। होरी ने जाकर पचीसों रुपये उनके हाथ पर रख दिये, और बिना कुछ कहे जल्दी से भाग गया। उसका सिर चक्कर खा रहा था। शोभा को इतने ही रुपये मिले थे। वह बाहर निकला, तो पटेश्वरी ने घेरा। शोभा बदल पड़ा। बोला -- मेरे पास रुपये नहीं हैं; तुम्हें जो कुछ करना हो, कर लो।
पटेश्वरी ने गर्म होकर कहा -- ऊख बेची है कि नहीं?
' हाँ, बेची है। '
' तुम्हारा यही वादा तो था कि ऊख बेचकर रुपया दूँगा? ' ' हाँ, था तो। '
' फिर क्यों नहीं देते। और सब लोगों को दिये हैं कि नहीं? '
' हाँ, दिये हैं। '
' तो मुझे क्यों नहीं देते? '
' मेरे पास अब जो कुछ बचा है, वह बाल-बच्चों के लिए है। '
पटेश्वरी ने बिगड़कर कहा -- तुम रुपये दोगे शोभा, और हाथ जोड़कर और आज ही। हाँ, अभी जितना चाहो, बहक लो। एक रपट में जाओगे छः महीने को, पूरे छः महीने को, न एक दिन बेस न एक दिन कम। यह जो नित्य जुआ खेलते हो, वह एक रपट में निकल जायगा। मैं ज़मींदार या महाजन का नौकर नहीं हूँ, सरकार बहादुर का नौकर हूँ, जिसका दुनिया भर में राज है और जो तुम्हारे महाजन और ज़मींदार दोनों का मालिक है। पटेश्वरी लाला आगे बढ़ गये। शोभा और होरी कुछ दूर चुपचाप चले। मानो इस धिक्कार ने उन्हें संज्नाहीन कर दिया हो। तब होरी ने कहा -- शोभा, इसके रुपये दे दो। समझ लो, ऊख में आग लग गयी थी। मैंने भी यही सोचकर, मन को समझाया है। शोभा ने आहत कंठ से कहा -- हाँ, दे दूँगा दादा! न दूँगा तो जाऊँगा कहाँ? सामने से गिरधर ताड़ी पिये झूमता चला आ रहा था। दोनों को देखकर बोला -- झिंगुरिया ने सारे का सारा ले लिया होरी काका! चबैना को भी एक पैसा न छोड़ा। हत्यारा कहीं का। रोया गिड़गिड़ाया; पर इस पापी को दया न आयी। शोभा ने कहा -- ताड़ी तो पिये हुए हो, उस पर कहते हो, एक पैसा भी न छोड़ा! गिरधर ने पेट दिखाकर कहा -- साँझ हो गयी, जो पानी की बूँद भी कंठ तले गयी हो, तो गो-मांस बराबर। एक इकन्नी मुँह में दबा ली थी। उसकी ताड़ी पी ली। सोचा, साल-भर पसीना गारा है, तो एक दिन ताड़ी तो पी लूँ; मगर सच कहता हूँ, नसा नहीं है। एक आने में क्या नसा होगा। हाँ, झूम रहा हूँ जिसमें लोग समझें ख़ूब पिये हुए है। बड़ा अच्छा हुआ काका, बेबाक़ी हो गयी। बीस लिये, उसके एक सौ साठ भरे, कुछ हद है! होरी घर पहुँचा, तो रूपा पानी लेकर दौड़ी, सोना चिलम भर लायी, धनिया ने चबेना और नमक लाकर रख दिया और सभी आशा भरी आँखों से उसकी ओर ताकने लगीं। झुनिया भी चौखट पर आ खड़ी हुई थी। होरी उदास बैठा था। कैसे मुँह-हाथ धोये, कैसे चबेना खाये। ऐसा लज्जित और ग्लानित था, मानो हत्या करके आया हो। धनिया ने पूछा -- कितने की तौल हुई?
' एक सौ बीस मिले; पर सब वहीं लुट गये, धेला भी न बचा। '
धनिया सिर से पाँव तक भस्म हो उठी। मन में ऐसा उद्वेग उठा कि अपना मुँह नोच ले। बोली -- तुम जैसा घामड़ आदमी भगवान् ने क्यों रचा, कहीं मिलते तो उनसे पूछती। तुम्हारे साथ सारी ज़िन्दगी तलख़ हो गयी, भगवान् मौत भी नहीं देते कि जंजाल से जान छूटे। उठाकर सारे रुपए बहनोईयों को दे दिये। अब और कौन आमदनी है, जिससे गोई आयेगी। हल में क्या मुझे जोतोगे, या आप जुतोगे? मैं कहती हूँ, तुम बूढ़े हुए, तुम्हें इतनी अक्ल भी नहीं आई कि गोईं-भर के रुपए तो निकाल लेते! कोई तुम्हारे हाथ से छीन थोड़े लेता। पूस की यह ठंड और किसी की देह पर लत्ता नहीं। ले जाओ सबको नदी में डुबा दो। सिसक-सिसक कर मरने से तो एक दिन मर जाना फिर अच्छा है। कब तक पुआल में घुसकर रात काटेंगे और पुआल में घुस भी लें, तो पुआल खाकर रहा तो न जायगा! तुम्हारी इच्छा हो घास ही खाओ, हमसे तो घास न खायी जायगी।
यह कहते-कहते वह मुस्करा पड़ी। इतनी देर में उसकी समझ में यह बात आने लगी थी कि महाजन जब सिर पर सवार हो जाय, और अपने हाथ में रुपए हों और महाजन जानता हो कि इसके पास रुपए हैं, तो असामी कैसे अपनी जान बचा सकता है! होरी सिर नीचा किये अपने भाग्य को रो रहा था। धनिया का मुस्कराना उसे न दिखायी दिया। बोला -- मजूरी तो मिलेगी। मजूरी करके खायँगे।
धनिया ने पूछा -- कहाँ है इस गाँव में मजूरी? और कौन मुँह लेकर मजूरी करोगे? महतो नहीं कहलाते!
होरी ने चिलम के कई कश लगाकर कहा -- मजूरी करना कोई पाप नहीं है। मजूर बन जाय तो किसान हो जाता है। किसान बिगड़ जाय तो मजूर हो जाता है। मजूरी करना भाग्य में न होता तो यह सब बिपत क्यों आती? क्यों गाय मरती? क्यों लड़का नालायक़ निकल जाता?
धनिया ने बहू और बेटियों की ओर देखकर कहा -- तुम सब की सब क्यों घेरे खड़ी हो, जाकर अपना-अपना काम देखो। वह और हैं जो हाट-बाज़ार से आते हैं, तो बाल-बच्चों के लिए दो-चार पैसे की कोई चीज़ लिये आते हैं। यहाँ तो यह लोभ लग रहा होगा कि रुपए तुड़ायें कैसे? एक कम न हो जायगा; इसी से इनकी कमाई में बरक्कत नहीं होती। जो ख़रच करते हैं, उन्हें मिलता है। जो न खा सकें, न पहन सकें, उन्हें रुपए मिले ही क्यों? ज़मीन में गाड़ने के लिए?
होरी ने खिलखिलाकर पूछा -- कहाँ है वह गाड़ी हुई थाती?
' जहाँ रखी है, वहीं होगी। रोना तो यही है कि यह जानते हुए भी पैसों के लिए मरते हो! चार पैसे की कोई चीज़ लाकर बच्चों के हाथ पर रख देते तो पानी में न पड़ जाते। झिंगुरी से तुम कह देते कि एक रुपया मुझे दे दो, नहीं मैं तुम्हें एक पैसा न दूँगा, जाकर अदालत में लेना, तो वह ज़रूर दे देता। '
होरी लज्जित हो गया। अगर वह झल्लाकर पच्चीसों रुपये नोखेराम को न दे देता, तो नोखे क्या कर लेते? बहुत होता बक़ाया पर दो-चार आना सूद ले लेता; मगर अब तो चूक हो गयी! झुनिया ने भीतर जाकर सोना से कहा -- मुझे तो दादा पर बड़ी दया आती है। बेचारे दिन-भर के थके-माँदे घर आये, तो अम्माँ कोसने लगीं। महाजन गला दबाये था, तो क्या करते बेचारे!
' तो बैल कहाँ से आयेंगे? '
' महाजन अपने रुपए चाहता है। उसे तुम्हारे घर के दुखड़ों से क्या मतलब? '
' अम्माँ वहाँ होतीं, तो महाजन को मज़ा चखा देतीं। अभागा रोकर रह जाता। '
झुनिया ने दिल्लगी की -- तो यहाँ रुपये की कौन कमी है। तुम महाजन से ज़रा हँसकर बोल दो, देखो सारे रुपए छोड़ देता है कि नहीं। सच कहती हूँ, दादा का सारा दुख-दलिद्दर दूर हो जाय।
सोना ने दोनों हाथों से उसका मुँह दबाकर कहा -- बस, चुप ही रहना, नहीं कहे देती हूँ। अभी जाकर अम्माँ से मातादीन की सारी क़लई खोल दूँ तो रोने लगो।
झुनिया ने पूछा -- क्या कह दोगी अम्माँ से? कहने को कोई बात भी हो। जब वह किसी बहाने से घर में आ जाते हैं, तो क्या कह दूँ कि निकल जाओ, फिर मुझसे कुछ ले तो नहीं जाते। कुछ अपना ही दे जाते हैं। सिवाय मीठी-मीठी बातों के वह झुनिया से कुछ नहीं पा सकते! और अपनी मीठी बातों को महँगे दामों बेचना भी मुझे आता है। मैं ऐसी अनाड़ी नहीं हूँ कि किसी के झाँसे में आ जाऊँ। हाँ, जब जान जाऊँगी कि तुम्हारे भैया ने वहाँ किसी को रख लिया है, तब की नहीं चलाती। तब मेरे ऊपर किसी का कोई बन्धन न रहेगा। अभी तो मुझे विश्वास है कि वह मेरे हैं और मेरे ही कारन उन्हें गली-गली ठोकर खाना पड़ रहा है। हँसने-बोलने की बात न्यारी है, पर मैं उनसे विश्वासघात न करूँगी। जो एक से दो का हुआ, वह किसी का नहीं रहता।
शोभा ने आकर होरी को पुकारा और पटेश्वरी के रुपए उसके हाथ में रखकर बोला -- भैया, तुम जाकर ये रुपए लाला को दे दो। मुझे उस घड़ी न जाने क्या हो गया था।
होरी रुपए लेकर उठा ही था कि शंख की ध्वनि कानों में आयी। गाँव के उस सिरे पर ध्यानसिंह नाम के एक ठाकुर रहते थे। पल्टन में नौकर थे और कई दिन हुए, दस साल के बाद रजा लेकर आये थे। बगदाद, अदन, सिंगापुर, बर्मा -- चारों तरफ़ घूम चुके थे। अब ब्याह करने की धुन में थे। इसीलिए पूजा-पाठ करके ब्राह्मणों को प्रसन्न रखना चाहते थे। होरी ने कहा -- जान पड़ता है सातों अध्याय पूरे हो गये। आरती हो रही है।
शोभा बोला -- हाँ, जान तो पड़ता है, चलो आरती ले लो।
होरी ने चिन्तित भाव से कहा -- तुम जाओ, मैं थोड़ी देर में आता हूँ।
ध्यानसिंह जिस दिन आये थे, सब के घर सेर-सेर भर मिठाई बैना भेजी थी। होरी से जब कभी रास्ते मिल जाते, कुशल पूछते। उनकी कथा में जाकर आरती में कुछ न देना अपमान की बात थी। आरती का थाल उन्हीं के हाथ में होगा। उनके सामने होरी कैसे ख़ाली हाथ आरती ले लेगा! इससे तो कहीं अच्छा है कि वह कथा में जाये ही नहीं। इतने आदमियों में उन्हें क्या याद आयेगी कि होरी नहीं आया। कोई रजिस्टर लिये तो बैठा नहीं है कि कौन आया, कौन नहीं आया। वह जाकर खाट पर लेट रहा। मगर उसका हृदय मसोस-मसोस कर रह जाता था। उसके पास एक पैसा भी नहीं है! ताँबे का एक पैसा! आरती के पुण्य और माहात्म्य का उसे बिलकुल ध्यान न था। बात थी केवल व्यवहार की। ठाकुरजी की आरती तो वह केवल श्रद्धा की भेंट देकर ले सकता था; लेकिन मर्यादा कैसे तोड़े, सबकी आँखों में हेठा कैसे बने! सहसा वह उठ बैठा। क्यों मर्यादा की ग़ुलामी करे। मर्यादा के पीछे आरती का पुण्य क्यों छोड़े। लोग हँसेंगे, हँस लें। उसे परवा नहीं है। भगवान् उसे कुकर्म से बचाये रखें, और वह कुछ नहीं चाहता। वह ठाकुर के घर की ओर चल पड़ा।
Godan / गोदान भाग 18 / प्रेमचंद / Premchand
खन्ना और गोविन्दी में नहीं पटती। क्यों नहीं पटती, यह बताना कठिन है। ज्योतिष के हिसाब से उनके ग्रहों में कोई विरोध है, हालाँकि विवाह के समय ग्रह और नक्षत्र ख़ूब मिला लिये गये थे। काम-शास्त्र के हिसाब से इस अनबन का और कोई रहस्य हो सकता है, और मनोविज्ञान वाले कुछ और ही कारण खोज सकते हैं। हम तो इतना ही जानते हैं कि उनमें नहीं पटती। खन्ना धनवान हैं, रसिक हैं, मिलनसार हैं, रूपवान हैं अच्छे ख़ासे पढ़े-लिखे हैं और नगर के विशिष्ट पुरुषों में हैं। गोविन्दी अप्सरा न हो, पर रूपवती अवश्य है; गेहुँआ रंग लज्जाशील आँखें जो एक बार सामने उठकर फिर झुक जाती हैं, कपोलों पर लाली न हो पर चिकनापन है, गात कोमल, अंग-विन्यास, सुडौल, गोल बाँहें, मुख पर एक प्रकार की अरुचि, जिसमें कुछ गर्व की झलक भी है, मानो संसार के व्यवहार और व्यापार को हेय समझती है। खन्ना के पास विलास के ऊपरी साधनों की कमी नहीं, अव्वल दरजे का बंगला है, अव्वल दरजे का फ़र्नीचर, अव्वल दरजे की कार और अपार धन; पर गोविन्दी की दृष्टि में जैसे इन चीज़ों का कोई मूल्य नहीं। इस खारे सागर में वह प्यासी पड़ी रहती है। बच्चों का लालन-पालन और गृहस्थी के छोटे-मोटे काम ही उसके लिए सब कुछ हैं। वह इनमें इतनी व्यस्त रहती है कि भोग की ओर उसका ध्यान नहीं जाता। आकर्षण क्या वस्तु है और कैसे उत्पन्न हो सकता है, इसकी ओर उसने कभी विचार नहीं किया। वह पुरुष का खिलौना नहीं है, न उसके भोग की वस्तु, फिर क्यों आकर्षक बनने की चेष्टा करे; अगर पुरुष उसका असली सौन्दर्य देखने के लिए आँखें नहीं रखता, कामिनियों के पीछे मारा-मारा फिरता है तो वह उसका दुर्भाग्य है। वह उसी प्रेम और निष्ठा से पति की सेवा किये जाती है जैसे द्वेष और मोह-जैसी भावनाओं को उसने जीत लिया है। और यह अपार सम्पत्ति तो जैसे उसकी आत्मा को कुचलती रहती है। इन आडम्बरों और पाखंडों से मुक्त होने के लिए उसका मन सदैव ललचाया करता है। अपने सरल और स्वाभाविक जीवन में वह कितनी सुखी रह सकती थी, इसका वह नित्य स्वप्न देखती रहती है। तब क्यों मालती उसके मार्ग में आकर बाधक हो जाती! क्यों वेश्याओं के मुजरे होते, क्यों यह सन्देह और बनावट और अशान्ति उसके जीवन-पथ में काँटा बनती! बहुत पहले जब वह बालिका-विद्यालय में पढ़ती थी, उसे कविता का रोग लग गया था, जहाँ दुख और वेदना ही जीवन का तत्व है, सम्पत्ति और विलास तो केवल इसलिए है कि उसकी होली जलायी जाय, जो मनुष्य को असत्य और अशान्ति की ओर ले जाता है। वह अब कभी-कभी कविता रचती थी; लेकिन सुनाये किसे? उसकी कविता केवल मन की तरंग या भावना की उड़ान न थी, उसके एक-एक शब्द में उसके जीवन की व्यथा और उसके आँसुओं की ठंडी जलन भरी होती थी -- किसी ऐसे प्रदेश में जा बसने की लालसा, जहाँ वह पाखंडों और वासनाओं से दूर अपनी शान्त कुटिया में सरल आनन्द का उपभोग करे। खन्ना उसकी कविताएँ देखते, तो उनका मज़ाक़ उड़ाते और कभी-कभी फाड़कर फेंक देते। और सम्पत्ति की यह दीवार दिन-दिन ऊँची होती जाती थी और दम्पति को एक दूसरे से दूर और पृथक करती जाती थी। खन्ना अपने ग्राहकों के साथ जितना ही मीठा और नम्र था, घर में उतना ही कटु और उद्दंड। अक्सर क्रोध में गोविन्दी को अपशब्द कह बैठता, शिष्टता उसके लिए दुनिया को ठगने का एक साधन थी, मन का संस्कार नहीं। ऐसे अवसरों पर गोविन्दी अपने एकान्त कमरें में जा बैठती और रात की रात रोया करती और खन्ना दीवानखाने में मुजरे सुनता या क्लब में जाकर शराबें उड़ाता। लेकिन यह सब कुछ होने पर भी खन्ना उसके सर्वस्व थे। वह दलित और अपमानित होकर भी खन्ना की लौंडी थी। उनसे लड़ेगी, जलेगी, रोयेगी; पर रहेगी उन्हीं की। उनसे पृथक जीवन की वह कोई कल्पना ही न कर सकती थी। आज मिस्टर खन्ना किसी बुरे आदमी का मुँह देखकर उठे थे। सबेरे ही पत्र खोला, तो उनके कई स्टाकों का दर गिर गया था, जिसमें उन्हें कई हज़ार की हानि होती थी। शक्कर मिल के मज़दूरों ने हड़ताल कर दी थी और दंगा-फ़साद करने पर अमादा थे। नफ़े की आशा से चाँदी ख़रीदी थी; मगर उसका दर आज और भी ज़्यादा गिर गया था। राय साहब से जो सौदा हो रहा था और जिसमें उन्हें ख़ासे नफ़े की आशा थी, वह कुछ दिनों के लिए टलता हुआ जान पड़ता था। फिर रात को बहुत पी जाने के कारण इस वक़्त सिर भारी था और देह टूट रही थी। इधर शोफ़र ने कार के इंजन में कुछ ख़राबी पैदा हो जाने की बात कही थी और लाहौर में उनके बैंक पर एक दीवानी मुक़दमा दायर हो जाने का समाचार भी मिला था। बैठे मन में झुँझला रहे थे कि उसी वक़्त गोविन्दी ने आकर कहा -- भीष्म का ज्वर आज भी नहीं उतरा, किसी डाक्टर को बुला दो। भीष्म उनका सबसे छोटा पुत्र था, और जन्म से ही दुर्बल होने के कारण उसे रोज़ एक-न-एक शिकायत बनी रहती थी। आज खाँसी है, तो कल बुख़ार; कभी पसली चल रही है, कभी हरे-पीले दस्त आ रहे हैं। दस महीने का हो गया था! पर लगता था पाँच-छः महीने का। खन्ना की धारणा हो गयी थी कि यह लड़का बचेगा नहीं; इसलिए उसकी ओर से उदासीन रहते थे; पर गोविन्दी इसी कारण उसे और सब बच्चों से ज़्यादा चाहती थी।
खन्ना ने पिता के स्नेह का भाव दिखाते हुए कहा -- बच्चों को दवाओं का आदी बना देना ठीक नहीं, और तुम्हें दवा पिलाने का मरज़ है। ज़रा कुछ हुआ और डाक्टर बुलाओ। एक रोज़ और देखो, आज तीसरा ही दिन तो है। शायद आज आप-ही-आप उतर जाय।
गोविन्दी ने आग्रह किया -- तीन दिन से नहीं उतरा। घरेलू दवाएँ करके हार गयी।
खन्ना ने पूछा -- अच्छी बात है बुला देता हूँ, किसे बुलाऊँ?
' बुला लो डाक्टर नाग को। '
' अच्छी बात है, उन्हीं को बुलाता हूँ, मगर यह समझ लो कि नाम हो जाने से ही कोई अच्छा डाक्टर नहीं हो जाता। नाग फ़ीस चाहे जितनी ले लें, उनकी दवा से किसी को अच्छा होते नहीं देखा। वह तो मरीज़ों को स्वर्ग भेजने के लिए मशहूर हैं। '
' तो जिसे चाहो बुला लो, मैंने तो नाग को इसलिए कहा था कि वह कई बार आ चुके हैं। '
' मिस मालती को क्यों न बुला लूँ? फ़ीस भी कम और बच्चों का हाल लेडी डाक्टर जैसा समझेगी, कोई मर्द डाक्टर नहीं समझ सकता। '
गोविन्दी ने जलकर कहा -- मैं मिस मालती को डाक्टर नहीं समझती।
खन्ना ने भी तेज़ आँखों से देखकर कहा -- तो वह इंगलैंड घास खोदने गयी थी, और हज़ारों आदमियों को आज जीवन-दान दे रही है; यह सब कुछ नहीं है?
' होगा, मुझे उन पर भरोसा नहीं है। वह मरदों के दिल का इलाज कर लें। और किसी की दवा उनके पास नहीं है। '
बस ठन गयी। खन्ना गरजने लगे। गोविन्दी बरसने लगी। उनके बीच में मालती का नाम आ जाना मानो लड़ाई का अल्टिमेटम था। खन्ना ने सारे काग़ज़ों को ज़मीन पर फेंककर कहा -- तुम्हारे साथ ज़िन्दगी तलख़ हो गयी। गोविन्दी ने नुकीले स्वर में कहा -- तो मालती से ब्याह कर लो न! अभी क्या बिगड़ा है, अगर वहाँ दाल गले।
' तुम मुझे क्या समझती हो? '
' यही कि मालती तुम-जैसों को अपना ग़ुलाम बनाकर रखना चाहती है, पति बनाकर नहीं। '
' तुम्हारी निगाह में मैं इतना ज़लील हूँ? '
और उन्हींने इसके विरुद्ध प्रमाण देने शुरू किया। मालती जितना उनका आदर करती है, उतना शायद ही किसी का करती हो। राय साहब और राजा साहब को मुँह तक नहीं लगाती; लेकिन उनसे एक दिन भी मुलाक़ात न हो, तो शिकायत करती है ....
गोविन्दी ने इन प्रमाणों को एक फूँक में उड़ा दिया -- इसीलिए कि वह तुम्हें सबसे बड़ा आँखों का अन्धा समझती है, दूसरों को इतना आसानी से बेवक़ूफ़ नहीं बना सकती। खन्ना ने डींग मारी -- वह चाहें तो आज मालती से विवाह कर सकते हैं। आज, अभी ...
मगर गोविन्दी को बिलकुल विश्वास नहीं है -- तुम सात जन्म नाक रगड़ो, तो भी वह तुमसे विवाह न करेगी। तुम उसके टट्टू हो, तुम्हें घास खिलायेगी, कभी-कभी तुम्हारा मुँह सहलायेगी, तुम्हारे पुट्ठों पर हाथ फेरेगी; लेकिन इसलिए कि तुम्हारे ऊपर सवारी गाँठे। तुम्हारे जैसे एक हज़ार बुद्धू उसकी जेब में हैं। गोविन्दी आज बहुत बढ़ी जाती थी। मालूम होता है, आज वह उनसे लड़ने पर तैयार होकर आयी है। डाक्टर के बुलाने का तो केवल बहाना था। खन्ना अपनी योग्यता और दक्षता और पुरुषत्व पर इतना बड़ा आक्षेप कैसे सह सकते थे!
' तुम्हारे ख़याल में मैं बुद्धू और मूर्ख हूँ, तो ये हज़ारों क्यों मेरे द्वार पर नाक रगड़ते हैं? कौन राजा या ताल्लुक़ेदार है, जो मुझे दंडवत नहीं करता। सैकड़ों को उल्लू बना कर छोड़ दिया। '
' यही तो मालती की विशेषता है कि जो औरों को सीधे उस्तरे से मूँड़ता है, उसे वह उलटे छुरे से मूँड़ती है। '
' तुम मालती की चाहे जितनी बुराई करो, तुम उसकी पाँव की धूल भी नहीं हो। '
' मेरी दृष्टि में वह वेश्याओं से भी गयी बीती है; क्योंकि वह परदे की आड़ से शिकार खेलती है। '
दोनों ने अपने-अपने अग्नि-बाण छोड़ दिये। खन्ना ने गोविन्दी को चाहे दूसरी कठोर से कठोर बात कही होती, उसे इतनी बुरी न लगती; पर मालती से उसकी यह घृणित तुलना उसकी सहिष्णुता के लिए भी असह्य थी। गोविन्दी ने भी खन्ना को चाहे जो कुछ कहा होता, वह इतने गर्म न होते; लेकिन मालती का यह अपमान वह नहीं सह सकते। दोनों एक दूसरे के कोमल स्थलों से परिचित थे। दोनों के निशाने ठीक बैठे और दोनों तिलमिला उठे। खन्ना की आँखें लाल हो गयीं। गोविन्दी का मुँह लाल हो गया। खन्ना आवेश में उठे और उसके दोनों कान पकड़कर ज़ोर से ऐंठे और तीन-चार तमाचे लगा दिये। गोविन्दी रोती हुई अन्दर चली गयी। ज़रा देर में डाक्टर नाग आये और सिविल सर्जन एम. टाड आये और भिषगाचार्य नीलकंठ शास्त्री आये; पर गोविन्दी बच्चे को लिये अपने कमरे में बैठी रही। किसने क्या कहा, क्या तशख़ीश की, उसे कुछ मालूम नहीं। जिस विपत्ति की कल्पना वह कर रही थी, वह आज उसके सिर पर आ गयी। खन्ना ने आज जैसे उससे नाता तोड़ लिया, जैसे उसे घर से खदेड़कर द्वार बन्द कर लिया। जो रूप का बाज़ार लगाकर बैठती है, जिसकी परछाईं भी वह अपने ऊपर पड़ने नहीं देना चाहती । वह उस पर परोक्ष रूप से शासन करे। यह न होगा। खन्ना उसके पति हैं, उन्हें उसको समझाने-बुझाने का अधिकार है, उनकी मार को भी वह शिरोधार्य कर सकती है; पर मालती का शासन! असम्भव! मगर बच्चे का ज्वर जब तक शान्त न हो जाय, वह हिल नहीं सकती। आत्माभिमान को भी कर्तव्य के सामने सिर झुकाना पड़ेगा। दूसरे दिन बच्चे का ज्वर उतर गया था। गोविन्दी ने एक ताँगा मँगवाया और घर से निकली। जहाँ उसका इतना अनादर है, वहाँ अब वह नहीं रह सकती। आघात इतना कठोर था कि बच्चों का मोह भी टूट गया था। उनके प्रति उसका जो धर्म था, उसे वह पूरा कर चुकी है। शेष जो कुछ है, वह खन्ना का धर्म है। हाँ, गोद के बालक को वह किसी तरह नहीं छोड़ सकती। वह उसकी जान के साथ है। और इस घर से वह केवल अपने प्राण लेकर निकलेगी। और कोई चीज़ उसकी नहीं है। इन्हें यह दावा है कि वह उसका पालन करते हैं। गोविन्दी दिखा देगी कि वह उनके आश्रय से निकलकर भी ज़िन्दा रह सकती है। तीनों बच्चे उस समय खेलने गये थे। गोविन्दी का मन हुआ, एक बार उन्हें प्यार कर ले; मगर वह कहीं भागी तो नहीं जाती। बच्चों को उससे प्रेम होगा, तो उसके पास आयेंगे, उसके घर में खेलेंगे। वह जब ज़रूरत समझेगी, ख़ुद बच्चों को देख आया करेगी। केवल खन्ना का आश्रय नहीं लेना चाहती। साँझ हो गयी थी। पार्क में रौनक़ थी। लोग हरी घास पर लेटे हवा का आनन्द लूट रहे थे। गोविन्दी हज़रतगंज होती हुई चिड़ियाघर की तरफ़ मुड़ी ही थी कि कार पर मालती और खन्ना सामने से आते हुए दिखायी दिये। उसे मालूम हुआ, खन्ना ने उसकी तरफ़ इशारा करके कुछ कहा और मालती मुस्करायी। नहीं, शायद यह उसका भ्रम हो। खन्ना मालती से उसकी निन्दा न करेंगे; मगर कितनी बेशर्म है। सुना है इसकी अच्छी प्रैकिटस है घर की भी सम्पन्न है फिर भी यों अपने को बेचती फिरती है। न जाने क्यों ब्याह नहीं कर लेती; लेकिन उससे ब्याह करेगा ही कौन? नहीं, यह बात नहीं। पुरुषों में भी ऐसे बहुत हो गये हैं, जो उसे पाकर अपने को धन्य मानेंगे; लेकिन मालती ख़ुद किसी को पसन्द करे। और व्याह में कौन-सा सुख रखा हुआ है। बहुत अच्छा करती है, जो ब्याह नहीं करती। अभी सब उसके ग़ुलाम हैं। तब वह एक की लौंडी होकर रह जायगी। बहुत अच्छा कर रही है। अभी तो यह महाशय भी उसके तलवे चाटते हैं। कहीं इनसे ब्याह कर ले, तो उस पर शासन करने लगें; मगर इनसे वह क्यों ब्याह करेगी? और समाज में दो-चार ऐसी स्त्रियाँ बनी रहें, तो अच्छा; पुरुषों के कान तो गर्म करती रहें। आज गोविन्दी के मन में मालती के प्रति बड़ी सहानुभूति उत्पन्न हुई। वह मालती पर आक्षेप करके उसके साथ अन्याय कर रही है। क्या मेरी दशा को देखकर उसकी आँखें न खुलती होंगी। विवाहित जीवन की दुर्दशा आँखों देखकर अगर वह इस जाल में नहीं फँसती, तो क्या बुरा करती है! चिड़ियाघर में चारों तरफ़ सन्नाटा छाया हुआ था। गोविन्दी ने ताँगा रोक दिया और बच्चे को लिए हरी दूब की तरफ़ चली; मगर दो ही तीन क़दम चली थी कि चप्पल पानी में डूब गये। अभी थोड़ी देर पहले लान सींचा गया था और घास के नीचे पानी बह रहा था। उस उतावली में उसने पीछे न फिरकर एक क़दम और आगे रखा तो पाँव कीचड़ में सन गये। उसने पाँव की ओर देखा। अब यहाँ पाँव धोने के लिए पानी कहाँ से मिलेगा? उसकी सारी मनोव्यथा लुप्त हो गयी। पाँव धोकर साफ़ करने की नयी चिन्ता हुई। उसकी विचार-धारा रुक गयी। जब तक पाँव न साफ़ हो जायँ वह कुछ नहीं सोच सकती। सहसा उसे एक लम्बा पाईप घास में छिपा नज़र आया, जिसमें से पानी बह रहा था। उसने जाकर पाँव धोये, चप्पल धोये, हाथ-मुँह धोया, थोड़ा-सा पानी चुल्लू में लेकर पिया और पाइप के उस पार सूखी ज़मीन पर जा बैठी। उदासी में मौत की याद तुरन्त आ जाती है। कहीं वह वहीं बैठे-बैठे मर जाय, तो क्या हो? ताँगेवाला तुरन्त जाकर खन्ना को ख़बर देगा। खन्ना सुनते ही खिल उठेंगे; लेकिन दुनिया को दिखाने के लिए आँखों पर रूमाल रख लेंगे। बच्चों के लिए खिलौने और तमाशे माँ से प्यारे हैं। यह है उसका जीवन, जिसके लिए कोई चार बूँद आँसू बहानेवाला भी नहीं। तब उसे वह दिन याद आया, जब उसकी सास जीती थी और खन्ना उड़ंछू न हुए थे, तब उसे सास का बात-बात पर बिगड़ना बुरा लगता था; आज उसे सास के उस क्रोध में स्नेह का रस घुला जान पड़ रहा था। तब वह सास से रूठ जाती थी और सास उसे दुलारकर मनाती थी। आज वह महीनों रूठी पड़ी रहे। किसे परवा है? एकाएक उसका मन उड़कर माता के चरणों में जा पहुँचा। हाय! आज अम्माँ होतीं, तो क्यों उसकी यह दुर्दशा होती! उसके पास और कुछ न था, स्नेह-भरी गोद तो थी, प्रेम-भरा अंचल तो था, जिसमें मुँह डालकर वह रो लेती; लेकिन नहीं, वह रोयेगी नहीं, उस देवी को स्वर्ग में दुखी न बनायेगी, मेरे लिए वह जो कुछ ज़्यादा से ज़्यादा कर सकती थी, वह कर गयी? मेरे कर्मो की साथिन होना तो उनके वश की बात न थी। और वह क्यों रोये? वह अब किसी के अधीन नहीं है, वह अपने गुज़र-भर को कमा सकती है। वह कल ही गाँधी-आश्रम से चीज़ें लेकर बेचना शुरू कर देगी। शर्म किस बात की? यही तो होगा, लोग उँगली दिखाकर कहेंगे -- वह जा रही है खन्ना की बीबी; लेकिन इस शहर में रहूँ क्यों ? किसी दूसरे शहर में क्यों न चली जाऊँ, जहाँ मुझे कोई जानता ही न हो। दस-बीस रुपए कमा लेना ऐसा क्या मुश्किल है। अपने पसीने की कमाई तो खाऊँगी, फिर तो कोई मुझ पर रोब न जमायेगा। यह महाशय इसीलिए तो इतना मिज़ाज करते हैं कि वह मेरा पालन करते हैं। मैं अब ख़ुद अपना पालन करूँगी। सहसा उसने मेहता को अपनी तरफ़ आते देखा। उसे उलझन हुई। इस वक़्त वह सम्पूर्ण एकान्त चाहती थी। किसी से बोलने की इच्छा न थी; मगर यहाँ भी एक महाशय आ ही गये। उस पर बच्चा भी रोने लगा था।
मेहता ने समीप आकर विस्मय के साथ पूछा -- आप इस वक़्त यहाँ कैसे आ गयीं?
गोविन्दी ने बालक को चुप कराते हुए कहा -- उसी तरह जैसे आप आ गये।
मेहता ने मुस्कराकर कहा -- मेरी बात न चलाइए। धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का। लाइए, मैं बच्चे को चुप कर दूँ।
' आपने यह कला कब सीखी? '
' अभ्यास करना चाहता हूँ। इसकी परीक्षा जो होगी। '
' अच्छा! परीक्षा के दिन क़रीब आ गये? '
' यह तो मेरी तैयारी पर है। जब तैयार हो जाऊँगा, बैठ जाऊँगा। छोटी-छोटी उपाधियों के लिए हम पढ़-पढ़कर आँखें फोड़ लिया करते हैं। यह तो जीवन-व्यापार की परीक्षा है। '
' अच्छी बात है, मैं भी देखूँगी आप किस ग्रेड में पास होते हैं।
यह कहते हुए उसने बच्चे को उनकी गोद में दे दिया। उन्होंने बच्चे को कई बार उछाला, तो वह चुप हो गया। बालकों की तरह डींग मारकर बोले -- देखा आपने, कैसा मन्तर के ज़ोर से चुप कर दिया। अब मैं भी कहीं से बच्चा लाऊँगा। '
गोविन्दी ने विनोद किया -- बच्चा ही लाइएगा, या उसकी माँ भी?
मेहता ने विनोद-भरी निराशा से सर हिलाकर कहा -- ऐसी औरत तो कहीं मिलती ही नहीं।
' क्यों, मिस मालती नहीं हैं? सुन्दरी, शिक्षित, गुणवती, मनोहारिणी; और आप क्या चाहते हैं? '
' मिस मालती में वह एक बात भी नहीं है जो मैं अपनी स्त्री में देखना चाहता हूँ। '
गोविन्दी ने इस कुत्सा का आनन्द लेते हुए कहा -- उसमें क्या बुराई है, सुनूँ। भौंरे तो हमेशा घेरे रहते हैं। मैंने सुना है, आजकल पुरुषों को ऐसी ही औरतें पसन्द आती हैं। मेहता ने बच्चे के हाथों से अपनी मूँछों की रक्षा करते हुए कहा -- मेरी स्त्री कुछ और ही ढंग की होगी। वह ऐसी होगी, जिसकी मैं पूजा कर सकूँगा।
गोविन्दी अपनी हँसी न रोक सकी -- तो आप स्त्री नहीं, कोई प्रतिमा चाहते हैं। स्त्री तो ऐसी आपको शायद कहीं मिले।
' जी नहीं, ऐसी एक देवी इसी शहर में है।
' सच! ' मैं भी उसके दर्शन करती, और उसी तरह बनने की चेष्टा करती।
' आप उसे खुब जानती हैं। वह एक लखपती की पत्नी है, पर विलास को तुच्छ समझती है; जो उपेक्षा और अनादर सह कर भी अपने कर्तव्य से विचलित नहीं होती, जो मातृत्व की वेदी पर अपने को बलिदान करती है, जिसके लिए त्याग ही सबसे बड़ा अधिकार है, और जो इस योग्य है की उसकी प्रतिमा बनाकर पूजी जाय। '
गोविन्दी के हृदय में आनन्द का कम्पन हुआ। समझकर भी न समझने का अभिनय करती हुई बोली -- ऐसी स्त्री की आप तारीफ़ करते हैं। मगर मेरी समझ में तो वह दया की पात्र है। वह आदर्श नारी है और जो आदर्श नारी हो सकती है, वही आदर्श पत्नी भी हो सकती है।
मेहता ने आश्चर्य से कहा -- आप उसका अपमान करती हैं।
' लेकिन वह आदर्श इस युग के लिए नहीं है। '
' वह आदर्श सनातन है और अमर है। मनुष्य उसे विकृत करके अपना सर्वनाश कर रहा है।
गोविन्दी का अन्तःकरण खिला जा रहा था। ऐसी फुरेरियाँ वहाँ कभी न उठी थीं। जितने आदमियों से उसका परिचय था, उनमें मेहता का स्थान सबसे ऊँचा था। उनके मुख से यह प्रोत्साहन पाकर वह मतवाली हुई जा रही थी। उसी नशे में बोली -- तो चलिए, मुझे उन के दर्शन करा दीजिए।
मेहता ने बालक के कपोलों में मुँह छिपाकर कहा -- वह तो यहीं बैठी हुई हैं।
' कहाँ, मैं तो नहीं देख रही हूँ।
' उसी देवी से बोल रहा हूँ।
गोविन्दी ने ज़ोर से क़हक़हा मारा -- आपने आज मुझे बनाने की ठान ली, क्यों?
मेहता श्रद्धानत होकर कहा -- देवीजी, आप मेरे साथ अन्याय कर रही हैं, और मुझसे ज़्यादा अपने साथ। संसार में ऐसे बहुत कम प्राणी हैं जिनके प्रति मेरे मन में श्रद्धा हो। उन्हीं में एक आप हैं। आपका धैर्य और त्याग और शील और प्रेम अनुपम है। मैं अपने जीवन में सबसे बड़े सुख की जो कल्पना कर सकता हूँ, वह आप जैसी किसी देवी के चरणों की सेवा है। जिस नारीत्व को मैं आदर्श मानता हूँ, आप उसकी सजीव प्रतिमा हैं।
गोविन्दी की आँखों से आनन्द के आँसू निकल पड़े; इस श्रद्धा-कवच को धारण करके वह किस विपत्ति की सामना न करेगी। उसके रोम-रोम में जैसे मृदु-संगीत की ध्वनि निकल पड़ी। उसने अपने रमणीत्व का उल्लास मन में दबाकर कहा -- आप दार्शनिक क्यों हुए मेहताजी? आपको तो कवि होना चाहिए था।
मेहता सरलता से हँसकर बोले -- क्या आप समझती हैं, बिना दार्शनिक हुए ही कोई कवि हो सकता है? दर्शन तो केवल बीच की मंज़िल है।
' तो अभी आप कवित्व के रास्ते में हैं; लेकिन आप यह भी जानते हैं, कवि को संसार में कभी सुख नहीं मिलता? '
' जिसे संसार दुःख कहता है, वहाँ कवि के लिए सुख है। धन और ऐश्वर्य, रूप और बल, विद्या और बुद्धि, ये विभूतियाँ संसार को चाहे कितना ही मोहित कर लें, कवि के लिए यहाँ ज़रा भी आकर्षण नहीं है, उसके मोद और आकर्षण की वस्तु तो बुझी हुई आशाएँ और मिटी हुई स्मृतियाँ और टूटे हुए हृदय के आँसू हैं। जिस दिन इन विभूतियों में उसका प्रेम न रहेगा, उस दिन वह कवि न रहेगा। दर्शन जीवन के इन रहस्यों से केवल विनोद करता है, कवि उनमें लय हो जाता है। मैंने आपकी दो-चार कविताएँ पढ़ी हैं और उनमें जितनी पुलक, जितना कम्पन, जितनी मधुर व्यथा, जितना रुलानेवाला उन्माद पाया है, वह मैं ही जानता हूँ। प्रकृति ने हमारे साथ कितना बड़ा अन्याय किया है कि आप-जैसी कोई दूसरी देवी नहीं बनायी।
गोविन्दी ने हसरत भरे स्वर में कहा -- नहीं मेहता जी, यह आपका भ्रम है। ऐसी नारियाँ यहाँ आपको गली-गली में मिलेंगी और मैं तो उन सबसे गयी बीती हूँ। जो स्त्री अपने पुरुष को प्रसन्न न रख सके, अपने को उसके मन की न बना सके, वह भी कोई स्त्री है। मैं तो कभी-कभी सोचती हूँ कि मालती से यह कला सीखूँ। जहाँ मैं असफल हूँ, वहाँ वह सफल है। मैं अपने को भी अपना नहीं बना सकती, वह दूसरों को भी अपना बना लेती है। क्या यह उसके लिए श्रेय की बात नहीं?
मेहता ने मुँह बनाकर कहा -- शराब अगर लोगों को पागल कर देती है, तो इसलिए उसे क्या पानी से अच्छा समझा जाय, जो प्यास बुझाता है, जिलाता है, और शान्त करता है?
गोविन्दी ने विनोद की शरण लेकर कहा -- कुछ भी हो, मैं तो यह देखती हूँ कि पानी मारा-मारा फिरता है और शराब के लिए घर-द्वार बिक जाते हैं, और शराब जितनी ही तेज़ और नशीली हो, उतनी ही अच्छी। मैं तो सुनती हूँ, आप भी शराब के उपासक हैं?
गोविन्दी निराशा की उस दशा को पहुँच गयी थी, जब आदमी को सत्य और धर्म में भी सन्देह होने लगता है; लेकिन मेहता का ध्यान उधर न गया। उनका ध्यान तो वाक्य के अन्तिम भाग पर ही चिमटकर रह गया। अपने मद-सेवन पर उन्हें जितनी लज्जा और क्षोभ आज हुआ, उतना बड़े-बड़े उपदेश सुनकर भी न हुआ था। तर्को का उनके पास जवाब था और मुँह-तोड़; लेकिन इस मीठी चुटकी का उन्हें कोई जवाब न सूझा। वह पछताये कि कहाँ से कहाँ उन्हें शराब की युक्ति सूझी। उन्होंने ख़ुद मालती की शराब से उपमा दी थी। उनका वार अपने ही सिर पर पड़ा। लज्जित होकर बोले -- हाँ देवीजी, मैं स्वीकार करता हूँ कि मुझमें यह आसक्ति है। मैं अपने लिए उसकी ज़रूरत बतलाकर और उसके विचारोत्तेजक गुणों के प्रमाण देकर गुनाह का उज्रा न करूँगा, जो गुनाह से भी बदतर है। आज आपके सामने प्रतिज्ञा करता हूँ कि शराब की एक बूँद भी कंठ के नीचे न जाने दूँगा।
गोविन्दी ने सन्नाटे में आकर कहा -- यह आपने क्या किया मेहताजी! मैं ईश्वर से कहती हूँ, मेरा यह आशय न था। मुझे इसका दुःख है।
' नहीं, आपको प्रसन्न होना चाहिए कि आपने एक व्यक्ति का उद्धार कर दिया। '
' मैंने आपका उद्धार कर दिया। मैं तो ख़ुद आप से अपने उद्धार की याचना करने जा रही हूँ। '
' मुझसे? धन्य भाग! '
गोविन्दी ने करूण स्वर में कहा -- हाँ, आपके सिवा मुझे कोई ऐसा नहीं नज़र आता जिससे मैं अपनी कथा सुनाऊँ। देखिए, यह बात अपने ही तक रखिएगा, हालाँकि आपसे यह याद दिलाने की ज़रूरत नहीं। मुझे अब अपना जीवन असह्य हो गया है। मुझसे अब तक जितनी तपस्या हो सकी, मैंने की; लेकिन अब नहीं सहा जाता। मालती मेरा सर्वनाश किये डालती है। मैं अपने किसी शस्त्र से उस पर विजय नहीं पा सकती। आपका उस पर प्रभाव है। वह जितना आपका आदर करती है, शायद और किसी मर्द का नहीं करती। अगर आप किसी तरह मुझे उसके पंजे से छुड़ा दें, तो मैं जन्म भर आपकी ऋणी रहूँगी। उसके हाथों मेरा सौभाग्य लुटा जा रहा है। आप अगर मेरी रक्षा कर सकते हैं, तो कीजिए। मैं आज घर से यह इरादा करके चली थी कि फिर लौटकर न आऊँगी। मैंने बड़ा ज़ोर मारा कि मोह के सारे बन्धनों को तोड़कर फेंक दूँ; लेकिन औरत का हृदय बड़ा दुर्बल है मेहता जी! मोह उसका प्राण है। जीवन रहते मोह तोड़ना उसके लिए असम्भव है। मैंने आज तक अपनी व्यथा अपने मन में रखी; लेकिन आज मैं आपसे आँचल फैलाकर भिक्षा माँगती हूँ। मालती से मेरा उद्धार कीजिए। मैं इस मायाविनी के हाथों मिटी जा रही हूँ ...
उसका स्वर आँसुओं में डूब गया। वह फूट-फूट कर रोने लगी। मेहता अपनी नज़रों में कभी इतने ऊँचे न उठे थे उस वक़्त भी नहीं, जब उनकी रचना को फ़्रांस की एकाडमी ने शताब्दी की सबसे उत्तम कृति कहकर उन्हें बधाई दी थी। जिस प्रतिमा की वह सच्चे दिल से पूजा करते थे, जिसे मन में वह अपनी इष्टदेवी समझते थे और जीवन के असूझ प्रसंगों में जिससे आदेश पाने की आशा रखते थे, वह आज उनसे भिक्षा माँग रही थी। उन्हें अपने अन्दर ऐसी शक्ति का अनुभव हुआ कि वह पर्वत को भी फाड़ सकते हैं; समुद्र को तैरकर पार कर सकते हैं। उन पर नशा-सा छा गया, जैसे बालक काठ के घोड़े पर सवार होकर समझ रहा हो वह हवा में उड़ रहा है। काम कितना असाध्य है, इसकी सुधि न रही। अपने सिद्धान्तों की कितनी हत्या करनी पड़ेगी, बिलकुल ख़याल न रहा। आश्वासन के स्वर में बोले -- मुझे न मालूम था कि आप उससे इतनी दुखी हैं। मेरी बुद्धि का दोष, आँखों का दोष, कल्पना का दोष। और क्या कहूँ, वरना आपको इतनी वेदना क्यों सहनी पड़ती!
गोविन्दी को शंका हुई। बोली -- लेकिन सिंहनी से उसका शिकार छीनना आसान नहीं है, यह समझ लीजिए।
मेहता ने दृढ़ता से कहा -- नारी-हृदय धरती के समान है, जिससे मिठास भी मिल सकती है, कड़वापन भी। उसके अन्दर पड़नेवाले बीज में जैसी शक्ति हो।
' आप पछता रहे होंगे, कहाँ से आज इससे मुलाक़ात हो गयी। '
' मैं अगर कहूँ कि मुझे आज ही जीवन का वास्तविक आनन्द मिला है, तो शायद आपको विश्वास न आये! '
' मैंने आपके सिर पर इतना बड़ा भार रख दिया। '
मेहता ने श्रद्धा-मधुर स्वर में कहा -- आप मुझे लज्जित कर रही हैं देवीजी! मैं कह चुका, मैं आपका सेवक हूँ। आपके हित में मेरे प्राण भी निकल जायँ, तो मैं अपना सौभाग्य समझूँगा। इसे कवियों का भावावेश न समझिए, यह मेरे जीवन का सत्य है। मेरे जीवन का क्या आदर्श है, आपको यह बतला देने का मोह मुझसे नहीं रुक सकता। मैं प्रकृति का पुजारी हूँ और मनुष्य को उसके प्राकृतिक रूप में देखना चाहता हूँ, जो प्रसन्न होकर हँसता है, दुखी होकर रोता है और क्रोध में आकर मार डालता है। जो दुःख और सुख दोनों का दमन करते हैं, जो रोने को कमज़ोरी और हँसने को हलकापन समझते हैं, उनसे मेरा कोई मेल नहीं। जीवन मेरे लिए आनन्दमय क्रीड़ा है, सरल, स्वच्छन्द, जहाँ कुत्सा, ईर्ष्या और जलन के लिए कोई स्थान नहीं। मैं भूत की चिन्ता नहीं करता, भविष्य की परवाह नहीं करता। मेरे लिए वर्तमान ही सब कुछ है। भविष्य की चिन्ता हमें कायर बना देती है, भूत का भार हमारी कमर तोड़ देता है। हममें जीवन की शक्ति इतनी कम है कि भूत और भविष्य में फैला देने से वह और भी क्षीण हो जाती है। हम व्यर्थ का भार अपने ऊपर लादकर, रूढ़ियों और विश्वासों और इतिहासों के मलवे के नीचे दबे पड़े हैं; उठने का नाम नहीं लेते, वह सामर्थ्य ही नहीं रही! जो शक्ति, जो स्फूर्ति मानव-धर्म को पूरा करने में लगनी चाहिए थी, सहयोग में, भाईचारे में, वह पुरानी अदावतों का बदला लेने और बाप-दादों का ऋण चुकाने की भेंट हो जाती है। और जो यह ईश्वर और मोक्ष का चक्कर है, इस पर तो मुझे हँसी आती है। वह मोक्ष और उपासना अहंकार की पराकाष्ठा है, जो हमारी मानवता को नष्ट किये डालती है। जहाँ जीवन है, क्रीड़ा है, चहक है, प्रेम है, वहीं ईश्वर है; और जीवन को सुखी बनाना ही उपासना है, और मोक्ष है। ज्ञानी कहता है, ओठों पर मुस्कराहट न आये, आँखों में आँसू न आये। मैं कहता हूँ, अगर तुम हँस नहीं सकते और रो नहीं सकते, तो तुम मनुष्य नहीं हो, पत्थर हो। वह ज्ञान जो मानवता को पीस डाले, ज्ञान नहीं है, कोल्हू है। मगर क्षमा कीजिए, मैं तो एक पूरी स्पीच ही दे गया। अब देर हो रही है, चलिए, मैं आपको पहुँचा दूँ। बच्चा भी मेरी गोद में सो गया।
गोविन्दी ने कहा -- मैं तो ताँगा लायी हूँ।
' ताँगे को यहीं से विदा कर देता हूँ। '
मेहता ताँगे के पैसे चुकाकर लौटे, तो गोविन्दी ने कहा -- लेकिन आप मुझे कहाँ ले जायँगे?
मेहता ने चौंककर पूछा -- क्यों, आपके घर पहुँचा दूँगा।
' वह मेरा घर नहीं है मेहताजी! '
' और क्या मिस्टर खन्ना का घर है? '
' यह भी क्या पूछने की बात है?
' अब वह घर मेरा नहीं रहा। जहाँ अपमान और धिक्कार मिले, उसे मैं अपना घर नहीं कह सकती, न समझ सकती हूँ। '
मेहता ने दर्द-भरे स्वर में जिसका एक-एक अक्षर उनके अन्तःकरण से निकल रहा था, कहा -- नहीं देवीजी, वह घर आपका है, और सदैव रहेगा। उस घर की आपने सृष्टि की है, उसके प्राणियों की सृष्टि की है, और प्राण जैसे देह का संचालन करता है। प्राण निकल जाय, तो देह की क्या गति होगी? मातृत्व महान् गौरव का पद है देवीजी! और गौरव के पद में कहाँ अपमान और धिक्कार और तिरस्कार नहीं मिला? माता का काम जीवन-दान देना है। जिसके हाथों में इतनी अतुल शक्ति है, उसे इसकी क्या परवाह कि कौन उससे रूठता है, कौन बिगड़ता है। प्राण के बिना जैसे देह नहीं रह सकती, उसी तरह प्राण को भी देह ही सबसे उपयुक्त स्थान है। मैं आपको धर्म और त्याग का क्या उपदेश दूँ? आप तो उसकी सजीव प्रतिमा हैं। मैं तो यही कहूँगा कि ...
गोविन्दी ने अधीर होकर कहा -- लेकिन मैं केवल माता ही तो नहीं हूँ, नारी भी तो हूँ?
मेहता ने एक मिनट तक मौन रहने के बाद कहा -- हाँ, हैं; लेकिन मैं समझता हूँ कि नारी केवल माता है, और इसके उपरान्त वह जो कुछ है, वह मातृत्व का उपक्तम मात्र। मातृत्व संसार की सबसे बड़ी साधना, सबसे बड़ी तपस्या, सबसे बड़ा त्याग और सबसे महान् विजय है। एक शब्द में उसे लय कहूँगा -- जीवन का, व्यक्तित्व का और नारीत्व का भी। आप मिस्टर खन्ना के विषय में इतना ही समझ लें कि वह अपने होश में नहीं हैं। वह जो कुछ कहते हैं या करते हैं, वह उन्माद की दशा में करते हैं; मगर यह उन्माद शान्त होने में बहुत दिन न लगेंगे, और वह समय बहुत जल्द आयेगा, जब वह आपको अपनी इष्टदेवी समझेंगे।
गोविन्दी ने इसका कुछ जवाब न दिया। धीरे-धीरे कार की ओर चली। मेहता ने बढ़कर कार का द्वार खोल दिया। गोविन्दी अन्दर जा बैठी। कार चली; मगर दोनों मौन थे। गोविन्दी जब अपने द्वार पर पहुँचकर कार से उतरी, तो बिजली के प्रकाश में मेहता ने देखा, उसकी आँखें सजल हैं। बच्चे घर में से निकल आये और ' अम्माँ-अम्माँ ' कहते हुए माता से लिपट गये। गोविन्दी के मुख पर मातृत्व की उज्ज्वल गौरवमयी ज्योति चमक उठी। उसने मेहता से कहा -- इस कष्ट के लिए आपको बहुत धन्यवाद! -- और सिर नीचा कर लिया। आँसू की एक बूँद उसके कपोल पर आ गिरी थी। मेहता की आँखें भी सजल हो गयीं -- इस ऐश्वर्य और विलास के बीच में भी यह नारी-हृदय कितना दुखी है!
Godan / गोदान भाग 19 / प्रेमचंद / Premchand
मिरज़ा खुर्शेद का हाता क्लब भी है, कचहरी भी, अखाड़ा भी। दिन भर जमघट लगा रहता है। मुहल्ले में अखाड़े के लिए कहीं जगह नहीं मिलती थी। मिरज़ा ने एक छप्पर डलवाकर अखाड़ा बनावा दिया है; वहाँ नित्य सौ-पचास लड़िन्तये आ जुटते हैं। मिरज़ाजी भी उनके साथ ज़ोर करते हैं। मुहल्ले की पंचायतें भी यहीं होती हैं। मियाँ-बीबी और सास-बहू और भाई-भाई के झगड़े-टंटे यहीं चुकाये जाते हैं। मुहल्ले के सामाजिक जीवन का यही केन्द्र है और राजनीतिक आन्दोलन का भी। आये दिन सभाएँ होती रहती हैं। यहीं स्वयंसेवक टिकते हैं, यहीं उनके प्रोग्राम बनते हैं, यहीं से नगर का राजनीतिक संचालन होता है। पिछले जलसे में मालती नगर-काँग्रेस-कमेटी की सभानेत्री चुन ली गयी है। तब से इस स्थान की रौनक़ और भी बढ़ गयी है। गोबर को यहाँ रहते साल भर हो गया। अब वह सीधा-साधा ग्रामीण युवक नहीं है। उसने बहुत कुछ दुनिया देख ली और संसार का रंग-ढंग भी कुछ-कुछ समझने लगा है। मूल में वह अब भी देहाती है, पैसे को दाँत से पकड़ता है, स्वार्थ को कभी नहीं छोड़ता, और परिश्रम से जी नहीं चुराता, न कभी हिम्मत हारता है; लेकिन शहर की हवा उसे भी लग गयी है। उसने पहले महीने तो केवल मजूरी की ओर आधा पेट खाकर थोड़े से रुपए बचा लिये। फिर वह कचालू और मटर और दही-बड़े के खोंचे लगाने लगा। इधर ज़्यादा लाभ देखा, तो नौकरी छोड़ दी। गमिर्यों में शर्बत और बरफ़ की दूकान भी खोल दी। लेन-देन में खरा था इसलिए उसकी साख जम गयी। जाड़े आये, तो उसने शर्बत की दूकान उठा दी और गर्म चाय पिलाने लगा। अब उसकी रोज़ाना आमदनी ढाई-तीन रुपए से कम नहीं। उसने अँग्रेज़ी फ़ैशन के बाल कटवा लिए हैं, महीन धोती और पम्प-शू पहनता है, एक लाल ऊनी चादर ख़रीद ली और पान सिगरेट का शौक़ीन हो गया है। सभाओं में आने-जाने से उसे कुछ-कुछ राजनीतिक ज्ञान भी हो चला है। राष्ट्र और वर्ग का अर्थ समझने लगा है। सामाजिक रूढ़ियों की प्रतिष्ठा और लोक-निन्दा का भय अब उसमें बहुत कम रह गया है। आये दिन की पंचायतों ने उसे निस्संकोच बना दिया है। जिस बात के पीछे वह यहाँ घर से दूर, मुँह छिपाये पड़ा हुआ है, उसी तरह की, बल्कि उससे भी कहीं निन्दास्पद बातें यहाँ नित्य हुआ करती हैं, और कोई भागता नहीं। फिर वही क्यों इतना डरे और मुँह चुराये! इतने दिनों में उसने एक पैसा भी घर नहीं भेजा। वह माता-पिता को रुपए-पैसे के मामले में इतना चतुर नहीं समझता। वे लोग तो रुपए पाते ही आकाश में उड़ने लगेंगे। दादा को तुरन्त गया करने की और अम्माँ को गहने बनवाने की धुन सवार हो जायगी। ऐसे व्यर्थ के कामों के लिए उसके पास रुपए नहीं हैं। अब वह छोटा-मोटा महाजन है। पड़ोस के एक्केवालों गाड़ीवानों और धोबियों को सूद पर रुपए उधार देता है। इस दस-ग्यारह महीने में ही उसने अपनी मेहनत और किफ़ायत और पुरुषार्थ से अपना स्थान बना लिया है और अब झुनिया को यहीं लाकर रखने की बात सोच रहा है। तीसरे पहर का समय है। वह सड़क के नल पर नहाकर आया है और शाम के लिए आलू उबाल रहा है कि मिरज़ा खुर्शेद आकर द्वार पर खड़े हो गये। गोबर अब उनका नौकर नहीं है; पर अदब उसी तरह करता है और उनके लिए जान देने को तैयार रहता है। द्वार पर जाकर पूछा -- क्या हुक्म है सरकार?
मिरज़ा ने खड़े-खड़े कहा -- तुम्हारे पास कुछ रुपए हों, तो दे दो। आज तीन दिन से बोतल ख़ाली पड़ी हुई है, जी बहुत बेचैन हो रहा है।
गोबर ने इसके पहले भी दो-तीन बार मिरज़ाजी को रुपए दिये थे; पर अब तक वसूल न कर सका था। तक़ाज़ा करते डरता था और मिरज़ाजी रुपए लेकर देना न जानते थे। उनके हाथ में रुपए टिकते ही न थे। इधर आये उधर ग़ायब। यह तो न कह सका, मैं रुपए न दूँगा या मेरे पास रुपए नहीं हैं, शराब की निन्दा करने लगा -- आप इसे छोड़ क्यों नहीं देते सरकार? क्या इसके पीने से कुछ फ़ायदा होता है?
मिरज़ाजी ने कोठरी के अन्दर खाट पर बैठते हुए कहा -- तुम समझते हो, मैं छोड़ना नहीं चाहता और शौक़ से पीता हूँ। मैं इसके बग़ैर ज़िन्दा नहीं रह सकता। तुम अपने रुपए के लिए न डरो, मैं एक-एक कौड़ी अदा कर दूँगा।
गोबर अविचलित रहा -- मैं सच कहता हूँ मालिक! मेरे पास इस समय रुपए होते तो आपसे इनकार करता?
' दो रुपए भी नहीं दे सकते? '
' इस समय तो नहीं हैं। '
' मेरी अँगूठी गिरो रख लो। '
गोबर का मन ललचा उठा; मगर बात कैसे बदले। बोला -- यह आप क्या कहते हैं मालिक, रुपए होते तो आपको दे देता, अँगूठी की कौन बात थी?
मिरज़ा ने अपने स्वर में बड़ा दीन आग्रह भरकर कहा -- मैं फिर तुमसे कभी न माँगूँगा गोबर! मुझसे खड़ा नहीं हुआ जा रहा है। इस शराब की बदौलत मैंने लाखों की हैसियत बिगाड़ दी और भिखारी हो गया। अब मुझे भी ज़िद पड़ गयी है कि चाहे भीख ही माँगनी पड़े, इसे छोड़ूँगा नहीं।
जब गोबर ने अबकी बार इनकार किया, तो मिरज़ा साहब निराश होकर चले गये। शहर में उनके हज़ारों मिलने वाले थे। कितने ही उनकी बदौलत बन गये थे। कितनों ही को गाढ़े समय पर मदद की थी; पर ऐसे से वह मिलना भी न पसन्द करते थे। उन्हें ऐसे हज़ारों लटके मालूम थे, जिससे वह समय-समय पर रुपयों के ढेर लगा देते थे; पर पैसे की उनकी निगाह में कोई क़द्र न थी। उनके हाथ में रुपए जैसे काटते थे। किसी न किसी बहाने उड़ाकर ही उनका चित्त शान्त होता था। गोबर आलू छीलने लगा। साल-भर के अन्दर ही वह इतना काइयाँ हो गया था और पैसा जोड़ने में इतना कुशल कि अचरज होता था। जिस कोठरी में वह रहता है, वह मिरज़ा साहब ने दी है। इस कोठरी और बरामदे का किराया बड़ी आसानी से पाँच रुपया मिल सकता है। गोबर लगभग साल भर से उसमें रहता है; लेकिन मिरज़ा ने न कभी किराया माँगा न उसने दिया। उन्हें शायद ख़याल भी न था कि इस कोठरी का कुछ किराया भी मिल सकता है। थोड़ी देर में एक इक्केवाला रुपये माँगने आया। अलादीन नाम था, सिर घुटा हुआ, खिचड़ी डाढ़ी, और काना। उसकी लड़की बिदा हो रही थी। पाँच रुपए की उसे बड़ी ज़रूरत थी। गोबर ने एक आना रुपया सूद पर रुपए दे दिये। अलादीन ने धन्यवाद देते हुए कहा -- भैया, अब बाल-बच्चों को बुला लो। कब तक हाथ से ठोकते रहोगे।
गोबर ने शहर के ख़र्च का रोना रोया -- थोड़ी आमदनी में गृहस्थी कैसे चलेगी?
अलादीन बीड़ी जलाता हुआ बोला -- ख़रच अल्लाह देगा भैया! सोचो, कितना आराम मिलेगा। मैं तो कहता हूँ, जितना तुम अकेले ख़रच करते हो, उसी में गृहस्थी चल जायगी। औरत के हाथ में बड़ी बरक्कत होती है। ख़ुदा क़सम, जब मैं अकेला यहाँ रहता था, तो चाहे कितना ही कमाऊँ खा-पी सब बराबर। बीड़ी-तमाखू को भी पैसा न रहता। उस पर हैरानी। थके-माँदे आओ, तो घोड़े को खिलाओ और टहलाओ। फिर नानबाई की दूकान पर दौड़ो। नाक में दम आ गया। जब से घरवाली आ गयी है, उसी कमाई में उसकी रोटियाँ भी निकल आती हैं और आराम भी मिलता है। आख़िर आदमी आराम के लिए ही तो कमाता है। जब जान खपाकर भी आराम न मिला, तो ज़िन्दगी ही ग़ारत हो गयी। मैं तो कहता हूँ, तुम्हारी कमाई बढ़ जायगी भैया! जितनी देर में आलू और मटर उबालते हो, उतनी देर में दो-चार प्याले चाय बेच लोगे। अब चाय बारहों मास चलती है! रात को लेटोगे तो घरवाली पाँव दबायेगी। सारी थकान मिट जायगी।
यह बात गोबर के मन में बैठ गयी। जी उचाट हो गया। अब तो वह झुनिया को लाकर ही रहेगा। आलू चूल्हे पर चढ़े रह गये, और उसने घर चलने की तैयारी कर दी; मगर याद आया कि होली आ रही है; इसलिए होली का सामान भी लेता चले। कृपण लोगों में उत्सवों पर दिल खोलकर ख़र्च करने की जो एक प्रवृत्ति होती है, वह उसमें भी सजग हो गयी। आख़िर इसी दिन के लिए तो कौड़ी-कौड़ी जोड़ रहा था। वह माँ, बहनों और झुनिया के लिए एक-एक जोड़ी साड़ी ले जायगा। होरी के लिए एक धोती और एक चादर। सोना के लिए तेल की शीशी ले जायगा, और एक जोड़ा चप्पल। रूपा के लिए जापानी चूड़ियाँ और झुनिया के लिए एक पिटारी, जिसमें तेल, सिन्दूर और आईना होगा। बच्चे के लिए टोप और फ़्राक जो बाज़ार में बना बनाया मिलता है। उसने रुपए निकाले और बाज़ार चला। दोपहर तक सारी चीज़ें आ गयीं। बिस्तर भी बँध गया, मुहल्लेवालों को ख़बर हो गयी, गोबर घर जा रहा है। कई मर्द-औरतें उसे बिदा करने आये। गोबर ने उन्हें अपना घर सौंपते हुए कहा -- तुम्हीं लोगों पर छोड़े जाता हूँ। भगवान् ने चाहा तो होली के दूसरे दिन लौटूँगा।
एक युवती ने मुस्कराकर कहा -- मेहरिया को बिना लिये न आना, नहीं घर में न घुसने पाओगे।
दूसरी प्रौढ़ा ने शिक्षा दी -- हाँ, और क्या, बहुत दिनों तक चूल्हा फूँक चुके। ठिकाने से रोटी तो मिलेगी!
गोबर ने सबको राम-राम किया। हिन्दू भी थे, मुसलमान भी थे, सभी में मित्रभाव था, सब एक-दूसरे के दुःख-दर्द के साथी। रोज़ा रखनेवाले रोज़ा रखते थे। एकादशी रखनेवाले एकादशी। कभी-कभी विनोद-भाव से एक-दूसरे पर छींटे भी उड़ा लेते थे। गोबर अलादीन की नमाज़ को उठा-बैठी कहता, अलादीन पीपल के नीचे स्थापित सैकड़ों छोटे-बड़े शिवलिंग को बटखरे बनाता; लेकिन साम्प्रदायिक द्वेष का नाम भी न था। गोबर घर जा रहा है। सब उसे हँसी-ख़ुशी बिदा करना चाहते हैं। इतने में भूरे एक्का लेकर आ गया। अभी दिन-भर का धावा मारकर आया था। ख़बर मिली, गोबर घर जा रहा है। वैसे ही एक्का इधर फेर दिया। घोड़े ने आपत्ति की। उसे कई चाबुक लगाये। गोबर ने एक्के पर सामान रखा, एक्का बढ़ा, पहुँचाने वाले गली के मोड़ तक पहुँचाने आये, तब गोबर ने सबको राम-राम किया और एक्के पर बैठ गया। सड़क पर एक्का सरपट दौड़ा जा रहा था। गोबर घर जाने की ख़ुशी में मस्त था। भूरे उसे घर पहुँचाने की ख़ुशी में मस्त था। और घोड़ा था पानीदार, घोड़ा चला जा रहा था। बात की बात में स्टेशन आ गया। गोबर ने प्रसन्न होकर एक रुपया कमरे से निकाल कर भूरे की तरफ़ बढ़ाकर कहा -- लो, घरवाली के लिए मिठाई लेते जाना।
भूरे ने कृतज्ञता-भरे तिरस्कार से उसकी ओर देखा -- तुम मुझे ग़ैर समझते हो भैया! एक दिन ज़रा एक्के पर बैठ गये तो मैं तुमसे इनाम लूँगा। जहाँ तुम्हारा पसीना गिरे, वहाँ ख़ून गिराने को तैयार हूँ। इतना छोटा दिल नहीं पाया है। और ले भी लूँ, तो घरवाली मुझे जीता छोड़ेगी?
गोबर ने फिर कुछ न कहा। लज्जित होकर अपना असबाब उतारा और टिकट लेने चल दिया।
Godan / गोदान भाग 20 / प्रेमचंद / Premchand
फागुन अपनी झोली में नवजीवन की विभूति लेकर आ पहुँचा था। आम के पेड़ दोनों हाथों से बौर के सुगन्ध बाँट रहे थे, और कोयल आम की डालियों में छिपी हुई संगीत का गुप्त दान कर रही थी। गाँवों में ऊख की बोआई लग गयी थी। अभी धूप नहीं निकली; पर होरी खेत में पहुँच गया है। धनिया, सोना, रूपा तीनों तलैया से ऊख के भीगे हुए गट्ठे निकाल-निकालकर खेत में ला रही हैं, और होरी गँड़ासे से ऊख के टुकड़े कर रहा है। अब वह दातादीन की मज़दूरी करने लगा है। किसान नहीं, मजूर है। दातादीन से अब उसका पुरोहित-जजमान का नाता नहीं, मालिक-मज़दूर का नाता है।
दातादीन ने आकर डाँटा -- हाथ और फुरती से चलाओ होरी! इस तरह तो तुम दिन-भर में न काट सकोगे।
होरी ने आहत अभिमान के साथ कहा -- चला ही तो रहा हूँ महराज, बैठा तो नहीं हूँ।
दातादीन मजूरों से रगड़ कर काम लेते थे; इसलिए उनके यहाँ कोई मजूर टिकता न था। होरी उसका स्वभाव जानता था; पर जाता कहाँ!
पण्डित उसके सामने खड़े होकर बोले -- चलाने-चलाने में भेद है। एक चलाना वह है कि घड़ी भर में काम तमाम, दूसरा चलाना वह है कि दिन-भर में भी एक बोझ ऊख न कटे। होरी ने विष का घूँट पीकर और ज़ोर से हाथ चलाना शुरू किया, इधर महीनों से उसे पेट-भर भोजन न मिलता था। प्रायः एक जून तो चबैने पर ही कटता था, दूसरे जून भी कभी आधा पेट भोजन मिला, कभी कड़ाका हो गया; कितना चाहता था कि हाथ और जल्दी उठे, मगर हाथ जवाब दे रहा था। उस पर दातादीन सिर पर सवार थे। क्षण-भर दम ले लेने पाता, तो ताज़ा हो जाता; लेकिन दम कैसे ले? घुड़कियाँ पड़ने का भय था। धनिया और तीनों लड़कियाँ ऊख के गट्ठे लिये गीली साड़ियों से लथपथ, कीचड़ में सनी हुई आयीं, और गट्ठे पटककर दम मारने लगीं कि दातादीन ने डाँट बताई -- यहाँ तमाशा क्या देखती है धनिया? जा अपना काम कर। पैसे सेंत में नहीं आते। पहर-भर में तू एक खेप लायी है। इस हिसाब से तो दिन भर में भी उख न ढुल पायेगी।
धनिया ने त्योरी बदलकर कहा -- क्या ज़रा दम भी न लेने दोगे महराज! हम भी तो आदमी हैं। तुम्हारी मजूरी करने से बैल नहीं हो गये। ज़रा मूड़ पर एक गट्ठा लादकर लाओ तो हाल मालूम हो।
दातादीन बिगड़ उठे -- पैसे देने हैं काम करने के लिए, दम मारने के लिए नहीं। दम मार लेना है, तो घर जाकर दम लो।
धनिया कुछ कहने ही जा रही थी कि होरी ने फटकार बताई -- तू जाती क्यों नहीं धनिया? क्यों हुज्जत कर रही है?
धनिया ने बीड़ा उठाते हुए कहा -- जा तो रही हूँ, लेकिन चलते हुए बैल को औंगी न देना चाहिए।
दातादीन ने लाल आँखें निकाल लीं -- जान पड़ता है, अभी मिज़ाज ठंडा नहीं हुआ। जभी दाने-दाने को मोहताज हो।
धनिया भला क्यों चुप रहने लगी थी -- तुम्हारे द्वार पर भीख माँगने नहीं जाती।
दातादीन ने पैने स्वर में कहा -- अगर यही हाल है तो भीख भी माँगोगी।
धनिया के पास जवाब तैयार था; पर सोना उसे खींचकर तलैया की ओर ले गयी, नहीं बात बढ़ जाती; लेकिन आवाज़ की पहुँच के बाहर जाकर दिल की जलन निकाली -- भीख माँगो तुम, जो भिखमंगे की जात हो। हम तो मजूर ठहरे, जहाँ काम करेंगे, वहीं चार पैसे पायेंगे।
सोना ने उसका तिरस्कार किया -- अम्माँ, जाने भी दो। तुम तो समय नहीं देखती, बात-बात पर लड़ने बैठ जाती हो।
होरी उन्मत्त की भाँति सिर से ऊपर गड़ाँसा उठा-उठाकर ऊख के टुकड़ों के ढेर करता जाता था। उसके भीतर जैसे आग लगी हुई थी। उसमें अलौकिक शक्ति आ गयी थी। उसमें जो पीढ़ियों का संचित पानी था, वह इस समय जैसे भाप बनकर उसे यन्त्र की-सी अन्ध-शक्ति प्रदान कर रहा था। उसकी आँखों में अँधेरा छाने लगा। सिर में फिरकी-सी चल रही थी। फिर भी उसके हाथ यन्त्र की गति से, बिना थके, बिना रुके, उठ रहे थे। उसकी देह से पसीने की धारा निकल रही थी, मुँह से फिचकुर छूट रहा था, सिर में धम-धम का शब्द होरहा था, पर उस पर जैसे कोई भूत सवार हो गया हो। सहसा उसकी आँखों में निबिड़ अन्धकार छा गया। मालूम हुआ वह ज़मीन में धँसा जा रहा है। उसने सँभलने की चेष्टा से शून्य में हाथ फैला दिये, और अचेत हो गया। गँड़ासा हाथ से छूट गया और वह औंधे मुँह ज़मीन पर पड़ गया। उसी वक़्त धनिया ऊख का गट्ठा लिये आयी। देखा तो कई आदमी होरी को घेरे खड़े हैं। एक हलवाहा दातादीन से कह रहा था -- मालिक तुम्हें ऐसी बात न कहनी चाहिए, जो आदमी को लग जाय। पानी मरते ही मरते तो मरेगा।
धनिया ऊख का गट्ठा पटककर पागलों की तरह दौड़ी हुई होरी के पास गयी, और उसका सिर अपनी जाँघ पर रखकर विलाप करने लगी -- तुम मुझे छोड़कर कहाँ जाते हो। अरी सोना, दौड़कर पानी ला और जाकर शोभा से कह दे, दादा बेहाल हैं। हाय भगवान ! अब मैं कहाँ जाऊँ। अब किसकी होकर रहूँगी, कौन मुझे धनिया कहकर पुकारेगा...।
लाला पटेश्वरी भागे हुए आये और स्नेह भरी कठोरता से बोले -- क्या करती है धनिया, होश सँभाल। होरी को कुछ नहीं हुआ। गर्मी से अचेत हो गये हैं। अभी होश आया जाता है। दिल इतना कच्चा कर लेगी, तो कैसे काम चलेगा?
धनिया ने पटेश्वरी के पाँव पकड़ लिये और रोती हुई बोली -- क्या करूँ लाला, जी नहीं मानता। भगवान् ने सब कुछ हर लिया। मैं सबर कर गयी। अब सबर नहीं होता। हाय रे मेरा हीरा!
सोना पानी लायी। पटेश्वरी ने होरी के मुँह पर पानी के छींटे दिये। कई आदमी अपनी-अपनी अँगोछियों से हवा कर रहे थे। होरी की देह ठंडी पड़ गयी थी। पटेश्वरी को भी चिन्ता हुई; पर धनिया को वह बराबर साहस देते जाते थे। धनिया अधीर होकर बोली -- ऐसा कभी नहीं हुआ था। लाला, कभी नहीं।
पटेश्वरी ने पूछा -- रात कुछ खाया था?
धनिया बोली -- हाँ, रोटियाँ पकायी थीं; लेकिन आजकल हमारे ऊपर जो बीत रही है, वह क्या तुमसे छिपा है? महीनों से भरपेट रोटी नसीब नहीं हुई। कितना समझाती हूँ, जान रखकर काम करो; लेकिन आराम तो हमारे भाग्य में लिखा ही नहीं।
सहसा होरी ने आँखें खोल दीं और उड़ती हुई नज़रों से इधर-उधर ताका। धनिया जैसे जी उठी। विह्वल होकर उसके गले से लिपटकर बोली -- अब कैसा जी है तुम्हारा? मेरे तो परान नहों में समा गये थे।
होरी ने कातर स्वर में कहा -- अच्छा हूँ। न जाने कैसा जी हो गया था।
धनिया ने स्नेह में डूबी भत्र्सना से कहा -- देह में दम तो है नहीं, काम करते हो जान देकर। लड़कों का भाग था, नहीं तुम तो ले ही डूबे थे!
पटेश्वरी ने हँसकर कहा -- धनिया तो रो-पीट रही थी।
होरी ने आतुरता से पूछा -- सचमुच तू रोती थी धनिया?
धनिया ने पटेश्वरी को पीछे ढकेल कर कहा -- इन्हें बकने दो तुम। पूछो, यह क्यों कागद छोड़कर घर से दौड़े आये थे?
पटेश्वरी ने चिढ़ाया -- तुम्हें हीरा-हीरा कहकर रोती थी। अब लाज के मारे मुकरती है। छाती पीट रही थी।
होरी ने धनिया को सजल नेत्रों से देखा -- पगली है और क्या। अब न जाने कौन-सा सुख देखने के लिए मुझे जिलाये रखना चाहती है।
दो आदमी होरी को टिकाकर घर लाये और चारपाई पर लिटा दिया। दातादीन तो कुढ़ रहे थे कि बोआई में देर हुई जाती है, पर मातादीन इतना निर्दयी न था। दौड़कर घर से गर्म दूध लाया, और एक शीशी में गुलाबजल भी लेता आया। और दूध पीकर होरी में जैसे जान आ गयी। उसी वक़्त गोबर एक मज़दूर के सिर पर अपना सामान लादे आता दिखायी दिया। गाँव के कुत्ते पहले तो भूँकते हुए उसकी तरफ़ दौड़े। फिर दुम हिलाने लगे।
रूपा ने कहा -- भैया आये, और तालियाँ बजाती हुई दौड़ी। सोना भी दो-तीन क़दम आगे बढ़ी; पर अपने उछाह को भीतर ही दबा गयी। एक साल में उसका यौवन कुछ और संकोचशील हो गया था। झुनिया भी घूँघट निकाले द्वार पर खड़ी हो गयी। गोबर ने माँ-बाप के चरण छूए और रूपा को गोद में उठाकर प्यार किया। धनिया ने उसे आशीर्वाद दिया और उसका सिर अपनी छाती से लगाकर मानो अपने मातृत्व का पुरस्कार पा गयी। उसका हृदय गर्व से उमड़ा पड़ता था। आज तो वह रानी है। इस फटे-हाल में भी रानी है। कोई उसकी आँखें देखे, उसका मुख देखे, उसका हृदय देखे, उसकी चाल देखे। रानी भी लजा जायगी। गोबर कितना बड़ा हो गया है और पहन-ओढ़कर कैसा भलामानस लगता है। धनिया के मन में कभी अमंगल की शंका न हुई थी। उसका मन कहता था, गोबर कुशल से है और प्रसन्न है। आज उसे आँखों देखकर मानो उसके जीवन के धूल-धक्कड़ में गुम हुआ रत्न मिल गया है; मगर होरी ने मुँह फेर लिया था।
गोबर ने पूछा -- दादा को क्या हुआ है, अम्माँ?
धनिया घर का हाल कहकर उसे दुखी न करना चाहती थी। बोली -- कुछ नहीं है बेटा, ज़रा सिर में दर्द है। चलो, कपड़े उतरो, हाथ-मुँह धोओ? कहाँ थे तुम इतने दिन? भला इस तरह कोई घर से भागता है? और कभी एक चिट्ठी तक न भेजी। आज साल-भर के बाद जाके सुधि ली है। तुम्हारी राह देखते-देखते आँखें फूट गयीं। यही आसा बँधी रहती थी कि कब वह दिन आयेगा और कब तुम्हें देखूँगी। कोई कहता था, मिरच भाग गया, कोई डमरा टापू बताता था। सुन-सुनकर जान सूखी जाती थी। कहाँ रहे इतने दिन?
गोबर ने शमार्ते हुए कहा -- कहीं दूर नहीं गया था अम्माँ, यह लखनऊ में तो था।
' और इतने नियरे रहकर भी कभी एक चिट्ठी न लिखी! '
उधर सोना और रूपा भीतर गोबर का सामान खोलकर चीज़ का बाँट-बखरा करने में लगी हुई थीं; लेकिन झुनिया दूर खड़ी थी; उसके मुख पर आज मान का शोख रंग झलक रहा है। गोबर ने उसके साथ जो व्यवहार किया है, आज वह उसका बदला लेगी। असामी को देखकर महाजन उससे वह रुपये वसूल करने को भी व्याकुल हो रहा है, जो उसने बट्टेखाते में डाल दिये थे। बच्चा उन चीज़ों की ओर लपक रहा था और चाहता था, सब-का-सब एक साथ मुँह में डाल ले; पर झुनिया उसे गोद से उतरने न देती थी। सोना बोली -- भैया तुम्हारे लिए आईना-कंघी लाये हैं भाभी!
झुनिया ने उपेक्षा भाव से कहा -- मुझे ऐना-कंघी न चाहिए। अपने पास रखे रहें।
रूपा ने बच्चे की चमकीली टोपी निकाली -- ओ हो! यह तो चुन्नू की टोपी है।
और उसे बच्चे के सिर पर रख दिया। झुनिया ने टोपी उतारकर फेंक दी। और सहसा गोबर को अन्दर आते देखकर वह बालक को लिए अपनी कोठरी में चली गयी। गोबर ने देखा, सारा सामान खुला पड़ा है। उसका जी तो चाहता है पहले झुनिया से मिलकर अपना अपराध क्षमा कराये; लेकिन अन्दर जाने का साहस नहीं होता। वहीं बैठ गया और चीज़ें निकाल-निकाल, हर-एक को देने लगा, मगर रूपा इसलिए फूल गयी कि उसके लिए चप्पल क्यों नहीं आये, और सोना उसे चिढ़ाने लगी, तू क्या करेगी चप्पल लेकर, अपनी गुड़िया से खेल। हम तो तेरी गुड़िया देखकर नहीं रोते, तू मेरा चप्पल देखकर क्यों रोती है? मिठाई बाँटने की ज़िम्मेदारी धनिया ने अपने उपर ली। इतने दिनों के बाद लड़का कुशल से घर आया है। वह गाँव-भर में बैना बटवायेगी। एक गुलाब-जामुन रूपा के लिए ऊँट के मुँह में जीरे के समान था। वह चाहती थी, हाँडी उसके सामने रख दी जाय, वह कूद-कूद खाय। अब सन्दूक़ खुला और उसमें से साड़ियाँ निकलने लगीं। सभी किनारदार थीं; जैसी पटेश्वरी लाला के घर में पहनी जाती हैं, मगर हैं बड़ी हलकी। ऐसी महीन साड़ियाँ भला कै दिन चलेंगी! बड़े आदमी जितनी महीन साड़ियाँ चाहे पहनें। उनकी मेहरियों को बैठने और सोने के सिवा और कौन काम है। यहाँ तो खेत-खलिहान सभी कुछ है। अच्छा! होरी के लिए धोती के अतिरिक्त एक दुपट्टा भी है। धनिया प्रसन्न होकर बोली -- यह तुमने बड़ा अच्छा किया बेटा! इनका दुपट्टा बिलकुल तार-तार हो गया था।
गोबर को उतनी देर में घर की परिस्थिति का अन्दाज़ हो गया था। धनिया की साड़ी में कई पेंवदे लगे हुए थे। सोना की साड़ी सिर पर फटी हुई थी और उसमें से उसके बाल दिखाई दे रहे थे। रूपा की धोती में चारों तरफ़ झालरें-सी लटक रही थीं। सभी के चेहरे रूखे, किसी की देह पर चिकनाहट नहीं। जिधर देखो, विपन्नता का साम्राज्य था। लड़कियाँ तो साड़ियों में मगन थीं। धनिया को लड़के के लिए भोजन की चिन्ता हुई। घर में थोड़ा-सा जौ का आटा साँझ के लिए संचकर रखा हुआ था। इस वक़्त तो चबैने पर कटती थी; मगर गोबर अब वह गोबर थोड़े ही है। उसको जौ का आटा खाया भी जायगा। परदेश में न जाने क्या-क्या खाता-पीता रहा होगा। जाकर दुलारी की दुकान से गेहूँ का आटा, चावल, घी उधार लायी। इधर महीने से सहुआइन एक पैसे की चीज़ भी उधार न देती थी; पर आज उसने एक बार भी न पूछा, पैसे कब दोगी। उसने पूछा -- गोबर तो ख़ूब कमा के आया है न?
धनिया बोली -- अभी तो कुछ नहीं खुला दीदी! अभी मैंने भी कुछ कहना उचित न समझा। हाँ, सबके लिए किनारदार साड़ियाँ लाया है। तुम्हारे आसिरबाद से कुशल से लौट आया, मेरे लिए तो यही बहुत है।
दुलारी ने असीस दिया -- भगवान् करे, जहाँ रहे कुशल से रहे। माँ-बाप को और क्या चाहिए! लड़का समझदार है। और छोकरों की तरह उड़ाऊ नहीं है। हमारे रुपए अभी न मिलें, तो ब्याज तो दे दो। दिन-दिन बोझ बढ़ ही तो रहा है।
इधर सोना चुन्नू को उसका फ़्राक और टोप और जूता पहनाकर राजा बना रही थी, बालक इन चीज़ों को पहनने से ज़्यादा हाथ में लेकर खेलना पसन्द करता था। अन्दर गोबर और झुनिया में मान-मनौवल का अभिनय हो रहा था। झुनिया ने तिरस्कार भरी आँखों से देखकर कहा -- मुझे लाकर यहाँ बैठा दिया। आप परदेश की राह ली। फिर न खोज, न ख़बर कि मरती है या जीती है। साल-भर के बाद अब जाकर तुम्हारी नींद टूटी है। कितने बड़े कपटी हो तुम। मैं तो सोचती हूँ कि तुम मेरे पीछे-पीछे आ रहे हो और आप उड़े, तो साल-भर के बाद लौटे। मदों का विश्वास ही क्या, कहीं कोई और ताक ली होगी। सोचा होगा, एक घर के लिए है ही, एक बाहर के लिए भी हो जाय।
गोबर ने सफ़ाई दी -- झुनिया, मैं भगवान् को साक्षी देकर कहता हूँ जो मैंने कभी किसी की ओर ताका भी हो। लाज और डर के मारे घर से भागा ज़रूर; मगर तेरी याद एक छन के लिए भी मन से न उतरती थी। अब तो मैंने तय कर लिया है कि तुझे भी लेता जाऊँगा; इसलिए आया हूँ। तेरे घरवाले तो बहुत बिगड़े होंगे?
' दादा तो मेरी जान लेने पर ही उतारू थे। '
' सच! '
' तीनों जने यहाँ चढ़ आये थे। अम्माँ ने ऐसा डाँटा कि मुँह लेकर रह गये। हाँ, हमारे दोनों बैल खोल ले गये। '
' इतनी बड़ी ज़बरदस्ती! और दादा कुछ बोले नहीं? '
' दादा अकेले किस-किस से लड़ते! गाँववाले तो नहीं ले जाने देते थे; लेकिन दादा ही भलमनसी में आ गये, तो और लोग क्या करते? '
' तो आजकल खेती-बारी कैसे हो रही है? '
' खेती-बारी सब टूट गयी। थोड़ी-सी पण्डित महाराज के साझे में है। उख बोई ही नहीं गयी। '
गोबर की कमर में इस समय दो सौ रुपए थे। उसकी गर्मी यों भी कम न थी। यह हाल सुनकर तो उसके बदन में आग ही लग गयी। बोला -- तो फिर पहले मैं उन्हीं से जाकर समझता हूँ। उनकी यह मजाल कि मेरे द्वार पर से बैल खोल ले जायँ! यह डाका है, खुला हुआ डाका। तीन-तीन साल को चले जायँगे तीनों। यों न देंगे, तो अदालत से लूँगा। सारा घमंड तोड़ दूँगा। वह उसी आवेश में चला था कि झुनिया ने पकड़ लिया और बोली -- तो चले जाना, अभी ऐसी क्या जल्दी है? कुछ आराम कर लो, कुछ खा-पी लो। सारा दिन तो पड़ा है। यहाँ बड़ी-बड़ी पंचायत हुई। पंचायत ने अस्सी रुपए डाँड़ लगाये। तीन मन अनाज ऊपर। उसी में तो और तबाही आ गयी। सोना बालक को कपड़े-जूते पहनाकर लायी। कपड़े पहनकर वह जैसे सचमुच राजा हो गया था। गोबर ने उसे गोद में ले लिया; पर इस समय बालक के प्यार में उसे आनन्द न आया। उसका रक्त खौल रहा था और कमर के रुपए आँच और तेज़ कर रहे थे। वह एक-एक से समझेगा। पंचों को उस पर डाँड़ लगाने का अधिकार क्या है? कौन होता है कोई उसके बीच में बोलनेवाला? उसने एक औरत रख ली, तो पंचों के बाप का क्या बिगाड़ा? अगर इसी बात पर वह फ़ौजदारी में दावा कर दे, तो लोगों के हाथों में हथकड़ियाँ पड़ जायँ। सारी गृहस्थी तहस-नहस हो गयी। क्या समझ लिया है उसे इन लोगों ने! बच्चा उसकी गोद में ज़रा-सा मुस्कराया, फिर ज़ोर से चीख़ उठा जैसे कोई डरावनी चीज़ देख ली हो। झुनिया ने बच्चे को उसकी गोद से ले लिया और बोली -- अब जाकर नहा-धो लो। किस सोच में पड़ गये। यहाँ सबसे लड़ने लगो, तो एक दिन निबाह न हो। जिसके पास पैसे हैं, वही बड़ा आदमी है, वही भला आदमी है। पैसे न हों, तो उस पर सभी रोब जमाते हैं।
' मेरा गधापन था कि घर से भागा। नहीं देखता, कैसे कोई एक धेला डाँड़ लेता है। '
' सहर की हवा खा आये हो तभी ये बातें सूझने लगी हैं। नहीं, घर से भागते क्यों! '
' यही जी चाहता है कि लाठी उठाऊँ और पटेश्वरी, दातादीन, झिंगुरी, सब सालों को पीटकर गिरा दूँ, और उनके पेट से रुपए निकाल लूँ। '
' रुपए की बहुत गर्मी चढ़ी है साइत। लाओ निकालो, देखूँ, इतने दिन में क्या कमा लाये हा? '
उसने गोबर की कमर में हाथ लगाया। गोबर खड़ा होकर बोला -- अभी क्या कमाया; हाँ, अब तुम चलोगी, तो कमाऊँगा। साल-भर तो सहर का रंग-ढंग पहचानने ही में लग गया।
' अम्माँ जाने देंगी, तब तो? '
' अम्माँ क्यों न जाने देंगी। उनसे मतलब? '
' वाह! मैं उनकी राज़ी बिना न जाऊँगी। तुम तो छोड़कर चलते बने। और मेरा कौन था यहाँ? वह अगर घर में न घुसने देतीं तो मैं कहाँ जाती? जब तक जीऊँगी, उनका जस गाऊँगी और तुम भी क्या परदेश ही करते रहोगे? '
' और यहाँ बैठकर क्या करूँगा। कमाओ और मरो, इसके सिवा यहाँ और क्या रखा है? थोड़ी-सी अकल हो और आदमी काम करने से न डरे, तो वहाँ भूखों नहीं मर सकता। यहाँ तो अकल कुछ काम ही नहीं करती। दादा क्यों मुझसे मुँह फुलाए हुए हैं? '
' अपने भाग बखानो कि मुँह फुलाकर छोड़ देते हैं। तुमने उपद्रव तो इतना बड़ा किया था कि उस क्रोध में पा जाते, तो मुँह लाल कर देते। '
' तो तुम्हें भी ख़ूब गालियाँ देते होंगे? '
' कभी नहीं, भूलकर भी नहीं। अम्माँ तो पहले बिगड़ी थीं; लेकिन दादा ने तो कभी कुछ नहीं कहा, जब बुलाते हैं, बड़े प्यार से। मेरा सिर भी दुखता है, तो बेचैन हो जाते हैं। अपने बाप को देखते तो मैं इन्हें देवता समझती हूँ। अम्माँ को समझाया करते हैं, बहू को कुछ न कहना। तुम्हारे ऊपर सैकड़ों बार बिगड़ चुके हैं कि इसे घर में बैठाकर आप न जाने कहाँ निकल गया। आज-कल पैसे-पैसे की तंगी है। ऊख के रुपए बाहर ही बाहर उड़ गये। अब तो मजूरी करनी पड़ती है। आज बेचारे खेत में बेहोश हो गये। रोना-पीटना मच गया। तब से पड़े हैं ' मुँह-हाथ धोकर और ख़ूब बाल बनाकर गोबर गाँव का दिग्विजय करने निकला। दोनों चाचाओं के घर जाकर राम-राम कर आया। फिर और मित्रों से मिला। गाँव में कोई विशेष परिवर्तन न था। हाँ, पटेश्वरी की नयी बैठक बन गयी थी और झिंगुरीसिंह ने दरवाज़े पर नया कुआँ खुदवा लिया था। गोबर के मन में विद्रोह और भी ताल ठोंकने लगा। जिससे मिला उसने उसका आदर किया, और युवकों ने तो उसे अपना हीरो बना लिया और उसके साथ लखनऊ जाने को तैयार हो गये। साल ही भर में वह क्या से क्या हो गया था। सहसा झिंगुरीसिंह अपने कुएँ पर नहाते हुए मिल गये। गोबर निकला; मगर न सलाम किया, न बोला। वह ठाकुर को दिखा देना चाहता था, मैं तुम्हें कुछ नहीं समझता। झिंगुरीसिंह ने ख़ुद ही पूछा -- कब आये गोबर, मज़े में तो रहे? कहीं नौकर थे लखनऊ में?
गोबर ने हेकड़ी के साथ कहा -- लखनऊ ग़ुलामी करने नहीं गया था। नौकरी है तो ग़ुलामी। मैं व्यापार करता था। ठाकुर ने कुतूहल भरी आँखों से उसे सिर से पाँव तक देखा -- कितना रोज़ पैदा करते थे?
गोबर ने छुरी को भाला बनाकर उनके ऊपर चलाया -- यही कोई ढाई-तीन रुपए मिल जाते थे। कभी चटक गयी तो चार भी मिल गये। इससे बेसी नहीं।
झिंगुरी बहुत नोच-खसोट करके भी पचीस-तीस से ज़्यादा न कमा पाते थे। और यह गँवार लौंडा सौ रुपए कमाने लगा। उनका मस्तक नीचा हो गया। अब किस दावे से उस पर रोब जमा सकते हैं? वर्ण में वह ज़रूर ऊँचे हैं; लेकिन वर्ण कौन देखता है! उससे स्पर्धा करने का यह अवसर नहीं, अब तो उसकी चिरौरी करके उससे कुछ काम निकाला जा सकता है। बोले -- इतनी कमाई कम नहीं है बेटा, जो ख़रच करते बने। गाँव में तो तीन आने भी नहीं मिलते। भवनिया ( उनके जेठे पुत्र का नाम था ) को भी कहीं कोई काम दिला दो, तो भेज दूँ। न पढ़े न लिखे, एक न एक उपद्रव करता रहता है। कहीं मुनीमी ख़ाली हो तो कहना। नहीं साथ ही लेते जाना। तुम्हारा तो मित्र है। तलब थोड़ी हो, कुछ ग़म नहीं, हाँ, चार पैसे की ऊपर की गुंजाइस हो।
गोबर ने अभिमान भरी हँसी के साथ कहा -- यह ऊपरी आमदनी की चाट आदमी को ख़राब कर देती है ठाकुर; लेकिन हम लोगों की आदत कुछ ऐसी बिगड़ गयी है कि जब तक बेईमानी न करें, पेट नहीं भरता। लखनऊ में मुनीमी मिल सकती है; लेकिन हर-एक महाजन ईमानदार चौकस आदमी चाहता है। मैं भवानी को किसी के गले बाँध तो दूँ; लेकिन पीछे इन्होंने कहीं हाथ लपकाया, तो वह तो मेरी गर्दन पकड़ेगा। संसार में इलम की क़दर नहीं है, ईमान की क़दर है। य ह तमाचा लगाकर गोबर आगे निकल गया। झिंगुरी मन में ऐंठकर रह गये। लौंडा कितने घमंड की बातें करता है, मानो धर्म का अवतार ही तो है। इसी तरह गोबर ने दातादीन को भी रगड़ा। भोजन करने जा रहे थे। गोबर को देखकर प्रसन्न होकर बोले -- मज़े में तो रहे गोबर? सुना वहाँ कोई अच्छी जगह पा गये हो। मातादीन को भी किसी हीले से लगा दो न? भंग पीकर पड़े रहने के सिवा यहाँ और कौन काम है।
गोबर ने बनाया -- तुम्हारे घर में किस बात की कमी महाराज, जिस जजमान के द्वार पर जाकर खड़े हो जाओ कुछ न कुछ मार ही लाओगे। जनम में लो, मरन में लो, सादी में लो, गमी में लो; खेती करते हो, लेन-देन करते हो, दलाली करते हो, किसी से कुछ भूल-चूक हो जाय तो डाँड़ लगाकर उसका घर लूट लेते हो; इतनी कमाई से पेट नहीं भरता? क्या करोगे बहुत-सा धन बटोरकर? कि साथ ले जाने की कोई जुगुत निकाल ली है?
दातादीन ने देखा, गोबर कितनी ढिठाई से बोल रहा है; अदब और लिहाज जैसे भूल गया। अभी शायद नहीं जानता कि बाप मेरी ग़ुलामी कर रहा है। सच है, छोटी नदी को उमड़ते देर नहीं लगती; मगर चेहरे पर मैल नहीं आने दिया। जैसे बड़े लोग बालकों से मूँछें उखड़वाकर भी हँसते हैं, उन्होंने भी इस फटकार को हँसी में लिया और विनोद-भाव से बोले -- लखनऊ की हवा खा के तू बड़ा चंट हो गया है गोबर! ला, क्या कमा के लाया है, कुछ निकाल।
' सच कहता हूँ गोबर तुम्हारी बहुत याद आती थी। अब तो रहोगे कुछ दिन?
' हाँ, अभी तो रहूँगा कुछ दिन। उन पंचों पर दावा करना है, जिन्होंने डाँड़ के बहाने मेरे डेढ़ सौ रुपए हज़म किये हैं। देखूँ, कौन मेरा हुक़्क़ा-पानी बन्द करता है। और कैसे बिरादरी मुझे जात बाहर करती है। '
यह धमकी देकर वह आगे बढ़ा। उसकी हेकड़ी ने उसके युवक भक्तों को रोब में डाल दिया था। एक ने कहा -- कर दो नालिस गोबर भैया! बुड्ढा काला साँप है -- जिसके काटे का मन्तर नहीं। तुमने अच्छी डाँट बताई। पटवारी के कान भी ज़रा गरमा दो। बड़ा मुतफन्नी है दादा! बाप-बेटे में आग लगा दे, भाई-भाई में आग लगा दे। कारिन्दे से मिलकर असामियों का गला काटता है। अपने खेत पीछे जोतो, पहले उसके खेत जोत दो। अपनी सिंचाई पीछे करो, पहले उसकी सिंचाई कर दो।
गोबर ने मूँछों पर ताव देकर कहा -- मुझसे क्या कहते हो भाई, साल भर में भूल थोड़े ही गया। यहाँ मुझे रहना ही नहीं है, नहीं एक-एक को नचाकर छोड़ता। अबकी होली धूम-धाम से मनाओ और होली का स्वाँग बनाकर इन सबों को ख़ूब भिंगो-भिंगोकर लगाओ। होली का प्रोग्राम बनने लगा। ख़ूब भंग घुटे, दूधिया भी, नमकीन भी, और रंगों के साथ कालिख भी बने और मुखियों के मुँह पर कालिख ही पोती जाय। होली में कोई बोल ही क्या सकता है! फिर स्वाँग निकले और पंचों की भद्द उड़ाई जाय। रुपए-पैसे की कोई चिन्ता नहीं। गोबर भाई कमाकर आये हैं। भोजन करके गोबर भोला से मिलने चला। जब तक अपनी जोड़ी लाकर अपने द्वार पर बाँध न दे, उसे चैन नहीं। वह लड़ने-मरने को तैयार था। होरी ने कातर स्वर में कहा -- राढ़ मत बढ़ाओ बेटा, भोला गोईं ले गये, भगवान् उनका भला करे; लेकिन उनके रुपए तो आते ही थे। गोबर ने उत्तेजित होकर कहा -- दादा, तुम बीच में न बोलो। उनकी गाय पचास की थी। हमारी गोईं डेढ़ सौ में आयी थी। तीन साल हमने जोती। फिर भी सौ की थी ही। वह अपने रुपये के लिए दावा करते, डिग्री कराते, या जो चाहते कहते, हमारे द्वार से जोड़ी क्यों खोल ले गये? और तुम्हें क्या कहूँ। इधर गोईं खो बैठे, उधर डेढ़ सौ रुपए डाँड़ के भरे। यह है गऊ होने का फल। मेरे सामने जोड़ी खोल ले जाते, तो देखता। तीनों को यहाँ ज़मीन पर सुला देता। और पंचों से तो बात तक न करता। देखता, कौन मुझे बिरादरी से अलग करता है; लेकिन तुम बैठे ताकते रहे। होरी ने अपराधी की भाँति सिर झुका लिया; लेकिन धनिया यह अनीत कैसे देख सकती थी। बोली -- बेटा, तुम भी अँधेर करते हो। हुक़्क़ा-पानी बन्द हो जाता, तो गाँव में निवार्ह होता! जवान लड़की बैठी है, उसका भी कहीं ठिकाना लगाना है कि नहीं? मरने-जीने में आदमी बिरादरी ...
गोबर ने बात काटी -- हुक़्क़ा-पानी सब तो था, बिरादरी में आदर भी था, फिर मेरा ब्याह क्यों नहीं हुआ? बोलो। इसलिए कि घर में रोटी न थी। रुपए हों तो न हुक़्क़ा-पानी का काम है, न जात-बिरादरी का। दुनिया पैसे की है, हुक़्क़ा-पानी कोई नहीं पूछता। धनिया तो बच्चे का रोना सुनकर भीतर चली गयी और गोबर भी घर से निकला। होरी बैठा सोच रहा था। लड़के की अकल जैसे खुल गयी है। कैसी बेलाग बात कहता है। उसकी वक्त बुद्धि ने होरी के धर्म और नीति को परास्त कर दिया था। सहसा होरी ने उससे पूछा -- मैं भी चला चलूँ?
' मैं लड़ाई करने नहीं जा रहा हूँ दादा, डरो मत। मेरी ओर क़ानून है, मैं क्यों लड़ाई करने लगा? '
' मैं भी चलूँ तो कोई हरज़ है? '
' हाँ, बड़ा हरज़ है। तुम बनी बात बिगाड़ दोगे। '
होरी चुप हो गया और गोबर चल दिया। पाँच मिनट भी न हुए होंगे कि धनिया बच्चे को लिए बाहर निकली और बोली -- क्या गोबर चला गया, अकेले? मैं कहती हूँ, तुम्हें भगवान् कभी बुद्धि देंगे या नहीं। भोला क्या सहज में गोईं देगा? तीनों उस पर टूट पड़ेंगे, बाज़ की तरह। भगवान् ही कुशल करें। अब किससे कहूँ, दौड़कर गोबर को पकड़ ले। तुमसे तो मैं हार गयी। होरी ने कोने से डंडा उठाया और गोबर के पीछे दौड़ा। गाँव के बाहर आकर उसने निगाह दौड़ाई। एक क्षीण-सी रेखा क्षितिज से मिली हुई दिखाई दी। इतनी ही देर में गोबर इतनी दूर कैसे निकल गया! होरी की आत्मा उसे धिक्कारने लगी। उसने क्यों गोबर को रोका नहीं। अगर वह डाँटकर कह देता, भोला के घर मत जाओ तो गोबर कभी न जाता। और अब उससे दौड़ा भी तो नहीं जाता। वह हारकर वहीं बैठ गया और बोला -- उसकी रच्छा करो महाबीर स्वामी! गोबर उस गाँव में पहुँचा, तो देखा कुछ लोग बरगद के नीचे बैठे जुआ खेल रहे हैं। उसे देखकर लोगों ने समझा, पुलीस का सिपाही है। कौड़ियाँ समेटकर भागे कि सहसा जंगी ने उसे पहचानकर कहा -- अरे, यह तो गोबरधन है। गोबर ने देखा, जंगी पेड़ की आड़ में खड़ा झाँक रहा है। बोला -- डरो मत जंगी भैया, मैं हूँ। राम-राम! आज ही आया हूँ। सोचा, चलूँ सबसे मिलता आऊँ, फिर न जाने कब आना हो! मैं तो भैया, तुम्हारे आसिरबाद से बड़े मज़े में निकल गया। जिस राजा की नौकरी मैं हूँ, उन्होंने मुझसे कहा है कि एक-दो आदमी मिल जायँ तो लेते आना। चौकीदारी के लिए चाहिए। मैंने कहा, सरकार ऐसे आदमी दूँगा कि चाहे जान चली जाय, मैदान से हटनेवाले नहीं, इच्छा हो तो मेरे साथ चलो। अच्छी जगह है। जंगी उसका ठाट-बाट देखकर रोब में आ गया। उसे कभी चमरौधे जूते भी मयस्सर न हुए थे। और गोबर चमाचम बूट पहने हुए था। साफ़-सुथरी, धारीदार कमीज़, सँवारे हुए बाल, पूरा बाबू साहब बना हुआ। फटेहाल गोबर और इस परिष्कृत गोबर में बड़ा अन्तर था। हिंसा-भाव कुछ तो यों ही समय के प्रभाव से शान्त हो गया था और बचा-खुचा अब शान्त हो गया। जुआड़ी था ही, उस पर गाँजे की लत। और घर में बड़ी मुश्किल से पैसे मिलते थे। मुँह में पानी भर आया। बोला -- चलूँगा क्यों नहीं, यहाँ पड़ा-पड़ा मक्खी ही तो मार रहा हूँ। कै रुपए मिलेंगे? गोबर ने बड़े आत्मविश्वास से कहा -- इसकी कुछ चिन्ता न करो। सब कुछ अपने ही हाथ में है। जो चाहोगे, वह हो जायगा। हमने सोचा, जब घर में ही आदमी है, तो बाहर क्यों जायँ।
जंगी ने उत्सुकता से पूछा -- काम क्या करना पड़ेगा?
' काम चाहे चौकीदारी करो, चाहे तगादे पर जाओ। तगादे का काम सबसे अच्छा। असामी से गठ गये। आकर मालिक से कह दिया, घर पर है नहीं, चाहो तो रुपए आठ आने रोज़ बना सकते हो। '
' रहने की जगह भी मिलती है? '
' जगह की कौन कमी। पूरा महल पड़ा है। पानी का नल, बिजली। किसी बात की कमी नहीं है। कामता हैं कि कहीं गये हैं? '
' दूध लेकर गये हैं। मुझे कोई बाज़ार नहीं जाने देता। कहते हैं, तुम तो गाँजा पी जाते हो। मैं अब बहुत कम पीता हूँ भैया, लेकिन दो पैसे रोज़ तो चाहिए ही। तुम कामता से कुछ न कहना। मैं तुम्हारे साथ चलूँगा। '
' हाँ-हाँ, बेखटके चलो। होली के बाद। '
' तो पक्की रही। '
दोनों आदमी बातें करते भोला के द्वार पर आ पहुँचे। भोला बैठे सुतली कात रहे थे। गोबर ने लपक कर उनके चरण छुए और इस वक़्त उसका गला सचमुच भर आया। बोला -- काका, मुझसे जो कुछ भूल-चूक हुई, उसे क्षमा करो।
भोला ने सुतली कातना बन्द कर दिया और पथरीले स्वर में बोला -- काम तो तुमने ऐसा ही किया था गोबर, कि तुम्हारा सिर काट लूँ तो भी पाप न लगे; लेकिन अपने द्वार पर आये हो, अब क्या कहूँ! जाओ, जैसा मेरे साथ किया उसकी सज़ा भगवान् देंगे। कब आये?
गोबर ने ख़ूब नमक-मिर्च लगाकर अपने भाग्योदय का वृत्तान्त कहा, और जंगी को अपने साथ ले जाने की अनुमति माँगी। भोला को जैसे बेमाँगे वरदान मिल गया। जंगी घर पर एक-न-एक उपद्रव करता रहता था। बाहर चला जायगा, तो चार पैसे पैदा तो करेगा। न किसी को कुछ दे, अपना बोझ तो उठा लेगा। गोबर ने कहा -- नहीं काका, भगवान् ने चाहा और इनसे रहते बना तो साल दो साल में आदमी हो जायँगे।
' हाँ, जब इनसे रहते बने। '
' सिर पर आ पड़ती है, तो आदमी आप सँभल जाता है। '
' तो कब तक जाने का विचार है? '
' होली करके चला जाऊँगा। यहाँ खेती-बारी का सिलसिला फिर जमा दूँ, तो निसचिन्त हो जाऊँ। '
' होरी से कहो, अब बैठ के राम-राम करें। '
' कहता तो हूँ, लेकिन जब उनसे बैठा जाय। '
' वहाँ किसी बैद से तो तुम्हारी जान-पहचान होगी। खाँसी बहुत दिक कर रही है। हो सके तो कोई दवाई भेज देना। '
' एक नामी बैद तो मेरे पड़ोस ही में रहते हैं। उनसे हाल कहके दवा बनवा कर भेज दूँगा। खाँसी रात को ज़ोर करती है कि दिन को? '
' नहीं बेटा, रात को। आँख नहीं लगती। नहीं वहाँ कोई डौल हो, तो मैं भी वहीं चलकर रहूँ। यहाँ तो कुछ परता नहीं पड़ता। '
' रोज़गार का जो मज़ा वहाँ है काका, यहाँ क्या होगा? यहाँ रुपए का दस सेर दूध भी कोई नहीं पूछता। हलवाइयों के गले लगाना पड़ता है। वहाँ पाँच-छः सेर के भाव से चाहो तो एक घड़ी में मनों दूध बेच लो। '
जंगी गोबर के लिए दूधिया शर्बत बनाने चला गया था। भोला ने एकान्त देखकर कहा -- और भैया! अब इस जंजाल से जी ऊब गया है। जंगी का हाल देखते ही हो। कामता दूध लेकर जाता है। सानी-पानी, खोलना-बाँधना, सब मुझे करना पड़ता है। अब तो यही जी चाहता है कि सुख से कहीं एक रोटी खाऊँ और पड़ा रहूँ। कहाँ तक हाय-हाय करूँ। रोज़ लड़ाई-झगड़ा। किस-किस के पाँव सहलाऊँ। खाँसी आती है, रात को उठा नहीं जाता; पर कोई एक लोटे पानी को भी नहीं पूछता। पगहिया टूट गयी है, मुदा किसी को इसकी सुधि नहीं है। जब मैं बनाऊँगा तभी बनेगी।
गोबर ने आत्मीयता के साथ कहा -- तुम चलो लखनऊ काका। पाँच सेर का दूध बेचो, नगद। कितने ही बड़े-बड़े अमीरों से मेरी जान-पहचान है। मन-भर दूध की निकासी का ज़िम्मा मैं लेता हूँ। मेरी चाय की दूकान भी है। दस सेर दूध तो मैं ही नित लेता हूँ। तुम्हें किसी तरह का कष्ट न होगा।
जंगी दूधिया शर्बत ले आया। गोबर ने एक गिलास शर्बत पीकर कहा -- तुम तो ख़ाली साँझ सबेरे चाय की दूकान पर बैठ जाओ काका, तो एक रुपए कहीं नहीं गया है। भोला ने एक मिनट के बाद संकोच भरे भाव से कहा -- क्रोध में बेटा, आदमी अन्धा हो जाता है। मैं तुम्हारी गोईं खोल लाया था। उसे लेते जाना। यहाँ कौन खेती-बारी होती है।
' मैंने तो एक नयी गोईं ठीक कर ली है काका! '
' नहीं-नहीं, नयी गोईं लेकर क्या करोगे? इसे लेते जाओ। '
' तो मैं तुम्हारे रुपए भिजवा दूँगा। '
' रुपए कहीं बाहर थोड़े ही हैं बेटा, घर में ही तो हैं। बिरादरी का ढकोसला है, नहीं तुममें और हममें कौन भेद है? सच पूछो तो मुझे ख़ुश होना चाहिए था कि झुनिया भले घर में है, आराम से है। और मैं उसके ख़ून का प्यासा बन गया था। '
सन्ध्या समय गोबर यहाँ से चला, तो गोईं उसके साथ थी और दही की दो हाँड़ियाँ लिये जंगी पीछे-पीछे आ रहा था।
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