Showing posts with label सुजान भगत. Show all posts
Showing posts with label सुजान भगत. Show all posts

Monday, 27 March 2017

सुजान भगत / प्रेमचंद / Premchand

सुजान भगत / प्रेमचंद / Premchand

सीधे-सादे किसान धन हाथ आते ही धर्म और कीर्ति की ओर झुकते हैं।
दिव्य समाज की भाँति वे पहले अपने भोग-विलास की ओर नहीं दौड़ते। सुजान
सुजान भगत / प्रेमचंद / Premchand
की खेती में कई साल से कंचन बरस रहा था। मेहनत तो गाँव के सभी किसान
करते थे, पर सुजान के चंद्रमा बली थे, ऊसर में भी दाना छींट आता तो
कुछ न कुछ पैदा हो जाता था। तीन वर्ष लगातार ऊख लगती गयी। उधर
गुड़ का भाव तेज था। कोई दो-ढाई हजार हाथ में आ गये। बस चित्त की
वृत्ति धर्म की ओर झुक पड़ी। साधु-संतों का आदर-सत्कार होने लगा, द्वार
पर धूनी जलने लगी, कानूनगो इलाके में आते, तो सुजान महतो के चौपाल
में ठहरते। हल्के के हेड कांस्टेबल, थानेदार, शिक्षा-विभाग के अफसर, एक
न एक उस चौपाल में पड़ा ही रहता। महतो मारे खुशी के फूले न समाते।
धन्य भाग ! उसके द्वार पर अब इतने बड़े-बड़े हाकिम आ कर ठहरते हैं।
जिन हाकिमों के सामने उसका मुँह न खुलता था, उन्हीं की अब 'महतो-महतो'
करते जबान सूखती थी। कभी-कभी भजन-भाव हो जाता। एक महात्मा ने
डौल अच्छा देखा तो गाँव में आसन जमा दिया। गाँजे और चरस की बहार
उड़ने लगी। एक ढोलक आयी, मजीरे मँगाये गये, सत्संग होने लगा। यह
सब सुजान के दम का जलूस था। घर में सेरों दूध होता, मगर सुजान के
कंठ तले एक बूँद भी जाने की कसम थी। कभी हाकिम लोग चखते, कभी
महात्मा लोग। किसान को दूध-घी से क्या मतलब, उसे रोटी और साग चाहिए।
सुजान की नम्रता का अब पारावार न था। सबके सामने सिर झुकाये रहता,
कहीं लोग यह न कहने लगें कि धन पा कर उसे घमंड हो गया है। गाँव
में कुल तीन कुएँ थे, बहुत-से खेतों में पानी न पहुँचता था, खेती मारी जाती
1408 : मानसरोवर
थी। सुजान ने एक पक्का कुआँ बनवा दिया। कुएँ का विवाह हुआ, यज्ञ
हुआ, ब्रह्मभोज हुआ। जिस दिन पहली बार पुर चला, सुजान को मानो चारों
पदार्थ मिल गये। जो काम गाँव में किसी ने न किया था, वह बाप-दादा के
पुण्य-प्रताप से सुजान ने कर दिखाया।
एक दिन गाँव में गया के यात्री आ कर ठहरे। सुजान ही के द्वार पर
उनका भोजन बना। सुजान के मन में भी गया करने की बहुत दिनों से इच्छा
थी। यह अच्छा अवसर देख कर वह भी चलने को तैयार हो गया।
उसकी स्त्री बुलाकी ने कहा —अभी रहने दो, अगले साल चलेंगे।
सुजान ने गंभीर भाव से कहा —अगले साल क्या होगा, कौन जानता
है। धर्म के काम में मीनमेख निकालना अच्छा नहीं। जिंदगानी का क्या भरोसा ?
बुलाकी , हाथ खाली हो जायगा।
सुजान , भगवान् की इच्छा होगी, तो फिर रुपये हो जाएँगे। उनके यहाँ
किस बात की कमी है।
बुलाकी इसका क्या जवाब देती ? सत्कार्य में बाधा डाल कर अपनी
मुक्ति क्यों बिगाड़ती ? प्रात:काल स्त्री और पुरुष गया करने चले। वहाँ से
लौटे तो, यज्ञ और ब्रह्मभोज की ठहरी। सारी बिरादरी निमंत्रित हुई, ग्यारह
गाँवों में सुपारी बँटी। इस धूमधाम से कार्य हुआ कि चारों ओर वाह-वाह
मच गयी। सब यही कहते थे कि भगवान् धन दे, तो दिल भी ऐसा दे। घमंड
तो छू नहीं गया, अपने हाथ से पत्तल उठाता फिरता था, कुल का नाम जगा
दिया। बेटा हो, तो ऐसा हो। बाप मरा, तो घर में भूनी भाँग भी नहीं थी।
अब लक्ष्मी घुटने तोड़ कर आ बैठी हैं।
एक द्वेषी ने कहा —कहीं गड़ा हुआ धन पा गया है। इस पर चारों ओर
से उस पर बौछारें पड़ने लगीं , हाँ, तुम्हारे बाप-दादा जो खजाना छोड़ गये
थे, यही उसके हाथ लग गया है। अरे भैया, यह धर्म की कमाई है। तुम
भी तो छाती फाड़ कर काम करते हो, क्यों ऐसी ऊख नहीं लगती ? क्यों
ऐसी फसल नहीं होती ? भगवान् आदमी का दिल देखते हैं। जो खर्च करता
है, उसी को देते हैं।
1409
सुजान महतो सुजान भगत हो गये। भगतों के आचार-विचार कुछ और होते
हैं। वह बिना स्नान किये कुछ नहीं खाता। गंगा जी अगर घर से दूर हों
और वह रोज स्नान करके दोपहर तक घर न लौट सकता हो, तो पर्वों के
दिन तो उसे अवश्य ही नहाना चाहिए। भजन-भाव उसके घर अवश्य होना
चाहिए। पूजा-अर्चना उसके लिए अनिवार्य है। खान-पान में भी उसे बहुत
विचार रखना पड़ता है। सबसे बड़ी बात यह है कि झूठ का त्याग करना
पड़ता है। भगत झूठ नहीं बोल सकता। साधारण मनुष्य को अगर झूठ का
दंड एक मिले, तो भगत को एक लाख से कम नहीं मिल सकता। अज्ञान
की अवस्था में कितने ही अपराध क्षम्य हो जाते हैं। ज्ञानी के लिए क्षमा नहीं
है, प्रायश्चित्ता नहीं है, यदि है तो बहुत ही कठिन। सुजान को भी अब भगतों
की मर्यादा को निभाना पड़ा। अब तक उसका जीवन मजूर का जीवन था।
उसका कोई आदर्श, कोई मर्यादा उसके सामने न थी। अब उसके जीवन
में विचार का उदय हुआ, जहाँ का मार्ग काँटों से भरा हुआ है। स्वार्थ-सेवा
ही पहले उसके जीवन का लक्ष्य था, इसी काँटे से वह परिस्थितियों को तौलता
था। वह अब उन्हें औचित्य के काँटों पर तौलने लगा। यों कहो कि जड़-जगत्
से निकल कर उसने चेतन-जगत् में प्रवेश किया। उसने कुछ लेन-देन करना
शुरू किया था पर अब उसे ब्याज लेते हुए आत्मग्लानि-सी होती थी। यहाँ
तक कि गउओं को दुहाते समय उसे बछड़ों का ध्यान बना रहता था , कहीं
बछड़ा भूखा न रह जाए, नहीं तो उसका रोआँ दुखी होगा। वह गाँव का
मुखिया था, कितने ही मुकदमों में उसने झूठी शहादतें बनवायी थीं, कितनों
से डॉड़ ले कर मामले का रफा-दफा करा दिया था। अब इन व्यापारों से
उसे घृणा होती थी। झूठ और प्रपंच से कोसों दूर भागता था। पहले उसकी
यह चेष्टा होती थी कि मजूरों से जितना काम लिया जा सके लो और मजूरी
जितनी कम दी जा सके दो; पर अब उसे मजूर के काम की कम, मजूरी
की अधिक चिंता रहती थी , कहीं बेचारे मजूर का रोआँ न दुखी हो जाए।
वह उसका वाक्यांश-सा हो गया था , किसी का रोआँ न दुखी हो जाए। उसके
दोनों जवान बेटे बात-बात में उस पर फब्तियाँ कसते, यहाँ तक कि बुलाकी
भी अब उसे कोरा भगत समझने लगी थी, जिसे घर के भले-बुरे से कोई
प्रयोजन न था। चेतन-जगत् में आ कर सुजान भगत कोरे भगत रह गये।
सुजान के हाथों से धीरे-धीरे अधिकार छीने जाने लगे। किस खेत में
1410 : मानसरोवर
क्या बोना है, किसको क्या देना है, किसको क्या लेना है, किस भाव क्या
चीज बिकी, ऐसी-ऐसी महत्त्वपूर्ण बातों में भी भगत जी की सलाह न ली
जाती थी। भगत के पास कोई जाने ही न पाता। दोनों लड़के या स्वयं बुलाकी
दूर ही से मामला तय कर लिया करती। गाँव भर में सुजान का मान-सम्मान
बढ़ता था, अपने घर में घटता था। लड़के उसका सत्कार अब बहुत करते।
हाथ से चारपाई उठाते देख लपक कर खुद उठा लाते, चिलम न भरने देते,
यहाँ तक कि उसकी धोती छाँटने के लिए भी आग्रह करते थे। मगर अधिकार
उसके हाथ में न था। वह अब घर का स्वामी नहीं, मंदिर का देवता था।
एक दिन बुलाकी ओखली में दाल छाँट रही थी। एक भिखमंगा द्वार पर आ
कर चिल्लाने लगा। बुलाकी ने सोचा, दाल छाँट लूँ, तो उसे कुछ दे दूँ। इतने
में बड़ा लड़का भोला आकर बोला —  अम्माँ, एक महात्मा द्वार पर खड़े गला
फाड़ रहे हैं ? कुछ दे दो। नहीं तो उनका रोआँ दुखी हो जायगा।
बुलाकी ने उपेक्षा के भाव से कहा —भगत के पाँव में क्या मेहँदी लगी
है, क्यों कुछ ले जा कर नहीं दे देते ? क्या मेरे चार हाथ हैं ? किस-किसका
रोआँ सुखी करूँ ? दिन भर तो ताँता लगा रहता है।
भोला , चौपट करने पर लगे हुए हैं, और क्या ? अभी महँगू बेंग देने
आया था। हिसाब से 7 मन हुए। तौला तो पौने सात मन ही निकले। मैंने
कहा —दस सेर और ला, तो आप बैठे-बैठे कहते हैं, अब इतनी दूर कहाँ जायगा।
भरपाई लिख दो, नहीं तो उसका रोआँ दुखी होगा। मैंने भरपाई नहीं लिखी।
दस सेर बाकी लिख दी।
बुलाकी , बहुत अच्छा किया तुमने, बकने दिया करो। दस-पाँच दफे
मुँह की खा जाएेंगे, तो आप ही बोलना छोड़ देंगे।
भोला , दिन भर एक न एक खुचड़ निकालते रहते हैं। सौ दफे कह
दिया कि तुम घर-गृहस्थी के मामले में न बोला करो, पर इनसे बिना बोले
रहा ही नहीं जाता।
बुलाकी , मैं जानती कि इनका यह हाल होगा, तो गुरुमंत्र न लेने देती।
भोला , भगत क्या हुए कि दीन-दुनिया दोनों से गये। सारा दिन पूजा-पाठ
1411
में ही उड़ जाता है। अभी ऐसे बूढ़े नहीं हो गये कि कोई काम ही न कर
सकें।
बुलाकी ने आपत्ति की , भोला, यह तुम्हारा कुन्याय है। फावड़ा, कुदाल
अब उनसे नहीं हो सकता, लेकिन कुछ न कुछ तो करते ही रहते हैं। बैलों
को सानी-पानी देते हैं, गाय दुहाते हैं और भी जो कुछ हो सकता है, करते
हैं।
भिक्षुक अभी तक खड़ा चिल्ला रहा था। सुजान ने जब घर में से किसी
को कुछ लाते न देखा, तो उठ कर अंदर गया और कठोर स्वर से बोला —  तुम
लोगों को कुछ सुनायी नहीं देता कि द्वार पर कौन घंटे भर से खड़ा भीख
माँग रहा है। अपना काम तो दिन भर करना ही है, एक छन भगवान् का
काम भी तो किया करो।
बुलाकी , तुम तो भगवान् का काम करने को बैठे ही हो, क्या घर भर
भगवान् ही का काम करेगा ?
सुजान , कहाँ आटा रखा है, लाओ, मैं ही निकाल कर दे आऊँ। तुम
रानी बन कर बैठो।
बुलाकी , आटा मैंने मर-मर कर पीसा है, अनाज दे दो। ऐसे मुड़चिरों
के लिए पहर रात से उठ कर चक्की नहीं चलाती हूँ।
सुजान भंडार घर में गये और एक छोटी-सी छबड़ी को जौ से भरे हुए
निकले। जौ सेर भर से कम न था। सुजान ने जान-बूझकर, केवल बुलाकी
और भोला को चिढ़ाने के लिए, भिक्षा परंपरा का उल्लंघन किया था। तिस
पर भी यह दिखाने के लिए कि छबड़ी में बहुत ज्यादा जौ नहीं है, वह उसे
चुटकी से पकड़े हुए थे। चुटकी इतना बोझ न सँभाल सकती थी। हाथ काँप
रहा था। एक क्षण विलम्ब होने से छबड़ी के हाथ से छूट कर गिर पड़ने
की सम्भावना थी। इसलिए वह जल्दी से बाहर निकल जाना चाहते थे। सहसा
भोला ने छबड़ी उनके हाथ से छीन ली और त्यौरियाँ बदल कर बोला —  सेंत
का माल नहीं है, जो लुटाने चले हो। छाती फाड़-फाड़ कर काम करते हैं,
तब दाना घर में आता है।
सुजान ने खिसिया कर कहा —मैं भी तो बैठा नहीं रहता।
भोला , भीख, भीख की ही तरह दी जाती है, लुटायी नहीं जाती। हम
तो एक वेला खा कर दिन काटते हैं कि पति-पानी बना रहे, और तुम्हें लुटाने
141ह्म : मानसरोवर
की सूझी है। तुम्हें क्या मालूम कि घर में क्या हो रहा है।
सुजान ने इसका कोई जवाब न दिया। बाहर आ कर भिखारी से कह
दिया , बाबा, इस समय जाओ, किसी का हाथ खाली नहीं है, और पेड़ के
नीचे बैठ कर विचारों में मग्न हो गया। अपने ही घर में उसका यह अनादर !
अभी वह अपाहिज नहीं है; हाथ-पाँव थके नहीं हैं; घर का कुछ न कुछ काम
करता ही रहता है। उस पर यह अनादर ! उसी ने घर बनाया, यह सारी
विभूति उसी के श्रम का फल है, पर अब इस घर पर उसका कोई अधिकार
नहीं रहा। अब वह द्वार का कुत्ता है, पड़ा रहे और घरवाले जो रूखा-सूखा
दे दें, वह खा कर पेट भर लिया करे। ऐसे जीवन को धिक्कार है। सुजान
ऐसे घर में नहीं रह सकता।
संध्या हो गयी थी। भोला का छोटा भाई शंकर नारियल भर कर लाया।
सुजान ने नारियल दीवार से टिका कर रख दिया ! धीरे-धीरे तम्बाकू जल
गया। जरा देर में भोला ने द्वार पर चारपाई डाल दी। सुजान पेड़ के नीचे
से न उठा।
कुछ देर और गुजारी। भोजन तैयार हुआ। भोला बुलाने आया। सुजान
ने कहा —भूख नहीं है। बहुत मनावन करने पर भी न उठा। तब बुलाकी ने
आ कर कहा —खाना खाने क्यों नहीं चलते ? जी तो अच्छा है ?
सुजान को सबसे अधिक क्रोध बुलाकी ही पर था। यह भी लड़कों
के साथ है ! यह बैठी देखती रही और भोला ने मेरे हाथ से अनाज छीन
लिया। इसके मुँह से इतना भी न निकला कि ले जाते हैं, तो ले जाने दो।
लड़कों को न मालूम हो कि मैंने कितने श्रम से यह गृहस्थी जोड़ी है, पर
यह तो जानती है। दिन को दिन और रात को रात नहीं समझा। भादों की
अँधोरी रात में मड़ैया लगा के जुआर की रखवाली करता था। जेठ-बैसाख
की दोपहरी में भी दम न लेता था, और अब मेरा घर पर इतना भी अधिकार
नहीं है कि भीख तक न दे सकूँ। माना कि भीख इतनी नहीं दी जाती लेकिन
इनको तो चुप रहना चाहिए था, चाहे मैं घर में आग ही क्यों न लगा देता।
कानून से भी तो मेरा कुछ होता है। मैं अपना हिस्सा नहीं खाता, दूसरों को
खिला देता हूँ; इसमें किसी के बाप का क्या साझा ? अब इस वक्त मनाने
आयी है ! इसे मैंने फूल की छड़ी से भी नहीं छुआ, नहीं तो गाँव में ऐसी
कौन औरत है, जिसने खसम की लातें न खायी हों, कभी कड़ी निगाह से
1413
देखा तक नहीं। रुपये-पैसे, लेना-देना, सब इसी के हाथ में दे रखा था। अब
रुपये जमा कर लिये हैं, तो मुझी से घमंड करती है। अब इसे बेटे प्यारे हैं,
मैं तो निखट्टू; लुटाऊ, घर-फूँकू, घोंघा हूँ। मेरी इसे क्या परवाह। तब लड़के
न थे, जब बीमार पड़ी थी और मैं गोद में उठा कर बैद के घर ले गया था।
आज उसके बेटे हैं और यह उनकी माँ है। मैं तो बाहर का आदमी।
मुझसे घर से मतलब ही क्या। बोला —  अब खा-पीकर क्या करूँगा, हल
जोतने से रहा, फावड़ा चलाने से रहा। मुझे खिला कर दाने को क्यों खराब
करेगी ? रख दो, बेटे दूसरी बार खायँगे।
बुलाकी , तुम तो जरा-जरा-सी बात पर तिनक जाते हो। सच कहा है,
बुढ़ापे में आदमी की बुद्धि मारी जाती है। भोला ने इतना तो कहा था कि
इतनी भीख मत ले जाओ, या और कुछ ?
सुजान , हाँ बेचारा इतना कह कर रह गया। तुम्हें तो मजा तब आता,
जब वह ऊपर से दो-चार डंडे लगा देता। क्यों ? अगर यही अभिलाषा है,
तो पूरी कर लो। भोला खा चुका होगा, बुला लाओ। नहीं, भोला को क्यों
बुलाती हो, तुम्हीं न जमा दो, दो-चार हाथ। इतनी कसर है, वह भी पूरी हो
जाए।
बुलाकी , हाँ, और क्या, यही तो नारी का धरम ही है। अपने भाग
सराहो कि मुझ-जैसी सीधी औरत पा ली। जिस बल चाहते हो, बिठाते हो।
ऐसी मुँहजोर होती, तो तुम्हारे घर में एक दिन भी निबाह न होता।
सुजान , हाँ, भाई, वह तो मैं ही कह रहा हूँ कि देवी थीं और हो। मैं
तब भी राक्षस था और अब भी दैत्य हो गया हूँ ! बेटे कमाऊ हैं, उनकी-सी
न कहोगी, तो क्या मेरी-सी कहोगी, मुझसे अब क्या लेना-देना है ?
बुलाकी , तुम झगड़ा करने पर तुले बैठे हो और मैं झगड़ा बचाती हूँ
कि चार आदमी हँसेंगे। चल कर खाना खा लो सीधे से, नहीं तो मैं जा कर
सो रहूँगी।
सुजान , तुम भूखी क्यों सो रहोगी ? तुम्हारे बेटों की तो कमाई है।
हाँ, मैं बाहरी आदमी हूँ।
बुलाकी , बेटे तुम्हारे भी तो हैं।
सुजान , नहीं, मैं ऐसे बेटों से बाज आया। किसी और के बेटे होंगे।
मेरे बेटे होते, तो क्या मेरी दुर्गति होती ?
1414 : मानसरोवर
बुलाकी , गालियाँ दोगे तो मैं भी कुछ कह बैठूँगी। सुनती थी, मर्द बड़े
समझदार होते हैं, पर तुम सबसे न्यारे हो। आदमी को चाहिए कि जैसा समय
देखे वैसा काम करे। अब हमारा और तुम्हारा निबाह इसी में है कि नाम
के मालिक बने रहें और वही करें जो लड़कों को अच्छा लगे। मैं यह बात
समझ गयी, तुम क्यों नहीं समझ पाते ? जो कमाता है, उसी का घर में राज
होता है, यही दुनिया का दस्तूर है। मैं बिना लड़कों से पूछे कोई काम नहीं
करती, तुम क्यों अपने मन की करते हो ? इतने दिनों तक तो राज कर लिया,
अब क्यों इस माया में पड़े हो ? आधी रोटी खाओ, भगवान् का भजन करो
और पड़े रहो। चलो, खाना खा लो।
सुजान , तो अब मैं द्वार का कुत्ता हूँ ?
बुलाकी , बात जो थी, वह मैंने कह दी। अब अपने को जो चाहो समझो।
सुजान न उठे। बुलाकी हार कर चली गयी।
सुजान के सामने अब एक नयी समस्या खड़ी हो गयी थी। वह बहुत दिनों
से घर का स्वामी था और अब भी ऐसा ही समझता रहा। परिस्थिति में कितना
उलट फेर हो गया था, इसकी उसे खबर न थी। लड़के उसका सेवा-सम्मान
करते हैं, यह बात उसे भ्रम में डाले हुए थी। लड़के उसके सामने चिलम नहीं
पीते, खाट पर नहीं बैठते, क्या यह सब उसके गृह-स्वामी होने का प्रमाण
न था ? पर आज उसे यह ज्ञात हुआ कि यह केवल श्रृद्धा थी, उसके स्वामित्व
का प्रमाण नहीं। क्या इस श्रृद्धा के बदले वह अपना अधिकार छोड़ सकता
था ? कदापि नहीं। अब तक जिस घर में राज किया, उसी घर में पराधीन
बन कर वह नहीं रह सकता। उसको श्रृद्धा की चाह नहीं, सेवा की भूख
नहीं। उसे अधिकार चाहिए। वह इस घर पर दूसरों का अधिकार नहीं देख
सकता। मंदिर का पुजारी बन कर वह नहीं रह सकता।
न-जाने कितनी रात बाकी थी। सुजान ने उठ कर गँड़ासे से बैलों का
चारा काटना शुरू किया। सारा गाँव सोता था, पर सुजान करवी काट रहे
थे। इतना श्रम उन्होंने अपने जीवन में कभी न किया था। जब से उन्होंने
काम करना छोड़ा था, बराबर चारे के लिए हाय-हाय पड़ी रहती थी। शंकर
1415
भी काटता था, भोला भी काटता था पर चारा पूरा न पड़ता था। आज वह
इन लौंडों को दिखा देंगे, चारा कैसे काटना चाहिए। उनके सामने कटिया
का पहाड़ खड़ा हो गया। और टुकड़े कितने महीन और सुडौल थे, मानो साँचे
में ढाले गये हों।
मुँह-अँधेरे  बुलाकी उठी तो कटिया का ढेर देख कर दंग रह गयी।
बोली —  क्या भोला आज रात भर कटिया ही काटता रह गया ? कितना कहा
कि बेटा, जी से जहान है, पर मानता ही नहीं। रात को सोया ही नहीं।
सुजान भगत ने ताने से कहा —वह सोता ही कब है ? जब देखता हूँ,
काम ही करता रहता है। ऐसा कमाऊ संसार में और कौन होगा ?
इतने में भोला आँखे मलता हुआ बाहर निकला। उसे भी यह ढेर देख
कर आश्चर्य हुआ। माँ से बोला —  क्या शंकर आज बड़ी रात को उठा था,
अम्माँ ?
बुलाकी , वह तो पड़ा सो रहा है। मैंने तो समझा, तुमने काटी होगी।
भोला , मैं तो सबेरे उठ ही नहीं पाता। दिन भर चाहे जितना काम
कर लूँ, पर रात को मुझसे नहीं उठा जाता।
बुलाकी , तो क्या तुम्हारे दादा ने काटी है ?
भोला , हाँ, मालूम तो होता है। रात भर सोये नहीं। मुझसे कल बड़ी
भूल हुई। अरे, वह तो हल ले कर जा रहे हैं ! जान देने पर उतारू हो गये
हैं क्या ?
बुलाकी , क्रोधी तो सदा के हैं। अब किसी की सुनेंगे थोड़े ही।
भोला , शंकर को जगा दो, मैं भी जल्दी से मुँह-हाथ धोकर हल ले जाऊँ।
जब और किसानों के साथ भोला हल ले कर खेत में पहुँचा, तो सुजान आधा
खेत जोत चुके थे। भोला ने चुपके से काम करना शुरू किया। सुजान से
कुछ बोलने की उसकी हिम्मत न पड़ी।
दोपहर हुआ। सभी किसानों ने हल छोड़ दिये। पर सुजान भगत अपने
काम में मग्न हैं। भोला थक गया है। उसकी बार-बार इच्छा होती है कि
बैलों को खोल दे। मगर डर के मारे कुछ कह नहीं सकता। सबको आश्चर्य
हो रहा है कि दादा कैसे इतनी मिहनत कर रहे हैं।
आखिर डरते-डरते बोला —  दादा, अब तो दोपहर हो गया। हल खोल
दें न ?
1416 : मानसरोवर
सुजान , हाँ, खोल दो। तुम बैलों को ले कर चलो, मैं डॉड़ फेंक कर
आता हूँ।
भोला , मैं संझा को डॉड़ फेंक दूँगा।
सुजान , तुम क्या फेंक दोगे। देखते नहीं हो, खेत कटोरे की तरह गहरा
हो गया है। तभी तो बीच में पानी जम जाता है। इस गोइँड़ के खेत में बीस
मन का बीघा होता था। तुम लोगों ने इसका सत्यानाश कर दिया।
बैल खोल दिये गये। भोला बैलों को ले कर घर चला, पर सुजान डॉड़
फेंकते रहे। आधा घंटे के बाद डॉड़ फेंक कर वह घर आये। मगर थकान
का नाम न था। नहा-खा कर आराम करने के बदले उन्होंने बैलों को सहलाना
शुरू किया। उनकी पीठ पर हाथ फेरा, उनके पैर मले, पूँछ सहलायी। बैलों
की पूँछें खड़ी थीं। सुजान की गोद में सिर रखे उन्हें अकथनीय सुख मिल
रहा था। बहुत दिनों के बाद आज उन्हें यह आनंद प्राप्त हुआ था। उनकी
आँखों में कृतज्ञता भरी हुई थी। मानो वे कह रहे थे, हम तुम्हारे साथ रात-दिन
काम करने को तैयार हैं।
अन्य कृषकों की भाँति भोला अभी कमर सीधी कर रहा था कि सुजान
ने फिर हल उठाया और खेत की ओर चले। दोनों बैल उमंग से भरे दौड़े
चले जाते थे, मानों उन्हें स्वयं खेत में पहुँचने की जल्दी थी।
भोला ने मड़ैया में लेटे-लेटे पिता को हल लिये जाते देखा, पर उठ
न सका। उसकी हिम्मत छूट गयी। उसने कभी इतना परिश्रम न किया था।
उसे बनी-बनायी गिरस्ती मिल गयी थी। उसे ज्यों-त्यों चला रहा था। इन
दामों वह घर का स्वामी बनने का इच्छुक न था। जवान आदमी को बीस
धंधो होते हैं। हँसने-बोलने के लिए, गाने-बजाने के लिए भी तो उसे कुछ समय
चाहिए। पड़ोस के गाँव में दंगल हो रहा है। जवान आदमी कैसे अपने को
वहाँ जाने से रोकेगा ? किसी गाँव में बारात आयी है, नाच-गाना हो रहा है।
जवान आदमी क्यों उसके आनंद से वंचित रह सकता है ? वृद्धजनों के लिए
ये बाधाएँ नहीं। उन्हें न नाच-गाने से मतलब, न खेल-तमाशे से गरज, केवल
अपने काम से काम है।
बुलाकी ने कहा —भोला, तुम्हारे दादा हल ले कर गये।
भोला , जाने दो अम्माँ, मुझसे यह नहीं हो सकता।
सुजान भगत के इस नवीन उत्साह पर गाँव में टीकाएँ हुईं , निकल गयी सारी
1417
भगती। बना हुआ था। माया में फँसा हुआ है। आदमी काहे को, भूत है।
मगर भगत जी के द्वार पर अब फिर साधु-संत आसन जमाये देखे जाते
हैं। उनका आदर-सम्मान होता है। अब की उसकी खेती ने सोना उगल दिया
है। बखारी में अनाज रखने की जगह नहीं मिलती। जिस खेत में पाँच मन
मुश्किल से होता था, उसी खेत में अबकी दस मन की उपज हुई है।
चैत का महीना था। खलिहानों में सतयुग का राज था। जगह-जगह
अनाज के ढेर लगे हुए थे। यही समय है, जब कृषकों को भी थोड़ी देर के
लिए अपना जीवन सफल मालूम होता है, जब गर्व से उनका हृदय उछलने
लगता है। सुजान भगत टोकरे में अनाज भर-भर कर देते थे और दोनों लड़के
टोकरे ले कर घर में अनाज रख आते थे। कितने ही भाट और भिक्षुक भगत
जी को घेरे हुए थे। उनमें वह भिक्षुक भी था, जो आज से आठ महीने पहले
भगत के द्वार से निराश हो कर लौट गया था।
सहसा भगत ने उस भिक्षुक से पूछा—क्यों बाबा, आज कहाँ-कहाँ चक्कर
लगा आये ?
भिक्षुक , अभी तो कहीं नहीं गया भगत जी, पहले तुम्हारे ही पास आया
हूँ।
भगत , अच्छा, तुम्हारे सामने यह ढेर है। इसमें से जितना अनाज उठा
कर ले जा सको, ले जाओ।
भिक्षुक ने क्षुब्ध नेत्रों से ढेर को देख कर कहा —जितना अपने हाथ
से उठा कर दे दोगे, उतना ही लूँगा।
भगत , नहीं, तुमसे जितना उठ सके, उठा लो।
भिक्षुक के पास एक चादर थी ! उसने कोई दस सेर अनाज उसमें भरा
और उठाने लगा। संकोच के मारे और अधिक भरने का उसे साहस न हुआ।
भगत उसके मन का भाव समझ कर आश्वासन देते हुए बोले —  बस।
इतना तो एक बच्चा भी उठा ले जायगा।
भिक्षुक ने भोला की ओर संदिग्धा नेत्रों से देख कर कहा —मेरे लिए
इतना ही बहुत है।
भगत , नहीं तुम सकुचाते हो। अभी और भरो।
भिक्षुक ने एक पंसेरी अनाज और भरा, और फिर भोला की ओर सशंक
दृष्टि से देखने लगा।
1418 : मानसरोवर
भगत , उसकी ओर क्या देखते हो, बाबा जी ? मैं जो कहता हूँ, वह
करो। तुमसे जितना उठाया जा सके, उठा लो।
भिक्षुक डर रहा था कि कहीं उसने अनाज भर लिया और भोला ने
गठरी न उठाने दी, तो कितनी भद्द होगी। और भिक्षुकों को हँसने का अवसर
मिल जायगा। सब यही कहेंगे कि भिक्षुक कितना लोभी है। उसे और अनाज
भरने की हिम्मत न पड़ी।
तब सुजान भगत ने चादर ले कर उसमें अनाज भरा और गठरी बाँध
कर बोले —  इसे उठा ले जाओ।
भिक्षुक , बाबा, इतना तो मुझसे उठ न सकेगा।
भगत , अरे ! इतना भी न उठ सकेगा ! बहुत होगा तो मन भर। भला
जोर तो लगाओ, देखूँ, उठा सकते हो या नहीं।
भिक्षुक ने गठरी को आजमाया। भारी थी। जगह से हिली भी नहीं।
बोला —  भगत जी, यह मुझ से न उठ सकेगी !
भगत , अच्छा, बताओ किस गाँव में रहते हो ?
भिक्षुक , बड़ी दूर है भगत जी; अमोला का नाम तो सुना होगा !
भगत , अच्छा, आगे-आगे चलो, मैं पहुँचा दूँगा।
यह कहकर भगत ने जोर लगा कर गठरी उठायी और सिर पर रख
कर भिक्षुक के पीछे हो लिये। देखने वाले भगत का यह पौरुष देख कर चकित
हो गये। उन्हें क्या मालूम था कि भगत पर इस समय कौन-सा नशा था।
आठ महीने के निरंतर अविरल परिश्रम का आज उन्हें फल मिला था। आज
उन्होंने अपना खोया हुआ अधिकार फिर पाया था। वही तलवार, जो केले
को भी नहीं काट सकती, सान पर चढ़ कर लोहे को काट देती है। मानव-जीवन
में लाग बड़े महत्त्व की वस्तु है। जिसमें लाग है, वह बूढ़ा भी हो तो जवान
है। जिसमें लाग नहीं, गैरत नहीं, वह जवान भी मृतक है। सुजान भगत में
लाग थी और उसी ने उन्हें अमानुषीय बल प्रदान कर दिया था। चलते समय
उन्होंने भोला की ओर सगर्व नेत्रों से देखा और बोले —  ये भाट और भिक्षुक
खड़े हैं, कोई खाली हाथ न लौटने पाये।
भोला सिर झुकाये खड़ा था, उसे कुछ बोलने का हौसला न हुआ। वृद्ध
पिता ने उसे परास्त कर दिया था।

शंखनाद / प्रेमचंद / Premchand

शंखनाद / प्रेमचंद / Premchand 1 भानु चौधरी अपने गाँव के मुखिया थे। गाँव में उनका बड़ा मान था। दारोगा जी उन्हें टाट बिना जमीन पर ...